शहादत दिवस पर विशेष

   कैसा विक्षोभ, वितृष्णा, विरूप, विकृति, विषाद की अनुभूति होती है आज (23 मार्च 2023) ! शहीदे आजम का बलिदान दिवस है। समाजवाद के सूरज लोहिया की जयंती है। मगर अतीव ग्लानि होती है यह बोध होने पर कि बमुश्किल शून्य दशमलव एक प्रतिशत (केवल तीस हजार) भारतीय ही ब्रिटिश साम्राज्य से लड़े थे। तब (1930 में) भारत की आबादी तीस करोड़ थी। भूभाग विशाल था। तालुकेदार, जमींदार, राजे-रजवाड़े गोरे मालिकों के लिए शोषित किसानों से लगान वसूलते रहे। बाढ़ हो या सूखा। वे लोग आभूषित होते थे राय बहादुर, खान बहादुर, “सर”, लार्ड आदि की फर्जी, ढोंगी उपाधियों से। संत तुलसीदास ने पांच सदी पूर्व ही ऐसी दास प्रजा के बारे में लिखा था : “को नृप हो हमें का हानि ?” गजनी, गोरी, बाबर जैसे बटमार ही का राज क्यों ना हो।
     मगर यह सवाल पिछली पीढ़ियों से सदा पूछा जाता रहेगा कि अगर विदेशी शासकों का सक्रिय विरोध संभव नहीं था अथवा खौफनाक था, तो उससे सहयोग तो कदापि नहीं करना चाहिए था। यही प्रश्न उठा था न्यायमूर्ति शाह आयोग के समक्ष 1977 में कि इंदिरा गांधी की हिंसक तानाशाही की आलोचना या भर्त्सना खुलकर क्यों नहीं कर सके ? बजाय झुकने के तानाशाह के सामने रेंगने क्यों लगे थे ? इन पहलुओं पर सदा विचार और मंथन होते रहना जरूरी है, क्योंकि स्वतंत्रता की रक्षा में सतर्कता शाश्वत होनी चाहिए। ताकि ऐसा खतरा फिर न उभरे। 
     आज जब भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को लुके छिपे, गोपनीय रीति से चुपके से लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ाने की घटना याद करते हैं तो हर भारतीय को शर्म, लाज, अवसाद, शोक भी होना चाहिए। सौ साल पुरानी आज की खबर को चेन्नई दैनिक “दि हिन्दू” आज भी प्रकाशित की है। इसकी पुरानी फाइलों से उद्धृत खबर कृपया नीचे फोटो में देखें।
     इसमे वर्णित है कि जलियांवाला बाग के इस हत्यारे सर माइकेल ओ डायर के नाम पर तब एक संस्थान की स्थापना की गई थी। इसका आयोजन किया था ब्रिटिश फौज के पंजाबी ठेकेदार सैय्यद वजीर अली ने। गवर्नर माइकेल ओ डायर के नामवाले इस समारोह का उद्घाटन तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड डग्लस मैकलागन ने किया था। उस दौर में सैय्यद वजीर अली नामक इस व्यापारी ने अंग्रेज सेना को रसद आदि की आपूर्ति का ठेका लिया था। आज उन्हीं के नाम पर (वजीर अली उद्योग समूह) एक विशाल व्यापारी साम्राज्य इस्लामी पाकिस्तान में फलफूल रहा है। तो यह मुस्लिम ठेकेदार वजीर अली हत्यारे गवर्नर माइकल ओ डायर के सेवक, गुलाम, झंडाबरदार रहे। उसी वक्त आम मुसलमान अली बंधुओं के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में संघर्ष कर रहा था। ये वजीर अली बाद में मोहम्मद अली जिन्ना के संपर्क में आए। विभाजित पंजाब में भी पलते रहे, ब्रिटिश-गुलाम पंजाब में तो थे ही।
     अतः आजाद भारत में आजादी के अमृत काल में नई पीढ़ी के युवजन तो यह सवाल पूछेंगे ही कि सम्पूर्ण भारत क्यों ब्रिटिश राज के विरुद्ध नहीं संघर्षरत था ? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसके पुरोधाओं ने आजाद भारत में (15 अगस्त 1947 के बाद) तीन दशक राजयोग भोगा, उनसे यह सवाल है। मसलन आजादी मिलने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू क्यों अंग्रेजी शोषकों (माउंटबैटन कुटुंब) के भले बने रहे ? क्यों उनके चचाजान, भाई, भतीजे और अन्य नेहरू कुलनामधारी (बीके, आरके आदि) आई. सी. एस. में भर्ती होकर गोरों की गुलामी बजाते रहे ? तभी बापू का नारा था : अंग्रेजी राज को “न एक भाई, ना एक पाई” देना है। अर्थात संपूर्ण असहयोग।
     इसीलिए आज शहीद दिवस मनाने वाले और विशेषकर गोवा मुक्ति संग्राम के प्रथम प्रेणता लोहिया के लोग एक वाजिब मुद्दा उठाते हैं कि जिन लोगों ने अपने ही लोगों पर लाठी भांजी थी, गोली चलाई थी, उन्हें नेहरू काल में प्रश्रय क्यों मिला ? कृपापात्र कैसे बने रहे ? आत्मावलोकन करना होगा। साथ में प्रायश्चित भी। यहां सरदार उधम सिंह का उल्लेख अनिवार्य हो। यह क्रांतिवीर दशकों तक इंग्लैंड में छिपा रहा। मौका मिला तो कैक्स्टन हाल (लंदन) में इसी राक्षस माइकेल डायर को गोलियों से भून दिया था। फांसी पर हंसता हुआ चढ़ा था।
     यहां एक निजी प्रसंग भी जोड़ दूं ताकि मेरी आत्मा संतुष्ट हो सके। तेलुगुभाषी समाज में नियोगी ब्राह्मण बड़ी सीमित संख्या में हैं। अतः सजातीय वर-वधू मिलना बहुत दुश्वार होता है। तब मेरा पाणिग्रहण संस्कार होना था। एक शिक्षिता संपन्न युवती जो नियोगी अर्थात सजातीय हमवतनी थी से बात चली। मैंने स्वीकार नहीं किया। आत्मा ने गवाही नहीं दी। उसके पिता (मेरे प्रस्तावित ससुर) आई. सी. एस. के आला अफसर थे। शादी से मेरे इंकार करने से मेरे परिवारजन बड़े रुष्ट हुए। उनका तर्क था कि हम एक मध्यमवर्गीय, साधारण पृष्ठभूमि के लोग हैं। एक ऊंचे, अमीर खानदान की सजातीय वधू मिल रही है। मेरा जवाब बहुत सीधा और भावनात्मक था। क्योंकि मैं सेवाग्राम (बापू के दौर) में रहा था। गांधी जी के पैर छू चुका था। जब मेरे पिता ब्रिटिश राज में लखनऊ जेल में यातना भुगत रहे थे तो इस युवती के आईसीएस पिता कहीं कलक्टर होकर गांधीवादी सत्याग्राहियों पर लाठी भांज रहे होंगे, गोली चलवा रहे होंगे। भावनात्मक और वैचारिक विषमता के कारण हमारा वैवाहिक जीवन नरक हो जाएगा। फिर मैंने एक साधारण परिवार के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सीजी विश्वनाथन की कनिष्ठ पुत्री डॉ सुधा (रेल विभाग की चिकित्सका) से शादी की। वे लोग कुलपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के संबंधी रहे।
     आज मेरा सर ऊंचा है फख्र से। कारण यही कि जब 1942 का गांधीवादी स्वाधीनता आंदोलन चला तो मेरे पिता अगली पंक्ति में रहे। फिर जब तानाशाही के खिलाफ भारतीय जनता ने 1975-77 में दूसरी जंगे आजादी लड़ी तो मैं स्वयं पांच जेलों में यातना भुगतता रहा। मेरे बच्चे शान से कह तो सकते हैं कि उनके दादा पहली आजादी के लिए युद्धरत रहे। फिर तानाशाही आई (1975-77) तो पिता झुके नहीं, रेंगे नहीं। भारत को दोबारा मुक्त कराने के जनसंघर्ष में सैनिक रहे। आजादी का यही मतलब है।
[उपरोक्त लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं]

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