संविधान सभा का पहला सप्ताह

पहले सप्ताह में तीन खास बातें हुई। 10 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रस्ताव पेश किया कि ‘यह सभा संविधान सभा कार्यालय के वर्तमान स्वरूप को मंजूर करती है।’ यह एक रहस्योद्घाटन था। जो उनके भाषण से प्रकट हुआ। जिसमें उन्होंने सदन को बताया कि संविधान सभा का कार्यालय कई महीनों से काम कर रहा है। सदस्यों ने इस सूचना पर कोई प्रश्न नहीं उठाया। किसी तरह की जिज्ञासा भी प्रकट नहीं की। इसे संविधान सभा की प्रक्रिया का एक महत्वहीन कड़ी माना गया। क्या वास्तव में ऐसा ही है? जवाहरलाल नेहरू ने भी तब पूरी सूचना नहीं दी। सदस्य अगर प्रश्न पूछते तो वे संवभत: उस रहस्य को खोज लेते जो संविधान सभा के कार्यालय गठन में छिपा हुआ था।

लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव में मौलिक अधिकार, संघवाद, गणराज्य आदि तत्व के लक्ष्य थे। वे आजादी के आंदोलन की मूल भावना को प्रकट करते थे। 1946 आते-आते ये विचार कांग्रेस के कार्यक्रम में सम्मिलित हो गए थे। लेकिन उनके प्रस्ताव में समाजवादका उल्लेख भी नहीं था। इसी तरह लोकतंत्र शब्द को भी उन्होंने नहीं रखा था। इससे जो-जो सवाल उठ सकते थे और उठे थे उससे जवाहरलाल नेहरू परिचित थे। इसलिए ही उन्होंने दो सफाई दी।

जवाहरलाल नेहरू ने सिर्फ यह बताया कि संविधान सभा कार्यालय का ‘बहुत कुछ काम तो नैपथ्य में ही हुआ है।’ ऐसा मान सकते हैं कि पर्दे के पीछे की जो भूमिका सर बेनेगल नरसिंह राव निभा रहे थे उससे सदन अवगत नहीं था। संविधान की नींव इसी कार्यालय ने रखी। इसे जवाहरलाल नेहरू ने इस तरह बताया कि ‘संविधान सभा के समवेत होने से पहले जो कुछ हो चुका है उसे इसी कार्यालय ने पूरा किया।’ सच तो यह है कि नवंबर, 1945 से ही ब्रिटिश योजना में बेनेगल नरसिंह राव संविधान संबंधी कार्यों में लग गए थे। जिससे जवाहरलाल नेहरू भलीभांति अवगत थे। संविधान सभा कार्यालय की मंजूरी के प्रस्ताव का एम. आसफ अली ने समर्थन किया। जिनके नाम से पुरानी दिल्ली में इन दिनों आसफ अली रोड है।

नेहरू के प्रस्ताव को सभा ने अपनी मंजूरी दी। जिसकी घोषणा डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने की। अगले दिन डा. राजेंद्र प्रसाद विधिवत और आम सहमति से संविधान सभा के स्थाई अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उनके नाम का प्रस्ताव आचार्य जे.बी. कृपलानी ने किया और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने समर्थन किया था। दूसरा प्रस्ताव हरे कृष्ण मेहताब का था। जिसका समर्थन नंद किशोर दास ने किया था। टी. प्रकाशम और एस. राधाकृष्णन से भी अलग-अलग प्रस्ताव मिले थे। निर्वाचन के उपरांत आचार्य कृपलानी और मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अस्थाई अध्यक्ष के पास डा. राजेंद्र प्रसाद को आसन पर बैठाया। सदस्यों ने खुशी में नारे लगाए। प्रसन्नता और समर्थन का वह जितना इजहार था उससे ज्यादा डा. राजेंद्र प्रसाद में गहरे विश्वास की अभिव्यक्ति थी।

वह बधाई भाषणों में प्रकट हुआ। सबसे पहले डा. एस. राधाकृष्णन बोले। उन्होंने अंग्रेजों के आने का इतिहास बताते हुए जिस परिस्थिति में संविधान सभा शुरू हुई उसका भी उल्लेख किया। उसी क्रम में राष्ट्रीयता की परिभाषा दी। कहा कि ‘राष्ट्रीयता निर्भर करती है उस जीवन पद्धति पर, जिसे हम चिर काल से बरतते चले आ रहे हैं। यह जीवन पद्धति तो इस देश की निजी वस्तु है।’ डा. राधाकृष्णन को यह इसलिए बताना पड़ा क्योंकि मुस्लिम लीग ने भारत की राष्ट्रीयता पर ही सवाल उठा दिया था। उन्होंने आखिर में कहा कि ‘डा. राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष के रूप में पाकर हम ऐसा व्यक्ति पा गए हैं जो सौजन्य की स्वयं प्रतिमा हैं।’ डा एस राधाकृष्णन के लंबे भाषण में बार-बार करतल ध्वनि से सदस्य अपनी खुशी का इजहार कर रहे थे।

एन. गोपाल स्वामी आयंगर का कहना था कि अध्यक्ष के निर्वाचन से संविधान सभा ने अपने कार्य की शुरूआत कर दी है। उन्होंने डा. राजेंद्र प्रसाद को ‘अतुल गुण संपन्न’ व्यक्ति बताया। बधाई भाषण देने वालों में फ्रेंक एंथोनी, सरदार उज्जल सिंह, दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह, डा. जोसेफ आलब्न डी सौजा, बी.आई. मुनि स्वामी पिल्लई, खान अब्दुल गफार खान, सीएम पुनाचा, एच. बी. कामथ, सोमनाथ लाहिरी और सरोजिनी नायडू थीं। हर वक्ता के शब्द भले ही भिन्न थे पर भाव एक था। उसे पढ़कर डा. राजेंद्र प्रसाद के प्रति उनकी आस्था को अनुभव किया जा सकता है। अंत में डा. राजेंद्र प्रसाद ने भरोसा जताया कि उन्हें सबका पूरा सहयोग मिलेगा। उन्होंने उस समय की परिस्थिति को ‘लड़ाई झगड़े के लक्षण’ के रूप में चिहिंत किया।

ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी सफलता का विश्वास प्रकट किया। और कहा कि ‘हमारी सबसे बड़ा आवश्यकता है, स्वतंत्रता।’ संविधान निर्माण की दिशा में पहला कदम 13 दिसंबर, 1946 को तब उठा जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को प्रस्तुत किया। जिसका समर्थन पुरूषोत्तम दास टंडन ने किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्वीकार किया कि ‘यह जो संविधान सभा है, बिल्कुल उस किस्म की नहीं है जैसाकि हम लोग चाहते थे। खास हालात में यह पैदा हुई है। और इसके पैदा होने में अंग्रेजी हुकूमत का हाथ है।’ उनके इस कथन में उस समय का इतिहास छिपा हुआ है। एक दर्द भी है। उनके कथन में अफसोस भी है कि हमें महात्मा गांधी की सलाह मान लेनी चाहिए थी। थोड़ा इंतजार करना चाहिए था। इसे उन्होंने महात्मा गांधी का उल्लेख किए वगैर इस तरह कहा- ‘उनकी आत्मा इस भवन में वर्तमान है। हमें सतत आशीर्वाद दे रही है।’ यह उनकी खास शैली थी।

तब ‘देश के राजनीतिक वातावरण में, जहां एक ओर अभूतपर्व उत्साह, दृढ़ संकल्प और नवनिर्माण की अदम्य आकांक्षाओं से जाग्रत राष्ट्र मानस था। वहीं दूसरी ओर अनिश्चिय, संदेह और असमंजस के बादल भी घिरे हुए थे।’ ऐसे समय में नेहरू ने कहा कि ‘मैं आपके सामने जो प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहा हूं उसमें हमारे उद्देश्यों की व्याख्या की गई है। योजना की रूपरेखा दी गई है। यह बताया गया है कि हम किस रास्ते पर चलने वाले हैं।’ लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव में मौलिक अधिकार, संघवाद, गणराज्य आदि तत्व के लक्ष्य थे। वे आजादी के आंदोलन की मूल भावना को प्रकट करते थे। 1946 आते-आते ये विचार कांग्रेस के कार्यक्रम में सम्मिलित हो गए थे। लेकिन उनके प्रस्ताव में ‘समाजवाद’ का उल्लेख भी नहीं था। इसी तरह लोकतंत्र शब्द को भी उन्होंने नहीं रखा था। इससे जो-जो सवाल उठ सकते थे और उठे थे उससे जवाहरलाल नेहरू परिचित थे। इसलिए ही उन्होंने दो सफाई दी। पहला यह कि वे किसी भी तरह के विवाद से बचना चाहते थे। इस सवाल का जवाब नेहरू के जीवनीकार माइकल ब्रेकर ने भी खोजा है। ‘संभवत: सरदार पटेल ने ऐसा होने नहीं दिया।’ दूसरा यह कि गणतंत्र में लोकतंत्र शामिल है। उस समय की परिस्थिति को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस तरह परिभाषित किया-‘भारतीय इतिहास के अद्भुत अवसर पर हम यहां समवेत हुए हैं। इस परिवर्तन-काल में मुझे कुछ विस्मय सा प्रतीत होता है। वैसा ही विस्मय, जैसा रात से दिन होने में मालूम होता है।

विस्मित पंडित नेहरू बोले कि ‘एक तरह से यह एक इकरारनामा-सा है।’ इकरारनामा उनके साथ वे घोषित कर रहे थे जो संविधान सभा के सदस्य होकर भी एक निर्णय से बाहर थे। वह मुस्लिम लीग थी। स्पष्टतया उनका मन भारत विभाजन की आशंका से ग्रस्त था। जिसे साफ शब्दों में पुरूषोत्तम दास टंडन ने व्यक्त किया कि ‘अब हमें मुस्लीम लीग के साथ समझौते के लिए अपने बुनियादी उसूलों को नहीं भूलना चाहिए।’ लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर सात दिन बहस हुई। उसमें डा. एम.आर. जयकर ने सुझाया और उसे एक संशोधन के रूप में प्रस्तुत किया कि मुस्लिम लीग और रियासतों के प्रतिनिधि संविधान सभा में न आ जाएं तब तक लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर विचार स्थगित रहे। इसे थोड़ी बहस के बाद मान लिया गया। 21 दिसंबर, 1946 को अगले अधिवेशन तक के लिए विचार स्थगित रखा गया। इससे मुस्लिम लीग को एक महीने का समय मिला। संविधान सभा के बहिष्कार का निर्णय उसने नहीं बदला। आखिरकार 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा में सदस्यों ने खड़े होकर लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को स्वीकार किया।

वही प्रस्ताव संविधान की प्रस्तावना का आधार बना। जो संविधान सभा के आखिरी चरण में आकार ले सका। उसकी तारीख है- 17 अक्टूबर, 1949। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने प्रस्तावना को समझाते हुए कहा था कि इसके तीन हिस्से हैं। पहला घोषणात्मक है। दूसरा वर्णनात्मक है। तीसरा लक्ष्यमूलक है। पहले हिस्से का प्रारंभ उन्होंने ’हम भारत के लोग‘ शब्द से करने का प्रस्ताव रखा। महावीर त्यागी ने उन्हें टोका। पूछा-‘लोग कहां से आ गए। इस कार्य में तो संविधान सभा के सदस्य हैं।’ अपनी चुटीली शैली में महावीर त्यागी बड़ी बात कहने के लिए जाने जाते रहे हैं। उस दिन भी उन्होंने एक गंभीर मुद्दा उठा दिया। जिसे डा. भीमराव आंबेडकर ने समझा और जवाब में कहा कि ‘मेरे मित्र त्यागी कह रहे हैं कि संविधान सभा का निर्वाचन एक संकीर्ण मताधिकार के आधार पर हुआ था। यह बिल्कुल सत्य है।’ इसे स्वीकार कर डॉ. अंबेडकर ने कहा कि जो विषय हमारे सामने है उसका इससे कोई संबंध नहीं है।

उन्होंने अमेरिका के संविधान का उदाहरण देकर सदस्यों को निरूत्तर किया। इस तरह अमेरिका के तर्ज पर ही प्रस्तावना की शुरुआत ‘हम भारत के लोग’ से हुई। प्रस्तावना किसी भी संविधान की आत्मा होती है। संविधान का दर्शन उसकी प्रस्तावना में होता है। देश की आस्थाएं, आधारभूत मूल्य और भविष्य की दिशा के संकेत इसमें दिए जाने का चलन तब से है जबसे संविधान बनना शुरू हुआ। कुख्यात आपातकाल में इंदिरा गांधी ने एक विवादास्पद संशोधन संविधान की प्रस्तावना में कराया। उसमें समाजवाद और पंथनिरपेक्षता ये दो शब्द जोड़े गए। जो संविधान के राजनीतिक दुरूपयोग का उदाहरण है। संविधान विशेषज्ञ मानते हैं कि यह संविधान के साथ मौलिक छेड़छाड़ है। संविधान निर्माता नहीं चाहते थे कि संविधान किसी विचारधारा, वाद और आर्थिक सिद्धांत के साथ संलग्न किया जाए। वे संविधान को बहती नदी की तरह बरत रहे थे। जो जहां जैसी जरूरत पड़े वहां अपना मार्ग खुद बना लेती है।

लेकिन जिन दिनों इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की हत्या कर अपनी तानाशाही कायम की थी, उन्हीं दिनों संविधान निर्माताओं के विचार और संवैधानिक दर्शन की उपेक्षा कर उन्होंने अनावश्यक शब्द जुड़वाए। लोकतंत्र की बहाली जनता शासन में हुई तब एक संविधान संशोधन से अनेक विकृतियों को दूर किया गया। परंतु प्रस्तावना में हुई छेड़छाड़ को जनता शासन ने भी ज्यों का त्यों रहने दिया।

 

 

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