मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भारत के जन-जन के मन में बसे हुए हैं। उनका पतित पावन नाम जन्म से मृत्यु तक हर सनातनधर्मी के जीवन से गहरायी से जुड़ा हुआ है। हिमालय से कन्याकुमारी तक ही नहीं, सुदूर पूर्व के अनेक देशों में भी राम का नाम असाधारण श्रद्धा का केंद्र बिंदु है। लोकनायक राम भारतीय समाज में मर्यादा, आदर्श, विनय, विवेक व लोकतांत्रिक मूल्यों का पर्याय माने जाते हैं। राजकुमार राम से मर्यादा पुरुषोत्तम लोकनायक बनकर उभरने की यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उनका वनवास काल माना जाता है। 14 वर्ष के वनवास काल में श्रीराम के जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटा जिसने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया और वे अयोध्या के राजकुमार राम से लोकनायक राम में रूपांतरित हो गये। इस वन पथ में श्रीराम ने उत्तर से दक्षिण तक संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधा। इस वन पथ में वे अपने चरित्र द्वारा एक अनोखे सेतु का निर्माण कर सारे समाज को जोड़ते दिखायी देते हैं। इसीलिए भारतीय संतों व चिंतकों का विश्वास है कि जब सारे सेतु ( उपाय) टूट जायेंगे तो भी राम का सेतु सारे समाज को मिलाने के लिए सदा सर्वदा प्रस्तुत रहेगा।
भगवान राम के जीवन का बारीकी से अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि उनको दैवीय शक्ति प्राप्ति थी। वह चाहते तो एक इशारे में कुछ भी कर सकते थे। लेकिन नहीं; उन्होंने हर काम एक आम व्यक्ति की भांति किया जिससे लोग उनसे सीख ले सकें। तत्कालीन समाज वर्णभेद का अभिशाप भोग रहा था। छोटी जाति वालों के साथ बड़ी जाति वालों के दुराभाव के कारण समाज के लोगों के आचरण में प्रेम, सेवा व सहयोग का अभाव था किंतु गंगापार कर वनपथ पर बढ़ते समय वे निषादराज को हृदय से लगा लेते हैं। मकसद था सामाजिक समानता का लोकशिक्षण।14 वर्ष के वनवास में उन्होंने अनेक ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और अन्यायकारी ताकतों का दमन कर ऋषि मुनियों और पीड़ित वनवासियों को भयमुक्त किया। सच्चे लोकनायक के रूप में वन प्रांत के कमजोर, गरीब और सर्वहारा वर्ग को संगठित कर उस युग की बड़ी बड़ी आततायी ताकतों को छिन्न-भिन्न कर समाज के समक्ष एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
उनके वनपथ में पग-पग पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और अद्भुत लोक व्यवहार के दर्शन होते हैं। उनका पवित्र चरित्र लोकतंत्र का प्रहरी, उत्प्रेरक और निर्माता प्रतीत होता है। अपने सुदीर्ध वन प्रवास में वे तपस्वी ऋषि-मुनि हों या सामान्य वनवासी, नर हों या वानर; सभी से करीबी रिश्ता जोड़ लेते हैं। अपार शक्ति के बावजूद राम संयमित हैं। सारा पराक्रम स्वयं का है लेकिन सारा श्रेय वे वन के महान ऋषियों के आशीर्वाद, भक्त शिरोमणि हनुमान, मित्र वानरराज सुग्रीव व उनकी वानर सेना, शरणागत विभीषण व अनुज लक्ष्मण को देते हैं। क्षमाशील इतने हैं कि राक्षसों को भी सहज ही मुक्ति दे देते हैं। वे राज परिवार से थे। चाहते तो केवट, निषादराज या शबरी को बिना गले लगाए भी अपना वनवास गुजार सकते थे। लेकिन उन्होंने उनको गले लगाकर लोगों में समानता का विश्वास जगाया।
यूं तो गुरु रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन को रूपायित करने वाली विभूतियों में ऋषि वशिष्ठ व विश्वामित्र का नाम प्रमुखता से लिया जाता है किन्तु वनवास के दौरान उनकी भेंट भारद्वाज, अत्रि व अगत्स्य जैसे अनेक महातपस्वी ऋषियों से हुई जिनके परामर्श, आशीर्वाद, व अनुदान-वरदान उनके वन पथ की यात्रा में बेहद उपयोगी साबित हुए। ‘मानस’ और वाल्मिकी रामायण में उल्लेख है कि श्रीराम का चौदह वर्ष के वनवास का पहला ठहराव प्रयागराज स्थित भारद्वाज आश्रम था। एक रात इस आश्रम में गुजारने के पश्चात महर्षि भरद्वाज जी से आशीर्वाद प्राप्त कर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को गंगा-यमुना-सरस्वती की त्रिवेणी में स्नान कर चित्रकूट के लिये प्रस्थान किया था। मान्यता है कि प्रयागराज को महर्षि भरद्वाज ने ही बसाया था, इसीलिए उन्हें प्रयागराज का प्रथम वासी माना जाता है। वे तपस्वी होने के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान, वेद पुराण, आयुर्वेद, धनुर्वेद और विमान विज्ञान के भी गहरे जानकार थे। उन्होंने प्रयाग में पृथ्वी के सबसे बड़े गुरूकुल (विश्वविद्यालय) की स्थापना की थी और हजारों वर्षों तक विद्यादान दिया था। चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) के तपोवन में अत्रि ऋषि का आश्रम था। ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूइया दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। सीता जी को पतिव्रत धर्म की शक्ति का बोध महासती अनुसूइया से ही हुआ था। अपने तपबल से त्रिदेवों को बालक बना देने वाली सती अनुसूइया को उनके वरदान से महायोगी ‘दत्तात्रेय’ महामुनि ‘दुर्वासा’ पुत्ररूप प्राप्त हुए थे। कहा जाता है कि चित्रकूट में ‘मंदाकिनी’ का अवतरण देवी अनुसूइया के ही आह्वान पर हुआ था। अत्रि ऋषि के कहने पर श्री राम ने उस क्षेत्र के राक्षसों का अंत कर तपस्वियों व वनवासियों को भयमुक्त कर अपने वनवास के 11 साल उसी चित्रकूट में ही बिताये थे। तत्पश्चात सुतीक्षण मुनि के कहने पर वे महामुनि अगस्त्य का आशीर्वाद लेने उनके आश्रम नासिक पहुंचे।
वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि महर्षि अगस्त्य उस युग के जाते थे जिन्होंने सबसे पहले विन्ध्याचल को पारकर दक्षिण दिशा का द्वार ऋषियों के लिए खोला था। उनकी महान तप साधना के कारण राक्षसी ताकतें उनके आश्रम के निकट आने से भी थर्राती थीं। महर्षि अगस्त्य ने अपने आश्रम में राम का अभिनन्दन किया और निकट भविष्य में उनके लंकापति रावण से होने वाले धर्मयुद्ध के लिए अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्र, अमोघ कवच और रामसेतु निर्माण हेतु जल विखंडन की विधि उनको प्रदान की थी। ‘कम्ब रामायण’ में कहा गया है कि राम- रावण के युद्ध के पहले ऋषि अगत्स्य ने श्री राम के पास आकर उनको उन्हें भगवान सूर्य की उपासना का ‘आदित्य ह्रदय स्तोत्र’ मंत्र दिया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम रावण के युद्ध में जब रावण का वध नहीं हो पा रहा था तो इंद्र का सारथी माताली श्री राम को उस बाण की याद दिलाता है जिसे अगत्स्य ऋषि ने श्री राम को दिया था। उसी बाण का संधान कर श्री राम रावण का संहार करते हैं।
रामायण के मुताबिक ऋषि अगस्त्य ने ही राक्षसों के सफाये के मकसद से राम को दंडकारण्य जाने की सलाह दी थी। आज भी यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार मिलती है। वर्तमान में यह क्षेत्र दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है तथा नक्सलवाद की चपेट में है। इसी दंडकारण्य का एक हिस्सा है आंध्रप्रदेश का भद्राचलम शहर। गोदावरी नदी के तट पर भद्रगिरि पर्वत के ऊपर बसा यह शहर अपने भव्य सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए देश-दुनिया में प्रसिद्ध है। श्रीराम ने अपने वनवास के कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत भी पर ही बिताए थे। इसी के निकट पंचवटी नामक स्थान से सीता जी के अपहरण के बाद दंडकारण्य में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ। इसीलिए दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है। कहते हैं कि सीता की खोज में निकले श्री राम जब मार्ग में कबन्ध का वध करते हैं तो कबन्ध उन्हें मतंग ऋषि के आश्रम जाने की सलाह देता है जहां वे जाति से भीलनी तपस्वनी माता शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं। वर्तमान में माता शबरी का यह आश्रम केरल में स्थित है तथा केरल का प्रसिद्ध ‘सबरीमला मंदिर’ इसी के निकट स्थित है। माता शबरी के कहने पर श्री राम ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचते हैं जहां उनकी भेंट हनुमान और सुग्रीव से होती है जिनकी सहायता से उनका लंका विजय व रावण वध के उपरांत सीता माता के साथ अयोध्या वापसी के साथ वनवास पूर्ण होता है। सार रूप में कहें तो श्रीराम कावनपथ के सच्चे लोकनायक का पथ है। वन के प्रत्येक प्राणी की मुश्किल उनकी अपनी मुश्किल है। जब राम अयोध्या से चले तो साथ में केवल सीता और लक्ष्मण थे। पर जब लौटे तो पूरी सेना के साथ; एक साम्राज्य को नष्ट कर और एक साम्राज्य का निर्माण करके।
राम नाम का चमत्कार !
समय के प्रवाह में हमारे देश ने अनेक झंझावात झेले, विपदाएं सहीं, भाषा पंरपरा और यहां तक कि अपनी भूमि भी खोयी लेकिन एक नाम जो सनातन भारतीयों के मन से कभी विस्मृत नहीं हुआ; वह है- राम। इसीलिए तो भारतीय मनीषा ने ‘राम’ को इस राष्ट्र का प्राण तत्व माना है। राम नाम को तारक मंत्र कहा है। इसीलिए जीवन की अंतिम यात्रा के समय भी ‘राम नाम सत्य है’ का उदघोष किया जाता है। इसी तरह सनातनधर्मियों के बीच अभिवादन व प्रणाम के हर रूप में ‘राम-राम’ का प्रचलन यूं ही नहीं है। इसके पीछे हमारे ऋषियों का गूढ़ ज्ञान विज्ञान निहित है। राम अर्थात र+अ+म। हिंदी वर्णमाला में र अक्षर 27 नंबर, आ अक्षर 2 नंबर और म अक्षर 25 नंबर पर आता है। इन तीनों अक्षरों का योग 54 है और दो बार राम कहने से ये योग 108 हो जाता है। इस तरह कोई व्यक्ति राम-राम कहता है तो वह बिना किसी यत्न के राम नाम का एक माला जाप कर लेता है। इससे व्यक्ति के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होगा राम वन पथ
जानना दिलचस्प हो कि जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की गयी है। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है। श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के पास स्थित रावण गुफा व झरना, अशोक वाटिका तथा खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि हुई है।
हर्ष का विषय है कि भारत सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर राम वन पथ के जुड़े 21 स्थलों की पहचान कर इनमें से भारतीय क्षेत्र के 20 स्थलों राम वनगमन मार्ग को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना बनायी है। इन चिह्नित स्थलों में उत्तर प्रदेश के पांच (अयोध्या के निकट तमसा तट, प्रयाग के पास सिंगरौर -श्रृंगवेरपुर, संगम तट, गंगा पार कुरई व यमुना पार चित्रकूट), मध्य प्रदेश के तीन (चित्रकूट, सतना व शहडोल -अमरकंटक), छत्तीसगढ़ के दो (सीतामढ़ी हरचौका व चंदखुरी), महराष्ट्र के तीन (पंचवटी, नासिक व मृगव्याधेश्वरम), आंध्र प्रदेश के दो (भद्राचलम व खम्माम), केरल का एक( शबरी आश्रम), कर्नाटक का एक (ऋष्यमूक पर्वत), तमिलनाडु के दो (कोडीकरई व रामेश्वरम) और श्रीलंका का एक स्थल (नुवारा एलिया की पहाड़ियां) शामिल है।