ज्ञान और विज्ञान का रिश्ता

बनवारी

अपने यहां वैज्ञानिक रुझान की कमी बताने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है। विज्ञान के इन अंध समर्थकों को लगता है कि जैसे विज्ञान कोई नामी कंपनी का बहुचर्चित कारखाना है जिसमें ज्ञान पैदा होता है। जैसे विज्ञापन पर काफी पैसा खर्च करके रातों-रात चर्चित हो जाने वाली कंपनियों के सामान पर लोग भरोसा गांठ बैठते हैं, वैसे ही पश्चिमी विज्ञान पर बहुत सारे लोग लट्टू हुए बैठे हैं। हर बुराई की जड़ में उन्हें वैज्ञानिक प्रतिभा और समझ की कमी नजर आती है।

पश्चिमी विचारधाराओं के साथ जुझारू तेवर लेकर आये मार्क्सवाद के अनुयाइयों को भी अपनी हर मान्यता सही सिद्ध करने के लिए यही मुहावरा सूझता है कि वे वैज्ञानिक हैं। विज्ञान एक विचित्र किस्म का अंधविश्वास हो गया है। उसकी बुराइयों या कमजोरियों की तरफ लोग आंख उठाकर देखने से डरते हैं। भारत जैसे देश में जहां ज्ञान की खोज किसी भी संप्रदायिक आग्रह से बड़ी रही है यह नई प्रवृत्ति ही है। करीब सौ डेढ़ सौ साल से पढ़े-लिखे लोगों को विज्ञान का भूत लग गया है। वे सहज होकर उसके बारे में सोच विचार नहीं पाते।

ज्ञान और विज्ञान के बीच के रिश्ते की यह उलटी समझ है। विज्ञान के अंध समर्थकों पर कान दिया जाये तो लगेगा कि जैसे इसमें कुछ बेटे और बाप जैसा रिश्ता है। विज्ञान पिता की तरह है और वह ज्ञान को पैदा करता है। पश्चिम की औद्योगिक संस्कृति के कारखाने के रूपक को हमने इस नादानी से दिल में उतार लिया है कि विज्ञान को हम ज्ञान पैदा करने वाले कारखाने के आलावा कुछ देख ही नहीं सकते।

ज्ञान के कई स्रोत और अनेक पद्धतियां हैं। विज्ञान सिर्फ एक पद्धति है। वह दूसरे स्रोतों और पद्धतियों का पूरक है, उनका सिरमौर नहीं है। ज्ञान पाने के सभी स्रोतों और पद्धतियों में काफी हद तक परस्पर निर्भरता रहती है। एक क्षेत्र का अनुभव दूसरे के काम आता है। लेकिन अगर हम उनमें से किसी एक को वरीयता दें और बाकी सबको उसके पीछे हाथ बांधे चलने के लिए कहें तो हमारा ज्ञान का पूरा ढांचा ही बिगड़ जायेगा।

विज्ञान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह हमें किसी तथ्य के कारणों की जानकारी देता है। बहुत सी बातें हम जानते हैं लेकिन अक्सर उनके सही और सभी कारणों को नहीं बता पाते। एक मूर्ति बना सकता है मगर वह इतनी अच्छी क्यों लग रही है इसका उससे कारण जाने की कोशिश करें तो हो सकता है वह चुप रह जाये। इसका  मतलब यह नहीं है कि वह अच्छी मूर्ति क्या होती है इसे जानता नहीं। मगर बताने के लिए जिस तरह की विश्लेषणात्मक बुद्धि  चाहिए उसे विकसित करने की उसने कभी कोशिश नहीं की होगी। उसकी जगह एक वास्तुशिल्पविद आपको बता देगा कि मूर्ति इतनी सुंदर क्यों है। मगर हो सकता है सुंदर मूर्ति बनाने की प्रतिभा से वह संपन्न न हो। वास्तुशिल्पविद दरअसल शास्त्रकार है। वह शास्त्र जानता है या शास्त्र बना सकता है। लंबी पराधीनताके कारण औसत भारतीयों में शास्त्र प्रतिभा शायद घटी है मगर उनके ज्ञान का स्तर नहीं घटा।

कार्य और कारण का संबध जोड़ने वाली इस प्रतिभा को जिसे आज हम विज्ञान के नाम से कहकर पुकारने लगे हैं। पहले शास्त्र के नाम से पुकारा करते थे। मलयाली भाषा में आज भी विज्ञान के लिए यही शब्द प्रचलित है। विज्ञान का आंदोलन चलाने वाली केरल की संस्था शास्त्र-परिषद् के बारे में आप में से बहुत से लोगों ने सुना होगा यह शास्त्रीय प्रतिभा हम जो जानते हैं उसका विश्लेषण करके हमें बता सकती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस प्रतिभा के बिना जानना संभव ही न हो। जानना एक रचनात्मक प्रक्रिया है जिसमें सिर्फ हमारी बुद्धि ही भूमिका नहीं निभाती। सद्-असद् की समझ, मनोवैज्ञानिक क्षमताओं और हस्तकौशल के रूप में जानने की इस प्रक्रिया में व्यक्ति का संपूर्ण अस्तित्व ही भाग लेता है।

सबसे अच्छी स्थिति वही है जिसमें जानना और उसका शास्त्र दोनों हाथ में हाथ मिलाये आगे बढ़ते रह सकें। शास्त्र के जरिये ज्ञान के तेज विकास और उसे लंबे संरक्षण में मदद मिलती है। भारत में पुराने जमाने से लेकर इस सदी तक शास्त्रीय प्रतिभा काफी फलती-फूलती रही। काव्य-शास्त्र, आयुर्वेद, खगोल-विद्या और राजनय आदि में जो विस्तृत सिद्धांत दो ढाई हजार वर्ष पहले प्रतिपादित किये गये थे उनका आज भी सानी नहीं है।

भारतीय लोग सिद्धांत के मामले में एक तरफ से बहुत ऊंचे दर्जे के विशेषीकरण की तरफ गये दूसरी तरफ उनमें संपूर्ण शास्त्र रच देने का मोह रहा और किसी भी क्षेत्र में सोच का जितना विस्तार हो सकता है वह सब उन्होंने करके दिखाने की कोशिश की। इसके बावजूद जानने के लिए वे शास्त्र को एकमात्र साधन बताने की गलती नहीं करते थे। अपने ऊंचेदरजे के सैद्धांतिक विश्लेषण के बाद भी चरक अपनी विख्यात चरक-संहिता में बार-बार यही कहते हुए मिलेगे कि ये सिद्धांत तो चिकित्सक को सिर्फ मदद पहुंचाने के लिए हैं। निदान उसे अपने अनुभव और प्रतिभा से ही करना है। अगर कोई चिकित्सक सिर्फ किताबी आधार पर निदान कर देता है तो वह अनाड़ी ही कहा जायेगा।

भारतीय ज्ञान की परंपरा की यह खास खूबी रही है कि उसमें अनुगमात्मक पद्धति पर जितना जोर दिया गया है उतना निगमात्मक पद्धति पर नहीं। दोनों पद्धतियां जैसे हमारे यहां खूब जानी हुई थीं। वैसे ही पश्चिम में। मगर बिल्कुल शुरू से ही भारतीय लोग निगमात्मक पद्धतियां इस्तेमाल करते हुए भी ज्यादा जोर अनुगमात्मक पद्धति पर देते हैं, वहीं पश्चिमी दुनिया के लोग अनुगमात्मक पद्धति इस्तेमाल जरूर करते हैं मगर उनका ज्यादा जोर निगमात्मक पद्धति पर रहा है। वे आदमी को अपनी प्रतिभा और अपने अनुभव के भरोसे छोड़ने में यकीन नहीं करते। उनके यहां सिद्धांत ज्यादा बड़ी चीज है और हमारे यहां सिद्धि ज्यादा बड़ी चीज है।

यह फर्क दोनों की वैज्ञानिक समझ की जड़ों में पड़ा हुआ दिखाई देता है। आधुनिक विज्ञान के पितामह कहे जाने वाले बेकन का सारा जोर इस बात पर था कि आदमी से निरपेक्ष कोई पुख्ता पद्धतियां और तंत्र खड़ा किया जाना चाहिए। क्योकि आदमी तो गलती कर सकता है। आधुनिक विज्ञान इस मूलभूत उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा और जब यूरोप को दुनिया भर से लूटपाट करके इतने साधन मिल गये कि फिजूल खर्च मशीनें बनाई जा सकें तो उसने ऐसी मशीनें बनाने में अपना सारा ध्यान लगा दिया जो हर रचनात्मक काम से आदमी को खदेड़ सकती हैं।

स्वचालित मशीनों के दौर की नयी कड़ी इस दिशा में एक कदम और आगे थी। अब इलैक्ट्रानिक्स प्रौद्योगिकी और जैविक इंजीनियरी को लेकर जो तमाम प्रयोग किये जा रहे हैं वे इसी दिशा में हैं पश्चिमी विज्ञान में न केवल मानव विरोध है बल्कि प्रकृति विरोध  भी है। पश्चिमी विज्ञान की शिक्षा देने वाली स्कूली किताबों में आज भी यह पढ़ाया जाता है कि इसका उद्देश्य प्रकृति पर आदमी की विजय रहा है।

इस ब्रम्हांड के रहस्य जानने के लिए पश्चिमी विज्ञान को जरूरी बताने वाले बहुत से लोग मिल जाएंगे। वे बिना यह जाने हुए तर्क-वितर्क करते रहेंगे कि हम ब्रम्हाड की बुनियादी विशेषताओं और नियमो को जानने समझने में हमने पहले के मुकाबले मामूली ही तरक्की की है। ब्रम्हांड को जानने के नाम पर महाशक्तियों ने जो तामझाम खड़ा किा है और खगोल विद्या के क्षेत्र में जो शोध हो रहा है उसका ज्यादा बड़ा उद्देश्य अंतरिक्ष युद्ध की बेहतर कुशलता हासिल करना है। चांद पर भेजे गये राकेट ने हमको चंद्रमा के बारे में कम ही जानकारी दी है लेकिन मिसाइल युद्ध की कुशलता और संभावनाएं खूब बढ़ा दी हैं। विज्ञान की विभिन्न दिशाओं में आज तो शोध चल रहा है उसका उद्देश्य सत्य की खोज से ज्यादा युद्ध की शक्ति और औपनिवेशीकरण की क्षमता को बढ़ाना है।

पश्चिमी देशों के विश्ववि़द्यालयों और प्रयोगशालाओं में किस तरह के शोध पर कितना पैसा खर्च किया जा रहा है इसकी जांच-पड़ताल करवाने की समझ किसी भी गैर पश्चिमी देश में नहीं दिखाई गई। मान लिया गया कि जो कुछ हो रहा है अंधेरे को चीरकर ज्ञान का प्रकाश चारों तरफ फैला देने के लिए ही हो रहा है। हर जमाने में एक सभ्यता ने आक्रमक होने की कोशिश की है और दूूसरी सभ्यताएं उसकी पैनी खोज खबर लेकर उसे देर-सबेर हैसियत दिखाती रही हैं। इसे अज्ञान नहीं तो और क्या कहा जायेगा कि आज पश्चिमी सभ्यता में दुनिया पर छाये रहने का इरादा सबसे आक्रामक रूपों में प्रकट हो रहा है। मगर इसके बावजूद उसके इरादों औ ज्ञान विज्ञान की दिशा की जांच पड़ताल नहीं की जा रही है।

भारतीय लोगों ने जानने की प्रक्रिया को न मनुष्य से निरपेक्ष बनाने की कोशिश की और न प्रकृति से इसलिए हमारे यहां ज्ञान और शास्त्र का रिश्ता स्वस्थ शक्ल लिए रहा। हमारे यहां ध्यान दिया गया लेकिन इन सबको अपनी नियति पर हावी नहीं होने दिया गया। कुतुब के पास रखी लाट बनाने वाले लोग, ढाका की मलमल बनाने वाले लोग, सर्जरी करने वाले तकनीकी के मामले में पिछड़े या अनभिज्ञ नहीं हो सकते थे। सिर्फ इतना ही है कि हमारे यहां लोग अपनी जरूरतों को खुद आंकते थे और जीवनशैली या उत्पादन तंत्र व्यावहारिक जरूरतों के आधार पर खड़ा करते थे।

अपनी बुनियादी वैज्ञानिक समझ का इस्तेमाल करके हम आज भी प्रौद्योगिकीय क्षमताएं विकसित कर सकते हैं। ऐसी प्रौद्योगिकीय क्षमताएं जो हमारी जरूरत की किसी भी चीज को पैदा कर सकें। ब्रम्हांड की बेहतर जानकारी के लिए और उसकी शक्तियों के बेहतर इस्तेमाल के लिए दूसरे बहुत से अनखोजे रास्ते और तरीके हैं। जानने को अभी जितना अधिक है जानने के लिए तरीके भी उतनी ही संख्या में मौजूद है।। सवाल सिर्फ यही है कि आप जानने की प्रक्रिया को कैसा स्वरूप देना चाहते हैं। वैसा जैसा पश्चिमी देशों ने दे रखा है या वैसा जैसा हमें अपनी परंपरागत वैज्ञानिक दृष्टि के आधार पर देना चाहिए था।

अंधविश्वासों को लेकर फालतू हल्ला मचाने की जरूरत नहीं है। जो लोग पश्चिमी विज्ञान में पले-पुसे देशों को अंधविश्वास से मुक्त बताते रहते हैं उन्होंने यूरोप या अमेरिकी दुनिया को आंख खोलकर देखा नहीं है। इन देशों क अंधविश्वास का हाल यह है कि बड़े से बड़े होटलों में आपको तेरह नंबर का कमरा नहीं मिलेगा क्योंकि कहीं यह आशंका मन में बैठ गई है कि वह अशुभ होता है। अज्ञात शक्तियों से डर को लेकर औसत यूरोपीय जितना परेशान रहता है उतना धुर देहात में रहने वाला हिंदुस्तानी नहीं रहता। हमारे यहां तो ईश्वर को लेकर कभी इतनी अंध मान्यताएं नहीं रही हैं जितनी आज भी यूरोप के औसत पढ़े लिखे आदमी में मिल जायेंगी।

पश्चिमी देशों के लोगों ने पुराने अंधविश्वास तो पूरी तरह छोड़े नहीं हैं नये अंधविश्वासों को और पाल लिया है। चिकित्सा को हमारे यहां इस झाड़ फूंक के स्तर पर कभी नहीं उतारा गया जिस स्तर पर उसे आज एलोपैथों ने उतार दिया है।  सवाल अंधविश्वास या विज्ञान का उतना नहीं है जितना अपनी वैज्ञानिक दृष्टि के आधार पर ज्ञान और भौतिक संपन्नता के विकास का है। जब तक हम नकल करते रहेंगे तब तक अपनी प्रतिभा और कुशलता गिरवी रखकर पिछलग्गू ही बने रहेंगे और एक गलत रास्ते पर आंख मूंद कर पैर पीटते चले जायेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *