तुम्हें याद है आज से डेढ़ साल पहले हमने तय किया था कि साल का एक दिन अमेरिकी मज़दूरों को समर्पित किया जाये, एक दिन जो हमारा होगा, जो हमारी एकता और आठ घण्टे काम के संघर्ष में हमारे दृढ़संकल्प का प्रतीक होगा। हमने पहली मई का दिन चुना। क़सम से, तुमने सोचा होगा कि हमने अपने लिए एक दिन, अपने लिए एक छुट्टी माँगकर देश की बुनियाद ही नष्ट कर दी। तुम्हें याद होगा कि जैसे-जैसे वह दिन क़रीब आया, क्या हुआ। पिंकरटन्स की पूरी फौज शिकागो में उमड़ पड़ी। पुलिसवाले सर से पाँव तक हथियारों से लैस हो गये। सड़कों पर घूमने वाले सारे आवारों को हमारे ख़िलाफ तैनात कर दिया गया। नेशनल गार्ड को सावधान कर दिया गया। यहाँ तक कि शिकागो में शान्ति बनाये रखने के लिए फौज की टुकड़ियों की माँग की गयी। लेकिन क्या हमसे शान्ति को ख़तरा था? हमने तो बस आठ घण्टे काम के आन्दोलन के लिए अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए एक दिन माँगा था। और शनिवार का वह दिन आया और बीत गया। कोई गड़बड़ी नहीं हुई। गड़बड़ी तो हमारी दुश्मन थी। हमें अपना उद्देश्य पता था। हम सारे देश में संगठित थे — हिंसा से हमें क्या लाभ मिलता?
”लेकिन 3 मई को, सोमवार के दिन एक बुरी बात हो गयी। तुम जानते ही हो इसके बारे में, पर मैं हर चीज़ को उसकी जगह पर रखना चाहूँगा। मैकार्मिक कारख़ाने पर आयोजित प्रदर्शन सिर्फ लम्बर शोवर्स यूनियन का ही प्रदर्शन नहीं था, वहाँ मैकार्मिक कारख़ाने के भी एक हज़ार से ज़्यादा हड़ताली मज़दूर थे। हालाँकि आगस्त स्पाइस वहाँ बोला था पर उसने गड़बड़ी करने का नारा नहीं दिया था। उसने एकता के लिए आह्नान किया था। यह कोई अपराध है क्या? गड़बड़ी तो तब शुरू हुई जब हड़ताल तोड़ने वाले मज़दूर कारख़ाने से बाहर जाने लगे। हड़तालियों ने उन्हें देख लिया और बुरा-भला कहना, गालियाँ देना शुरू कर दिया जो यहाँ दोहराने लायक़ नहीं है। उस दृश्य की कल्पना करो। दो यूनियनों के छह हज़ार हड़ताली मज़दूर बाहर सभा कर रहे हैं और उनकी नज़रों के सामने से हड़ताल-तोड़क चले जा रहे हैं। मैंने देखा — वहाँ क्या हुआ। मैकार्मिक के हड़ताली कारख़ाने की ओर बढ़ने लगे। किसी ने उनसे कहा नहीं था, किसी ने उन्हें उकसाया नहीं था। उन्होंने सुनना बन्द कर दिया था और वे फाटकों की ओर बढ़ रहे थे। हो सकता है उन्होंने कुछ पत्थर उठा रखे हों, हो सकता है उन्होंने भद्दी बातें कहीं हों — लेकिन उनके कुछ करने से पहले ही कारख़ाने की पुलिस ने गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। हे भगवान, लगता था जैसे कोई युद्ध हो। हड़ताली निहत्थे थे और पुलिस मानो चाँदमारी कर रही हो, पिस्तौलें हाथ भर की दूरी पर थीं, रायफलें भी तनी हुई थीं धाँय, धाँय, धाँय…।
”लोगों का कहना है कि कारख़ाने ने कुमुक माँगी थी। इसमें कुछ वक्त लगता, लगता या नहीं, लेकिन मिनटों में पुलिसवालों से लदी एक गश्ती गाड़ी आ धमकी और उनके पीछे दौड़ते हुए आयी दो सौ हथियारबन्द आदमियों की टुकड़ी।
”ऐसा दृश्य पुरानी दुनिया में सम्भव था, यहाँ नहीं। मज़दूर ऐसे गिर रहे थे जैसे लड़ाई का मैदान हो। जब उन्होंने टिककर खड़े होने की कोशिश की तो पुलिसवाले चढ़ दौड़े और लाठियों से पीटकर उन्हें अलग कर दिया। जब वे तितर-बितर होकर दौड़े तो पुलिसवालों ने उनका पीछा किया, पीछे से लाठियाँ बरसायीं। देखा नहीं जाता था। यह क्रूरता थी, वहशीपन था। भाग जाने का मन कर रहा था। लगता था कै हो जायेगी। और यही किया मैंने। पर स्पाइस भागकर ‘आरबाइटेर ज़ाइटुंग’ (श्रमिक समाचारपत्र) के दफ़्तर पहुँचा और इस घटना का विरोध करने के लिए हे मार्केट चौराहे पर मीटिंग की फौरी ख़बर चारों ओर भिजवायी। यह थी शुरुआत। इसलिए शुरू हुआ यह सब क्योंकि हम अपने दिन, मई दिवस पर शान्त और संयमित थे और वे इसे गवारा नहीं कर सकते थे। बन्दूकों से, बन्दूकों से वे असली गड़बड़ी फैला सकते थे और तब लोग चीख़-चीख़कर क्रान्ति की बात करते।
”पर असल बात यह है कि पार्सन्स वहाँ नहीं था। ठीक वैसे ही जैसे पार्सन्स उस वक्त हे मार्केट में नहीं था जब बम फेंका गया। सिर्फ मैकार्मिक के और लकड़ी ढोने वाले मज़दूर ही हड़ताल पर नहीं थे। पुलमैनवाले, ब्रुन्जविकवाले, पैकिंग कारख़ानों के मज़दूर, सभी हड़ताल पर थे और शिकागो ही नहीं सेण्ट लुई, सिनसिनाटी, न्यूयार्क, सान फ्रांसिस्को हर जगह हड़ताल थी। पार्सन्स कहीं भी हो सकता था, पर वह यहाँ नहीं था। पार्सन्स थका हुआ और बीमार था। वह घर आता और बिस्तर पर ढह जाता। मज़दूरों के संगठनकर्ता की ज़िन्दगी ज़्यादा नहीं चलती। पहले पेट जवाब देता है, फिर टाँगें और जब आपको अच्छी तरह पीटा और लाठियों से कूँचा जा चुका हो तब सिर और दिमाग़ भी जवाब देने लगते हैं।
”तो उन्होंने अगले दिन हे मार्केट में मीटिंग रखी। हे मार्केट को उन्होंने इसलिए चुना था क्योंकि वह जगह बड़ी थी। स्पाइस तो जैसे पागल हो उठा था। घायल और मर रहे आदमियों की तस्वीर उसके दिमाग़ से हटती ही नहीं थी। वह सोच रहा था कि हज़ारों-हज़ार मज़दूर विरोध प्रदर्शन में आ जायेंगे। लेकिन मैकार्मिक तो एक विराट संघर्ष का छोटा-सा हिस्सा भर था और मज़दूरों की हार तो शुरू हो चुकी थी। हर जगह उन्हें कुचला और तोड़ा जा रहा था। एक और मीटिंग से भला क्या हो जाता? पर स्पाइस को कम मत समझना। वह बहुत तेज़ आदमी था, और ईमानदार भी। विदेशों में जन्मे मज़दूरों के बीच उसकी वही हैसियत थी जो अमेरिकी मज़दूरों के बीच पार्सन्स की थी। वह सोचता था कि यह एक ऐसा मौक़ा है जिसे गँवाना नहीं चाहिए। अगर हे मार्केट में बीस हज़ार मज़दूर इकट्ठा हो जाते हैं तो ‘काम के घण्टे आठ’ आन्दोलन का रुख़ बदल सकता है। हो सकता है कि ऐसा ही होता, पर पता नहीं, जैसा मैं कह रहा था, मैं इन लोगों से सहमत नहीं हूँ। क्रान्ति की बात से मेरी लड़ाई आगे नहीं बढ़ती, बाधित ही होती है। मैं तो ऐसा ही समझता हूँ।
”लेकिन अगली शाम को हे मार्केट में बीस हज़ार लोग नहीं इकट्ठा हुए। जब स्पाइस वहाँ पहुँचा तो बहुत थोड़े लोग थे। शाम गुज़रने के साथ लोग उधर बढ़े तो सही, पर कभी भी भीड़ तीन हज़ार तक भी नहीं पहुँची। चूँकि भीड़ कम थी इसलिए उन्होंने मीटिंग की जगह हे मार्केट से बदलकर दे प्लेन कर दी, जो लेक और रैडोल्फ के बीच की एक जगह थी। लेकिन मैं तुम्हें पार्सन्स के बारे में बता रहा हूँ। सिर्फ इसीलिए तो आज सुबह तुम्हारा वक्त बरबाद कर रहा हूँ। मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि कैसे पार्सन्स वहाँ नहीं था, कैसे उसे मीटिंग के बारे में पता तक नहीं था। वैसे तो सैम फील्डेन (पार्सन्स और स्पाइस का दोस्त और मज़दूर संगठनकर्ता) भी हे मार्केट की मीटिंग के बारे में नहीं जानता था।
”लेकिन फिर पार्सन्स के बारे में बात करें। उसने दो मई को शिकागो छोड़ दिया था और भाषण देने सिनसिनाटी चला गया था। तीन मई के पूरे दिन जब मैकार्मिक कारख़ाने पर यह भयानक घटना घट रही थी, तब पार्सन्स यहाँ था ही नहीं। वह चार की सुबह घर पहुँचा। वह सारी रात सोया नहीं था। जब लूसी उसे बता रही थी कि यहाँ क्या हुआ तब वह थकान से निढाल हो रहा था। ख़ुद उसने सिनसिनाटी में जो कुछ देखा था उससे कुछ अलग नहीं था यह। मालिक लोग नाराज़ थे। मालिकों के लिए उन्हें चुनौती देने की जुर्रत करने वाले गन्दे राक्षस को कुचल डालना ज़रूरी था, और वे उसको कुचलने में लगे हुए थे। और हर कहीं वह टुकड़े-टुकड़े हो रहा था। गैटलिंग बन्दूक़ के सामने भूखे, थके, निहत्थे आदमी की क्या बिसात थी!
”पार्सन्स पत्नी का बयान सुनता रहा। अपने दोनों बच्चों के साथ खेलता रहा। उसने पत्नी की दी हुई कॉफी पी, पावरोटी का एक टुकड़ा खाया। उसने लूसी से कहा, ‘हमें कुछ करना ही होगा।’ पर करने को था ही क्या? वह बोली, ‘तुम बहुत थक गये हो। आज रात मीटिंग नहीं कर पाओगे।’ वह हे मार्केट की मीटिंग की बात नहीं कर रही थी। उस मीटिंग के बारे में तो वह जानती ही नहीं थी। ‘मीटिंग तो करनी ही होगी,’ पार्सन्स ने कहा। पार्सन्स के नेतृत्व में काम करने वालों को हम लोग ‘अमेरिकी ग्रुप’ कहते थे क्योंकि उनमें से ज़्यादातर अमेरिका में पैदा हुए मज़दूर थे। उसने तय किया कि मीटिंग होगी और बेहद थके होने के बावजूद ‘डेली न्यूज़’ में घोषणा करवाने चला गया। फिर वह घर लौटा और बच्चों के साथ थोड़ी देर और खेला। फिर सो गया। जागने पर वह काफी अच्छा महसूस कर रहा था। पहले जैसा, हँसता-हँसाता। लूसी बताती है कि उसने हार की नहीं जीत की बातें कीं, और कहा कि उसके बच्चे एक ऐसे अमेरिका में बड़े होंगे जो दुनिया को न्याय और आज़ादी की ओर ले जायेगा।
”शाम को वह, लूसी और दोनों बच्चे मीटिंग में गये। हमेशा की तरह वह और लूसी साथ-साथ चल रहे थे, प्रेमियों की तरह एक-दूसरे को निहारते हुए।
”इस बीच हे मार्केट की मीटिंग में लोग तो कम थे ही, वह शुरू ही नहीं हो पा रही थी। कैसी बुरी रात थी! डरावनी, कभी भी पानी बरसने का ख़तरा बना हुआ था। बारिश के डर से काफी लोग नहीं आये थे। जो आये थे वे इन्तज़ार कर रहे थे कि कब मीटिंग शुरू हो और ख़त्म हो। लेकिन जानते ही हो, सब पार्सन्स पर निर्भर थे, पर पता चला कि हरेक ने पार्सन्स को मीटिंग में लाने की बात किसी और पर छोड़ रखी है। स्पाइस मीटिंग को पार्सन्स के बिना शुरू नहीं करना चाहता था और जब किसी ने ‘डेली न्यूज़’ की घोषणा के बारे में बताया तो स्पाइस बोला कि वह ख़ुद पार्सन्स को लेने जायेगा। लेकिन ऐसा करने से तो मीटिंग की जान ही निकल जाती। उन्होंने स्पाइस को बोलना शुरू करने के लिए तैयार कर लिया और कोई दूसरा पार्सन्स को ढूँढ़ने चला गया। स्पाइस ने बोलना शुरू किया। उसने जो कहा उसे दोहराने की ज़रूरत नहीं। अख़बारों में काफी छप चुका है। लेकिन यह याद करने की ज़रूरत है कि उसने मुख्य तौर पर ‘काम के घण्टे आठ’ आन्दोलन की बात की। उसने कहा कि सबकुछ सिर्फ इसीलिए ख़त्म नहीं हो जाना चाहिए कि मज़दूरों पर लाठियाँ-गोलियाँ बरसायी गयी हैं। हमें और एकजुट होना होगा, और कठिन संघर्ष करना होगा। और उसने बताया कि पिछले दिन मैकार्मिक पर क्या हुआ था। इस बीच कोई दूसरी वाली मीटिंग में पार्सन्स के पास पहुँच चुका था। वहाँ फील्डेन भी था। वह तो होता ही, क्योंकि भले ही वह अंग्रेज़ है पर अमेरिकियों के साथ मुझसे बेहतर ढंग से बात कर सकता है। पार्सन्स बुरी तरह थका हुआ था पर उसने कहा कि वह आयेगा और फिर से बोलेगा। फील्डेन भी उसके साथ आया। फील्डेन लम्बा-तड़ंगा है। यार्कशायरवालों की तरह उसे ग़ुस्सा देर से आता है पर चारों ओर जो कुछ हो रहा था उसे देख-सुनकर वह भीतर ही भीतर उबल रहा था। उसके मन में कड़वाहट भर गयी थी। और जब वह बोलता था तो यह कड़वाहट बाहर आ जाती थी।
”ख़ैर! पार्सन्स अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के साथ दे प्लेन स्ट्रीट गया जहाँ स्पाइस की मीटिंग थी। बच्चे तब तक थक चुके थे। एक लूसी की गोद में था, दूसरा पार्सन्स की। हाँ-हाँ, यह मैं तुम्हारी सहानुभूति पाने के लिए ही कह रहा हूँ। आज के बाद वक्त नहीं होगा। और मुझे तुमसे सहानुभूति पाने में कोई शर्म नहीं है।
”अभी भी काले आसमान के नीचे क़रीब दो हज़ार आदमी पार्सन्स का इन्तज़ार कर रहे थे। तुम नहीं समझोगे। पर मैंने दो-दो घण्टे खड़े रहक़र पार्सन्स के बोलने का इन्तज़ार किया है। वहाँ दो गाड़ियाँ थीं। एक गाड़ी का इस्तेमाल भाषण देने वाले मंच की तरह कर रहे थे और दूसरी पर लोग बैठे थे, पर उन्होंने लूसी पार्सन्स और बच्चों के लिए जगह बना दी। पार्सन्स को देखकर स्पाइस को राहत मिली। तुम्हीं सोचो, कैसा लगेगा जब तुम्हारी नज़र में इतना महत्वपूर्ण मौक़ा हो और भीड़ खिसकना शुरू कर दे।
”स्पाइस को ऐसा ही लग रहा था। तुम तो ख़ुद ही काफी दिनों से राजनीति में रहे हो। समझ सकते हो कि अगर श्रोता मीटिंग छोड़कर जाने लगें, और वह भी एक-एक करके नहीं, झुण्डों में, तो अच्छे से अच्छा आदमी भी पस्त हो जायेगा। बहरहाल, जब पार्सन्स बोलने के लिए खड़ा हुआ तो नौ बज चुके थे। लोग रुक गये। ज़रा उसकी हालत के बारे में सोचो। वह तीस घण्टों से नहीं सोया था। एक मीटिंग में बोलकर सीधे वहाँ पहुँचा था। वह सबकुछ जिसके लिए वह लड़ता रहा था, उसे अपनी आँखों के सामने टूटते, बिखरते देख रहा था। फिर भी वह बोला, और अच्छी तरह बोला। उसने ‘आठ घण्टे के काम’ आन्दोलन से बात शुरू की, फिर मज़दूरों के बारे में बोला। मैं नहीं समझता, अमेरिका में मज़दूरों के बारे में कोई पार्सन्स से ज़्यादा जानता होगा। वह इज़ारेदारी के बढ़ने के बारे में बोला — यह सब ठीक है। तुमने उसका बयान पढ़ा है, तुम जानते हो वह किसके बारे में बोला। लेकिन ये बातें सरासर झूठी हैं कि उसने पहले से लिखकर तैयार किया हुआ कोई भाषण दिया, यह बिल्कुल झूठ है। उसके दिमाग़ में जो बातें आती गयीं, वह बोलता गया। कोई लिखा हुआ भाषण नहीं था और न ही किसी ने उसकी बातों को लिखा था। हाँ, अगले दिन एक भाषण का आविष्कार कर लिया गया, पर वह पार्सन्स का नहीं था।
”और फिर उसने बात ख़त्म की और फील्डेन का परिचय कराया। यहाँ बैठकर तुमसे बातें करते हुए फील्डेन की बातों को याद करना दिलचस्प है क्योंकि फील्डेन क़ानून के बारे में बोला था। धनिकों का क़ानून, ग़रीबों का नहीं, धनिकों की अदालतें, ग़रीबों की नहीं। ठीक है, मैं पार्सन्स के बारे में ही बताता हूँ। बैठो, और मेरी बात सुनो, या हो सकता है तुम मेरी बात न सुनो और सोचो कि यह बेवकूफ बढ़ई बेकार में तुम्हारा वक्त बरबाद कर रहा है। लेकिन इस बढ़ई का लेबर पार्टी में राजनीतिक प्रभाव है, तुम्हें उसकी बातें सुननी चाहिए और उसकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहिए। ठीक है, फिर मुझे अपनी तरह से बताने दो।
”फील्डेन ने बोलना शुरू किया तो पार्सन्स गाड़ी के पास गया और छोटे बच्चे को उठा लिया। तभी बारिश शुरू हो गयी। एक बच्चा रोने लगा। जो कुछ हुआ उसकी रोशनी में इस बात पर ग़ौर करना। बच्चे को गोद में लिए हुए पार्सन्स मंच तक गया जहाँ से फील्डेन बोल रहा था। उसने कहा कि बारिश हो रही है, क्यों न वे जेफ हॉल में चले चलें जहाँ अक्सर उनकी मीटिंगें हुआ करती थीं। उसने ऐसा इसलिए सोचा क्योंकि उसकी गोद में बच्चा था और वह ख़ुद बहुत थका हुआ था। लेकिन दो हज़ार लोगों को सड़कों से होकर शान्ति के साथ ले जाना और हॉल में ले जाकर व्यवस्थित ढंग से बैठाना कैसे होता है। ‘मैं बस दो मिनट में बात ख़त्म करता हूँ,’ फील्डेन बोला। पार्सन्स ने सिर हिलाया पर वह बच्चों के साथ बारिश में वहाँ खड़ा नहीं रह सकता था। भीड़ छँट रही थी। उस वक्त तक वहाँ करीब छ:-सात सौ लोग होंगे, जो अभी भी बारिश में खडे भाषण सुन रहे थे।
”तो पार्सन्स, लूसी, दोनों बच्चे और एक दोस्त मीटिंग से जेफ हॉल चले गये। वे थोड़ी देर के लिए ही गये थे वहाँ, कुछ लोगों से मिलने, और उसके बाद उन्हें घर जाना था। लेकिन धमाका उन्होंने वहीं पर सुना।
”और वह धमाका, वह बम तुम तो जानते ही हो कैसे हुआ, या हो सकता है न जानते हो। इस बात को बहुत दिन हो गये हैं, हो सकता है मेरे अच्छे दोस्त को बात याद न हो। फील्डेन बोल ही रहा था कि वार्ड और बोनफील्ड के नेतृत्व में दो सौ पुलिसवाले भीड़ को ठेलते हुए आ धमके। क्यों? कैसे? किसलिए? उस शान्त, व्यवस्थित मीटिंग के लिए जो ख़ुद बिखर रही थी? मुश्किल से पाँच सौ लोग बचे होंगे उस वक्त तक। और सिपाहियों के आगे खडा वार्ड चिल्लाने लगा कि वे फौरन तितर-बितर हो जायें। फील्डेन क्या करता? बोलना बन्द करके वह गाड़ी से उतरने लगा। भीड़ सड़क के दूसरी ओर जाने लगी। तभी बम फेंका गया, भगवान जाने कहाँ से। वह पुलिसवालों के सामने ही फटा। एक वहीं मर गया, कई घायल हुए। किसने फेंका था बम? डेढ़ साल से इस दुख की नगरी में हमने इसके सिवा कुछ नहीं सुना है कि बम किसने फेंका। भगवान या शक्ति या भाग्य जो भी हो, मैं उसकी क़सम खाकर कहता हूँ जज, कि हमारे किसी आदमी ने बम नहीं फेंका। हाँ, यही राय है मेरी। और मेरे पूर्वाग्रह हैं। मैं एक मज़दूर हूँ और निश्चित तौर पर मेरे पूर्वाग्रह हैं। पर अब जबकि कुछ घण्टों में पार्सन्स मरने जा रहा है, मैं यह क़सम खाकर कहता हूँ। मुझे हिंसा से नफरत है। मैं क़सम खाकर जो कह रहा हूँ, उस पर मुझे विश्वास है। यह बम हमारे दुश्मनों ने फेंका था। तब से अब तक जो कुछ हुआ है उस पर ग़ौर करो और सोचो कि क्या इसके अलावा कोई और बात हो सकती थी? सोचो कि बम फेंके जाने के तुरन्त बाद क्या हुआ, कैसे पुलिसवालों ने बन्दूकें तान लीं और गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। इसके आगे तो एक दिन पहले की मैकार्मिक की घटना मामूली पड़ गयी थी। उन्होंने पागलों की तरह गोलियाँ चलायीं। उन्होंने मज़दूरों को, उनकी बीवियों को और बच्चों को भून डाला। हम निहत्थे थे। हमारी तरफ से कोई गोली नहीं चली। लेकिन पुलिस गोलियाँ बरसाती रही। भीड़ तितर-बितर हो गयी थी और लोग चीख़ते हुए चारों ओर भाग रहे थे।
”यह है सच्चाई,” छोटे क़द के उस बढ़ई ने कहा, ”मैंने वहाँ मौजूद सैकड़ों लोगों से यही कहानी सुनी है। यही सच्चाई है।”
उन्हें शुक्रवार को फाँसी दी गयी। अगले दिन अख़बारों में फाँसी के विस्तृत ब्योरे और ढेरों सम्पादकीय छपे थे — मरने वाले व्यक्तियों पर, क़ानून और व्यवस्था पर, जनतन्त्र पर, संविधान और इसके ढेरों संशोधनों पर — ज़िनमें से कुछ को ‘बिल ऑफ राइट्स’ कहा जाता है — क्रान्ति, गणतन्त्र के संस्थापकों और गृहयुद्ध के बारे में। इसी के साथ छपी थीं अन्त्येष्टि की सूचनाएँ। शहर के अधिकारियों ने पाँचों मृत व्यक्तियों — लिंग्ग, जो अपनी कोठरी में मर गया था, पार्सन्स, स्पाइस, फिशर और एँजिल के सम्बन्धियों और मित्रों को उनके शरीर प्राप्त कर लेने की अनुमति दे दी थी। ये मित्र और सम्बन्धी यदि चाहें तो उन्हें सार्वजनिक अन्त्येष्टि करने की भी इजाज़त थी। मेयर रोश ने घोषणा कर दी थी कि वाइल्डहाइम क़ब्रगाह जाते हुए मातमी जुलूस किन-किन सड़कों से गुज़र सकता था। यह सब बारह से दो के बीच होना था। सिर्फ मातमी संगीत बज सकता था। हथियार नहीं ले जाये जा सकते थे, झण्डे और बैनर लेकर चलना मना था। अख़बारों के मुताबिक़ हालाँकि ये लोग समाज के घोषित दुश्मन थे, अपराधी और हत्यारे थे, फिर भी अन्त्येष्टि में शामिल होने के लिए कुछ सौ लोग चले आ सकते थे। और संविधान के उस हिस्से के मुताबिक़, जो धार्मिक स्वतन्त्रता की गारण्टी देता है, इस अन्त्येष्टि की इजाज़त देना न्यायसंगत ही था।
इतवार को जज ने पत्नी से कहा कि वह बाहर टहलने जा रहा है। हालाँकि एम्मा को शक था कि वह टहलते हुए कहाँ जायेगा पर वह कुछ बोली नहीं। न ही उसने यह कहा कि इतवार की सुबह उसके अकेले बाहर जाने की इच्छा कुछ अजीब थी। लेकिन दरअसल, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं थीं, जुलूस के रास्ते की ओर जाते हुए जज ने महसूस किया कि वह तो हज़ारो-हज़ार शिकागोवासियों में से बस एक है। और फिर ऐसा लगने लगा मानो क़रीब-क़रीब आधा शहर शिकागो की उदास, गन्दी सड़कों के दोनों ओर खड़ा जुलूस का इन्तज़ार कर रहा है।
सुबह ठण्डी थी और वह यह भी नहीं चाहता था कि लोग उसे पहचानें। इसलिए उसने कोट के कॉलर उठा लिये और हैट को माथे पर नीचे खींच लिया। उसने हाथ जेबों में ठूँस लिये और शरीर का बोझ कभी एक ठिठुरे हुए पैरे तो कभी दूसरे पर डालता हुआ इन्तज़ार करने लगा।
जुलूस दिखायी पडा। यह वैसा नहीं था जिसकी उम्मीद थी। वैसा तो क़तई नहीं था जैसी उम्मीद करके शहर के अधिकारियों ने इजाज़त दी थी। कोई संगीत नहीं था, सिवाय हल्के पदचापों और औरतों की धीमी सिसकियों के और बाकी सारी आवाज़ें, सारे शोर जैसे इनमें डूब गये थे। जैसे सारे शहर को ख़ामोशी के एक विशाल और शोकपूर्ण कफन ने ढँक लिया हो।
पहले झण्डा लिये हुए एक आदमी आया, जुलूस का एकमात्र झण्डा, एक पुराना रंग उड़ा हुआ सितारों और पट्टियोंवाला झण्डा जो गृहयुद्ध के दौरान गर्व के साथ एक रेजीमेण्ट के आगे चलता था। उसे लेकर चलने वाला गृहयुद्ध में लड़ा एक सिपाही था, एक अधेड़ उम्र का आदमी जिसका चेहरा ऐसा लग रहा था मानो पत्थर का गढ़ा हो।
फिर आयीं अर्थियाँ और ताबूत। फिर पुरानी, खुली हुई घोड़ागाड़ियाँ आयीं, जिनमें परिवारों के लोग थे। उनमें से एक में आल्टगेल्ड ने लूसी पार्सन्स को देखा, वह अपने दोनों बच्चों के साथ बैठी थी और निगाहें सीधी सामने टिकी हुई थीं।
फिर आये मरने वालों के अभिन्न दोस्त, उनके कामरेड। वे चार-चार की क़तार में चल रहे थे, उनके चेहरे भी उदास थे, जैसे गृहयुद्ध के सिपाही का चेहरा था।
फिर अच्छे कपड़ों में पुरुषों और स्त्रियों का एक समूह आया। उनमें से कइयों को आल्टगेल्ड जानता और पहचानता था — वकील, जज, डॉक्टर, शिक्षक, छोटे व्यापारी और बहुत-से दूसरे जो इन पाँचों मरने वालों को बचाने की लड़ाई में शामिल थे।
फिर आये मज़दूर जिनकी कोई सीमा ही नहीं थीं। वे आये थे पैकिंग करने वाली कम्पनियों से, लकड़ी के कारख़ानों से, मैकार्मिक और पुलमैन कारख़ानों से। वे आये थे मिलों से, खाद की खत्तियों से, रेलवे यार्डों से और कनस्तर गोदामों से। वे आये थे उन सरायों से जिनमें बेरोज़गार रहते थे, सड़कों से, गेहूँ के खेतों से, शिकागो और एक दर्जन दूसरे शहरों की गलियों से। बहुत-से अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने हुए थे, अपना एकमात्र काला सूट जिसे पहनकर उनकी शादी हुई थी। बहुतों के साथ उनकी पत्नियाँ भी थीं, बच्चे भी उनके साथ चल रहे थे। कुछ ने बच्चों को गोद में उठा रखा था। लेकिन बहुतेरे ऐसे भी थे जिनके पास काम के कपड़ों के सिवा कोई कपड़े नहीं थे। वे अपनी पूरी वर्दी और नीली जींस और फलालैन की क़मीज़ें पहने हुए थे। चरवाहे भी थे जो पाँच सौ मील से अपने घोड़ों पर यह सोचकर आये थे कि शिकागो में इन लोगों की सज़ा माफ करायी जा सकती है क्योंकि यहाँ के लोगों में विश्वास और इच्छाशक्ति है। और जब इसे नहीं रोका जा सका तो वे अर्थी के साथ चलने के लिए रुक गये थे। वे अपने बेढंगे ऊँची एड़ियों वाले जूते पहने चल रहे थे। उनमें शहर के आसपास के देहातों के लाल चेहरोंवाले किसान थे, इंजन ड्राइवर थे और विशाल झीलों से आये नाविक थे।
सैकड़ों पुलिसवाले और पिंकरटन के आदमी सड़क के दोनों ओर खड़े थे। लेकिन जब उन्होंने जुलूस को देखा तो वे चुपचाप खड़े हो गये, उन्होंने बन्दूकें रख दीं और निगाहें ज़मीन पर टिका लीं।
क्योंकि मज़दूर शान्त थे। सुनायी पड़ती थीं तो सिर्फ उनकी साँसें और चलते हुए क़दमों की आवाज़। एक भी शब्द नहीं सुनायी देता था। कोई बोल नहीं रहा था। न मर्द, न औरतें, बच्चे तक नहीं। सड़क के किनारे खड़े लोग भी ख़ामोश थे।
और अभी भी मज़दूर आते ही जा रहे थे। आल्टगेल्ड एक घण्टे तक खड़ा रहा, पर वे आते ही रहे। कन्धे से कन्धा मिलाये, चेहरे पत्थर जैसे, आँखों से धीरे-धीरे आँसू बह रहे थे जिन्हें कोई पोंछ नहीं रहा था। एक और घण्टा बीता, फिर भी उनका अन्त नहीं था। कितने हज़ार जा चुके थे, कितने हज़ार और आने बाकी थे, वह अन्दाज़ा नहीं लगा सकता था। पर एक चीज़ वह जानता था, इस देश के इतिहास में ऐसी कोई अन्त्येष्टि पहले कभी नहीं हुई थी, सबसे ज़्यादा प्यारा नेता अब्राहम लिंकन जब मरा था, तब भी नहीं।
(मई दिवस के शहीदों की यह कहानी हावर्ड फास्ट के मशहूर उपन्यास ‘दि अमेरिकन’ का एक हिस्सा है। शिकागो पुलिस के मुताबिक शहीद मज़दूर नेताओं के मातमी जुलूस में 6 लाख से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे।)