ऊहापोह की स्थिति

जो कुछ हो रहा था, उसका साथ देना मेरे लिए असंभव था। कैसे कोई कह दे कि भारत का भविष्य एक व्यक्ति पर निर्भर है। इतनी चाटुकारिता, इतनी दासता अपने से संभव नहीं। मेरी आजादी नहीं रही। न लोगों से मिलने की, न उन्हें सुनाने की और न उनकी सुनने की।

26 जून, 1975

प्रात: 3.30 बजे टेलिफोन की घंटी बजी। खबर लगी कि जेपी को गिरफ्तार करने पुलिस पहुंच गई है। सोये से उठते ही यह खबर विचित्र लगी। ऊहापोह की स्थिति। ऐसा लगा कि एक भंवर में फंस गए हैं। कहां जाना है, किधर किनारा है, कुछ पता नहीं। त्यागी जी से कहा। फिर न जाने तुरंत ख्याल आया कि कहीं हमारे यहां भी पहरा नहीं हो। त्यागी जी से बाहर देखने को कहा, पर कुछ भी नहीं था। दयानंद और त्यागी जी के साथ जेपी के यहां गया। वे पुलिस की गाड़ी में बैठ गए थे। उनके साथ ही पीछे-पीछे टैक्सी से पार्लियामेंट थाने गया। एक ही बात मन में उठती रही, क्या हो रहा है? क्या करूं? कुछ राह नजर नहीं आती। थाने में एक उच्च पुलिस अधिकारी ने जब मेरे वारंट की बात की, तो बड़ा अच्छा लगा। एक संतोष हुआ। शांति मिली। शायद इस कारण कि दुविधा में पड़ा था। ऐसे अवसर पर सदा ही परिस्थितियां मुझे एक पथ पर डाल देती हैं।

आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। जो कुछ हो रहा था, उसका साथ देना मेरे लिए असंभव था। कैसे कोई कह दे कि भारत का भविष्य एक व्यक्ति पर निर्भर है। इतनी चाटुकारिता, इतनी दासता अपने से संभव नहीं। अच्छा ही हुआ। थोड़ी देर बाद एक अवसाद-सा छा गया। मेरी आजादी नहीं रही। न लोगों से मिलने की, न उन्हें सुनाने की और न उनकी सुनने की। यह विवशता खल गई। एक बेचैनी हुई। ऐसा लगा, जैसे कुछ लोग अनिश्चित समय के लिए बिछुड़ रहे हैं। फिर अपने को संभाला। दो-एक लोगों से बातें कीं, सूचना देने के लिए। पर सच तो है कि कदाचित् उनकी सुनना चाहता था। यह है मानव की अपनी निर्बलता। पर अच्छा लगा, इससे सांत्वना मिली। पता नहीं, उनको कैसा लगा? बड़ी देर तक सोचता रहा।

कहीं अपने संतोष के लिए उनके मन को चोट तो नहीं पहुंचा दी, पर करता भी क्या? त्यागी जी और कृपा को देखकर दु:ख हुआ। ये अपने को नहीं संभाल सके। मैं कहता था, पर उन्हें यह विश्वास ही नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है। सारे दिन उनका चेहरा याद आता रहा। सिविल लाइन थाने में एक-एक करके लोग आते गए। राजनारायण, पीलू मोदी, बीजू, रामधन, समर, जयपाल जी बक्शी, भाई महावीर और मलकानी जी। एक अच्छी जमात बन गई। रोहतक जेल में पहुंचे। फिर स्थानीय लोग भी आए। एक अच्छा जमघट। फिर अटकलबाजियां शुरू हुईं। तरह-तरह के अनुमान। कभी ऊंचे अरमान और कभी पस्त हिम्मत देखकर हैरानी होती है। क्यों नहीं जनता पर विश्वास होता? एक व्यक्ति की शक्ति सीमित है और क्षणिक भी।

(चंद्रशेखर की पुस्तक ‘मेरी जेल डायरी’ का संपादित अंश)

 

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