वीर सावरकार को जानें – 1

1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में प्रचंड आघात के फलस्वरूप भारत में कंपनी सरकार के पैर उखड़ गए। 7 नवंबर, 1885 ई. से रानी विक्टोरिया का राज्य इस देश में शुरू हो गया। वैसे तो यह केवल चोला बदलने वाली बात ही थी किंतु 1860 ई. के बाद ब्रिटिश पूंजीवाद ने तेजी से साम्राज्यवादी यानी शोषक का रूप ग्रहण करना आरंभ किया। ब्रिटिश शासक भारतवासियों एवं उनकी परंपराओं को हेय दृष्टि से देखने लगे। वे स्वाभिमान से सिर उठाकर खड़े नहीं हो सके इस हेतु हथियार बंदी का नया कानून बनाकर देशवासियों को निःशस्त्र कर दिया, स्वत्व शून्य व्यक्ति हेतु नई शिक्षा-पद्धति का आरंभ किया, पादरियों एवं कुछेक अंग्रेज अधिकारियों के माध्यम से धर्म एवं संस्कृति पर केवल कुठाराघात करना ही शुरू नहीं किया वरन् यह कहना भी शुरू कर दिया कि वे तब कि सभ्य नहीं कहे जा सकते जब तक वे ईसाई नहीं हो जाते इत्यादि।

19वीं शती के उत्तरार्ध की इन परिस्थितियों ने भारतीय जनमानस की राष्ट्रीय भावनाओं को झकझोर कर रख दिया जिसके कारण बीसवीं शती के प्रथम दशक में ही सुराज्य से स्वराज्य एवं स्वराज्य से पूर्ण स्वतंत्रता के उद्घोषों से सारा भारत आप्लावित हो उठा एवं स्वतंत्रता ‘संग्राम को राष्ट्रीय स्वरूप मिला। ऐसे समय में जिस प्रकार स्वराज्य का उद्घोष करने वाले प्रथम मंत्रद्रष्टा लोकमान्य तिलक हैं, उसी प्रकार स्वातंत्र्य का उद्घोष करने वाले प्रथम मंत्रद्रष्टा हैं-हिंदू हृदय सम्राट स्वातंत्र्य सावरकर, जिन्होंने आगे चलकर स्वतंत्र भारत में ‘राजनीति का हिंदूकरण एवं हिंदुओं का सैनिकीकरण’ का महामंत्र प्रदान किया।

जन्म एवं बाल्यकाल

भारत स्वाधीनता संग्राम के इस जन्मजात योद्धा का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर ग्राम में संवत् 1940 बैशाख कृष्ण 6 तदनुसार 28 मई, 1883 ई. सोमवार को रात्रि में 10 बजे श्री दामोदर सावरकर एवं राधाबाई के घर में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भीषण क्रांति करने वाले वासुदेव बलवंत फड़के, जिनका उसी वर्ष बलिदान हुआ ही था, कि आत्मा ने ही इस बालक के रूप में जन्म लिया था।

विनायक (तात्या) धीरे-धीरे बड़ा होने लगा एवं विद्याध्ययन हेतु 6 वर्ष की अवस्था में उसे गांव के एक विद्यालय में दाखिल करा दिया गया। इधर घर पर माता-पिता उसे बड़े प्यार के रामायण-महाभारत की कथा सुनाते, हिंदू सूर्य महाराणा प्रताप एवं शिवाजी की शौर्य गाथाएं सुनाते तो उसका बाल-मन ‘‘मैं भी ऐसा ही वीर बनूंगा’’ के भाव से मचल उठता एवं घटनाओं का प्रत्यक्ष अनुसरण करने हेतु गांव के सब बालकों को इकट्ठा करके धनुष-बाण एवं तलवार के खेल खेलता, लिखने के कलम को भाला बनाकर परस्पर युद्ध करता था।

बचपन से ही इसके मन में देश-भक्ति का बीज अंकुरित हो चुका था। एक दिन ये किसी बात से अपनी मां से रूठ गए एवं बिना चरण स्पर्श और आज्ञा लिए स्कूल चले गए, परंतु वहां पहुंचते ही इनका अपराधी मन इन्हें कचोटने लगा। उन्होंने स्कूल से तत्काल वापिस आकर मां से क्षमा मांगी, तब ही इन्हें शांति मिली। स्कूल में भी अपनी अनुपम बुद्धि एवं अद्भुत प्रतिभा के कारण विनायक सभी के स्नेह-भाजन एवं नेता भी बन गए।

1892 ई. में जब सावरकर की आयु केवल 9 वर्ष थी, इनकी मां का महामारी से देहांत हो गया। उस समय विनायक आदि 3 भाई एवं 1 बहन थे। बड़े का नाम गणेशराव एवं छोटे का नाम नारायण राव था। मां की आकस्मिक मृत्यु के कारण इन सबके पालन-पोषण का भार इनके पिता के कंधों पर आ पड़ा किन्तु उन्होंने घर के काम-काज का बंटवारा इतनी निपुणता से किया कि बालकों को मां की मृत्यु की कमी अखरी नहीं। पिताजी ने कुलदेवी दुर्गा की पूजा का भार विनायक को सौंपा जिसे वे बड़ी तन्मयता के साथ करते थे एवं इस कार्य का इनके जीवन में प्रेरक महत्व भी रहा है………

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