स्वतंत्रता आंदोलन और रामराज्य का आदर्श

बनवारी

हम महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहे हैं। इसी अवधि में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद समाप्त हुआ। अब वहां जन्म स्थान पर भगवान राम के भव्य मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो गया है। महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। जल्दी ही देश के स्वतंत्रता संग्राम की कमान उन्होंने अपने हाथ में ले ली थी। उनके नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य ही बदल गया था। उनके कमान अपने हाथ में लेने से पहले स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य केवल मात्र राजनैतिक स्वतंत्रता था। अंग्रेजी शासन से मुक्ति था। शासन की बागडोर अंग्रेजों के हाथों से लेकर भारतीयों के हाथों में देना था। लेकिन गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के उद्देश्य को अधिक व्यापक स्वरूप दे दिया। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को भारतीय सभ्यता की, भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनः प्रतिष्ठा से जोड़ दिया।

अपने इस उद्देश्य को उन्होंने पहले स्वराज्य कहा। फिर स्वराज्य के साथ-साथ उसे रामराज्य कहा। अपने स्वराज्य और रामराज्य की व्याख्या करते हुए अंत में उन्होंने उसे ग्राम स्वराज्य बताया था। अपने आंदोलन के दौरान गांधी जी निरंतर पूरे देश की परिक्रमा करते रहे। उन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर स्वतंत्रता की, स्वराज्य की, रामराज्य की अलख जगाई। उनके आने से पहले जो आंदोलन देश के थोड़े पढ़े-लिखे लोगों तक सीमित था, वह पूरे भारतीय समाज की भागीदारी वाला आंदोलन हो गया। स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे समाज का संकल्प जुड़ गया। व्यापक भारतीय समाज देश की स्वतंत्रता के, स्वराज्य के, आंदोलन को रामराज्य के रूप में ही पहचानता था। इसलिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में जो देशव्यापी आंदोलन खड़ा हुआ, वह रामराज्य के लिए ही समर्पित था।

जब देश को स्वतंत्रता मिली तो स्वतंत्र भारत की राजनैतिक व्यवस्था का निर्णय करने का अवसर आया। यह वह समय था जब यूरोप में डेमोक्रेसी स्वरूप ले रही थी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही वह यूरोप के अधिकांश देशों की राजनैतिक व्यवस्था के रूप में स्वीकृत हुई थी। यूरोपीय विद्वान उसे एक आदर्श व्यवस्था के रूप में देख और दिखा रहे थे। उसकी विशेषताओं का खूब वर्णन किया जा रहा था। उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह बताई जा रही थी कि डेमोक्रेसी में जनता का राज्य होता है। क्योंकि शासन करने वाली सरकार जनता के मत से चुनी जाती है। गांधी जी 19वीं शताब्दी के अंतिम दिनों में अपनी वकालत की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन में थे। इसलिए उन्होंने वहां की डेमोक्रेसी को स्वरूप लेते हुए देखा था। उसे वे एक आदर्श राज्य व्यवस्था मानने के लिए तैयार नहीं थे। उसके बारे में उन्होंने अपना मत आरंभ में ही स्थिर कर लिया था।

1909 में उन्होंने अपना सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘हिंद स्वराज’ लिखा था। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने ब्रिटिश डेमोक्रेसी के लिए सबसे कठोर शब्द का उपयोग किया था। उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश पार्लियामेंट उचित-अनुचित का विवेक करके कानून नहीं बनाती। वह वेश्या की तरह है, जिस दल का बहुमत होता है उसी के प्रस्तावित कानून को स्वीकृति दे देती है। ब्रिटिश डेमोक्रेसी के लिए इतनी कठोर बात उन्होंने उस समय के पढ़े-लिखे भारतीयों को, जो डेमोक्रेसी के विचार से अभिभूत हो रहे थे, उन्हें उस विचार से विरत करने के लिए ही कही थी। बाद में भी गांधी जी निरंतर यह दोहराते रहे कि डेमोक्रेसी में राज्य के पास ही सारी शक्ति केंद्रित होती है। उसे जनता का शासन बताना गलत है। वोट गिनकर जनता का मत नहीं समझा जा सकता। उसका निर्णय बहुमत से नहीं किया जा सकता। शुद्ध चित्त से और विवेकपूर्वक किसी एक आदमी का किया हुआ निर्णय भी जनता के मत की सही पहचान हो सकता है।

बीसवीं सदी में दुनिया में इतनी तेजी से परिवर्तन हो रहे थे कि किसी को स्थिर बुद्धि से सोचने, मनन करने की फुर्सत नहीं थी। अंग्रेजी शिक्षा के कारण यूरोपीय विचार तेजी से फैल रहे थे। उन्हें इतने तार्किक ढंग से रखा जा रहा था कि लोग जल्दी ही उनके प्रभाव में आ जाते थे। इस यूरोपीय प्रभाव के कारण डेमोक्रेसी का एक ऐसा आभा मंडल बन गया था कि उसे नष्ट करना मुश्किल था। गांधी जी राजनीतिज्ञ थे। एक कठिन आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका सारा समय भारतीय समाज को जगाने, अंग्रेजी कूटनीति का मुकाबला करने और आंदोलन की योजना में बीतता था। वे स्वराज्य या रामराज्य की वैसी विस्तृत व्याख्या नहीं कर सकते थे, जो यूरोपीय विचारों में ओतप्रोत लोगों का मोह भंग कर सके। वैसे भी यह काम मनीषियों और विद्वानों का था। गांधी जी की वास्तविक शक्ति व्यापक भारतीय समाज था। वह ही उस पूरे आंदोलन के दौरान उनका संबल बनकर मजबूती से उनके साथ खड़ा रहा था।

व्यापक भारतीय समाज का संकल्प रामराज्य था। अगर उस समय के पढ़े-लिखे लोग सचमुच जनता को महत्व देने वाले होते तो वे भारतीय जनता के रामराज्य के पक्ष में व्यक्त किए गए संकल्प को अपनाते। लेकिन जवाहर लाल नेहरू जैसे नेता तो देश की जनता को अंधेरे में पड़ी हुई मानते थे। वे डेमोक्रेसी के यह कहते हुए पक्षधर थे कि उसमें जनता का शासन होता है। लेकिन वे अपने देश की जनता के मंतव्य को महत्व देने के लिए तैयार नहीं थे। देश को स्वतंत्रता मिलते समय अंग्रेजों ने शासन की बागडोर उन्हीं के हाथ में थमाई। उन्होंने अंग्रेजों के समय खड़ी की गई राज्य व्यवस्था को जस का तस स्वीकार कर लिया। बाद में जो संविधान बना, वह अधिकांशतः उसी व्यवस्था की स्वीकृति था। इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन के लक्ष्य उपेक्षित रह गए। अंग्रेजों की कूटनीति सफल हो गई।

पिछले सात दशक से हम यूरोप में विकसित डेमोक्रेसी को अपनी राज्य व्यवस्था के रूप में लागू किए हुए हैं। आज हम उसकी कमियों को अधिक अच्छी तरह देख और समझ सकते हैं। लेकिन जब तक उसका कोई विकल्प हमारे सामने न हो, हम उसका सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। इसलिए एक बार फिर हमें स्वतंत्रता आंदोलन के समय पैदा हुए भारतीय समाज के संकल्प की ओर देखना होगा। वह संकल्प रामराज्य के बारे में था। महात्मा गांधी उसके साक्षी थे। रामराज्य का यह आदर्श आज का नहीं है, वह अत्यंत प्राचीन काल से भारतीय समाज का आदर्श रहा है। रामराज्य भारत की आत्मा में बसा है।

हर काल में उसकी पुर्नव्याख्या होती रही है। आज फिर हमें उसकी पुर्नव्याख्या करनी है। इस काम में पुराने शास्त्रज्ञ लोगों को तो लगना चाहिए। उन आधुनिक पंडितों को भी लगना चाहिए, जिन्होंने यूरोप के राजनैतिक विचारों का गहराई से अध्ययन किया है। रामराज्य की पुर्नव्याख्या में आधुनिक पंडितों की भूमिका महत्वपूर्ण ही नहीं आवश्यक भी है। रामराज्य के आदर्श की समयानुकूल व्याख्या उसकी यूरोपीय राज्य व्यवस्था से और उसके मूल विचारों से तुलना करते हुए ही की जा सकती है। यूरोपीय राजनैतिक विचारों को और राज्य व्यवस्था को समझने के लिए हमें बीसवीं सदी में हुए उसके महिमा मंडन से पार जाना होगा। यूरोपीय जाति के मूल विचार यूनानी नगर राज्यों के समय ही स्थिर हो गए थे। वे आज भी लगभग वैसे ही हैं। लेकिन यूरोपीय राज्य व्यवस्था का रूपांतरण होता रहा है। उसका बाहरी स्वरूप बदलता रहा है। वह पहले मध्यकाल में बदला, फिर आधुनिक काल में।

रामराज्य का जो स्वरूप लोक-स्मृति में है, वही शास्त्रीय चिंतन में है। जिस राम कथा से एक आदर्श राज्य व्यवस्था के रूप में रामराज्य का उदय हुआ, उसे वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक निरंतर दोहराया जाता रहा है। भारत की सभी भाषाओं में पहला महाकाव्य प्रायः रामकथा पर ही लिखा गया है। भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामायण की रचना हुई और वह वहां के शास्त्रीय चिंतन और लोक-स्मृति का आधार बनी। हिन्दी भाषी क्षेत्र में गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस को लोक और शास्त्र दोनों जगह महत्व मिला है। उससे हम अन्य भाषाओं में रचित रामायणों के महत्व और उनकी लोकप्रियता के बारे में जान सकते हैं। वास्तव में शास्त्रीय चिंतन से निकलकर ही रामराज्य संबंधी मान्यताएं लोक-स्मृति में आई हैं।

हमारे यहां राम कथा का कितना महत्व रहा है, यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि राम से संबंधित हमारे तीन बड़े उत्सव हैं। दीपावली 14 वर्ष के वनवास के बाद राम के अयोध्या लौटने का उत्सव है। वह रामराज्य के आरंभ का भी उत्सव है। राम-नवमी राम के जन्म का उत्सव है और उसे व्रत-पूजापूर्वक परिवार में मनाया जाता है। लेकिन दशहरा सार्वजनिक उत्सव है। दशहरा आसुरी बाधाओं की समाप्ति का उत्सव है। राम ने लंका विजय के बाद उसे विभीषण को वापस लौटा दिया था। इसलिए वह असुर सत्ता की समाप्ति नहीं है। उसे फिर से धर्म के शासन में लाना है। दशहरा हमारे सबसे पवित्र उत्सवों में गिना गया है। वह राम के पराक्रम का उत्सव है। उस दिन किसी कार्य के लिए कोई मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं है। दशहरा सबसे शुभ दिन माना गया है। उसमें किया गया कोई भी कार्य मंगलकारी होगा। राम की यह त्रिविध छवि है। वे भगवान भी हैं, जिनका जन्मदिन पुण्यदायी है। वे पराक्रमी हैं, जिनकी लंका युद्ध में विजय को सबसे शुभ दिन माना गया। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, इसलिए उन्हें एक आदर्श राज्य के अधिपति के रूप में देखा गया। इस आदर्श राज्य का आरंभ ही दीपावली के उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

भारतीय समाज की इस लोक-स्मृति से हम रामराज्य की तीन महत्वपूर्ण विशेषताओं को पहचान सकते हैं। रामराज्य धर्म का शासन है, उसका आदर्श नैतिक है, उसमें राजा और प्रजा दोनों ही धर्म द्वारा शासित होते हैं। वह प्रजा पर राजा का या राज्य का शासन नहीं है। रामराज्य की स्थापना के लिए स्वयं ईश्वर ही अवतार लेकर पृथ्वी पर प्रकट हुए थे। रामराज्य की दूसरी विशेषता यह है कि वह अपराजेय है। वह अनुलंघनीय है। वह पराक्रम में इतना ऊंचा है कि कोई उससे युद्ध करने का साहस न कर सके। वह नीति में इतना ऊंचा है कि कोई उससे युद्ध करने की इच्छा न कर सके। ऐसा शासन ही ईक्ष्वाकु वंश का संकल्प था। उसी में रघु कुल का उदय हुआ। उसी रघु कुल के प्रतापी राजा राम थे। अपने पूर्ववर्ती राजाओं की तरह उन्होंने भी अश्वमेघ यज्ञ किया था। वे भी चक्रवर्ती बने थे। ऐसे राज्य की स्थापना के लिए ही सूर्यवंशियों ने अपनी राजधानी का नाम अयोध्या रखा था।

अयोध्या जिससे युद्ध करना संभव न हो। रामराज्य के इसी आदर्श पर भारत को अपराजेय और अयोध्य होना चाहिए। रामराज्य की तीसरी विशेषता यह है कि उसके राजा राम मर्यादापूर्वक रहते हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनके अनुकरण पर भारत के सभी राजाओं को मर्यादा में रहने की प्रेरणा मिलती रही है। दुनिया में अन्य सभी जगह राजा को विधि प्रदाता कहा गया है। यूरोप में तो राजा ही लॉ है। इस नाते राज्य ही लॉ गिवर है। लेकिन भारत में राज्य विधि प्रदाता नहीं माना गया था। विधि निर्माण समाज का काम है। उसकी बनाई विधि से ही मर्यादा निश्चित होती है। उन मर्यादाओं का जैसे समाज पालन करता है, वैसे ही राजा भी पालन करता है।

राजा रामचंद्र को तो मर्यादाओं का पालन करने वाले लोगों में सबसे उत्तम कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि भारत में राजा समाज के अधीन है। समाज राजा के या राज्य के अधीन नहीं है। यह साधारण बात नहीं है। विधि ही शासन का स्वरूप निर्धारित करती है। अगर विधि का निर्माण समाज की विभिन्न भौगोलिक, सामाजिक, व्यावसायिक और धार्मिक इकाइयां स्वयं कर रही हों तो इस व्यवस्था को स्वशासन की व्यवस्था कहा जाएगा। स्वराज्य की व्यवस्था कहा जाएगा। ऐसी व्यवस्था वह है, जिसमें राज्य सत्ता किसी एक जगह केंद्रित नहीं है। पूरे समाज में व्याप्त है। राजा का काम यह व्यवस्था बनाना नहीं, समाज द्वारा बनाई व्यवस्था की रक्षा करना है। उसकी भूमिका नियंत्रण की नहीं है, नियामक की है। वह दंडाधिकारी है। उन लोगों को दंडित करता है, जो समाज की व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं।

रामराज्य में लोग स्वतंत्र होते हैं। वे अपने तंत्र में अनुशासित होते हैं, यह अनुशासन नैतिक अनुशासन है। वह सार्वभौम सिद्धांतों पर आधारित है। उन सिद्धांतों का बोध एक लंबे अनुभव से भारतीय समाज को हुआ है। उसमें प्रधानता धर्म बोध की है, तार्किक विश्लेषण की नहीं। उसमें राजा और प्रजा सभी अपने-अपने धर्मों का पालन करते हैं। जो लोभ-मोह के वशीभूत होकर उस अनुशासन का उल्लंघन करते हैं, वे लोक और राज्य द्वारा निंदित और दंडित होते हैं। यह अनुशासन सर्वानुमति पर आधारित है। उसमें पूरे समाज की सहभागिता है। पूरे समाज की स्वीकृति है। उसी से समाज समर्थ बनता है। उसका यह समर्थ्य राज्य की भी शक्ति बनता है। राज्य का मुख्य दायित्व बाहरी शक्तियों से देश की रक्षा करना है।

रामराज्य की इन्हीं तीनों विशेषताओं के आधार पर हमें राज्य को ढालना है। राज्य शासन का एक सिरा है। वह इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उसपर समाज की व्यवस्थाओं की रक्षा का भार है। उसे समाज को आंतरिक और बाह्य शक्तियों के अतिक्रमण से बचाना है। शासन के अन्य सभी सिरे पूरे समाज में फैले हुए हैं। भारत में शासन का स्वरूप पंचायती रहा है। समाज की सभी इकाइयां पंचायती विधि-विधान से चलती हैं। पंचायतों में सभी निर्णय सर्वानुमति से होते हैं। बहुमत से आधार पर निर्णय नहीं किए जाते। बहुमत संख्या बल से निर्धारित होता है। वह अंततः भीड़ तंत्र की ओर ले जाता है। फिर उससे बचने के लिए एकतंत्रीय और निरंकुश परंपराएं पनपती हैं।

बहुमत से चलने वाली व्यवस्थाओं में स्वार्थ हावी हो जाते हैं। उसमें नैतिक निर्णयों की गुंजाइश नहीं रहती। इस तरह की व्यवस्थाओं में समाज विभाजित और विघटित होता रहता है। उसमें अधिकारों की छीना-झपटी होती रहती है। किसी को अपने कर्तव्यों का भान नहीं रहता। सब अधिक से अधिक पाना चाहते हैं। उसमें सदाचार और संयम को महत्व नहीं दिया जाता। रामराज्य में सब लोग यह मानते हैं कि उनमें जो भी योग्यता है और सामर्थ्य है, वह उन्हें ईश्वर से मिला है। उसका उपयोग समाज को लाभ पहुंचाने में किया जाना चाहिए। यही वर्णाश्रम धर्म का मंतव्य है। सभी वर्ण समाज के प्रति अपने धर्मों का पालन करने में लगे, यही उसका अर्थ है। इसलिए गांधी जी ने रामराज्य की स्थापना के लिए वर्णाश्रम धर्म को इतना महत्वपूर्ण और आवश्यक बताया था। रामराज्य में कर्तव्य प्रधान है, अधिकार नहीं। गांधी जी ने कहा था कि सारे अधिकार स्वतः कर्तव्यों के पालन से प्राप्त हो जाते हैं। कर्तव्य समाज द्वारा निर्धारित होते हैं, अधिकार राज्य द्वारा।

यूरोप में जो राज्य व्यवस्था विकसित हुई, उसमें राज्य के भीतर ही सारी शक्तियां निहित हैं। राज्य को देश की सभी संपत्तियों का स्वामी माना गया है। इसलिए उसे टैक्स लगाने का असीमित अधिकार है। वह व्यापक हित का हवाला देकर किसी की भी संपत्ति ले सकता है। उसका लोगों की संपत्ति पर ही नहीं, उनके जीवन पर भी पूर्ण अधिकार है। पहले महायुद्ध के समय यूरोपीय देशों को सैनिकों की आवश्यकता थी। इसलिए यह कानून बना दिया गया कि शारीरिक रूप से समर्थ व्यक्ति को सेना में भर्ती होना होगा। लाखों परिवारों के शारीरिक रूप से समर्थ सब लोग युद्ध में मारे गए। यूरोपीय व्यवस्था में राज्य को ही एकमात्र जीवन लेने का अधिकार है।

यूरोपीय न्याय प्रणाली में किसी को उस व्यक्ति की हत्या का अधिकार भी नहीं है, जिसने उसके साथ जघन्य अपराध किया हो या करने जा रहा हो। लेकिन राज्य गलत निर्णय द्वारा किसी को मृत्यु-दण्ड दे दे तो भी उस पर कोई दोष या दायित्व नहीं आता। यूरोपीय राज्य की तीसरी विशेषता यह है कि उसमें विधि का अधिकार केवल राज्य को है। राज्य में बहुमत से बनने वाली सरकार एक वर्ग की इच्छा के अनुरूप कानून बनाएगी, उसमें पूरे समाज का अभिमत नहीं होगा। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि राज्य अपने बनाए कानूनों से ही सारे समाज को नियंत्रित करता है। लॉ का उद्देश्य समाज पर नियंत्रण होता है। लॉ कुछ मुट्ठीभर लोग बनाते हैं और उसे पूरे समाज पर थोप दिया जाता है। लॉ का आधार नैतिक नहीं होता। समाज में सभी के हितों के बीच प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। हर वर्ग अपने हित साधन में लगा रहता है।

डेमोक्रेसी के नाम पर यूरोपीय राज्य व्यवस्था अपनाकर हमने राज्य को केंद्रीय शक्ति बना दिया है। भारत जैसे विशाल देश में इस तरह की केंद्रीय व्यवस्था एक तरह की अराजकता को ही जन्म दे सकती है। भारत में शासन का मुख्य दायित्व समाज का था। समाज की सभी इकाइयां अपने विवेक और अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय करती थी। हमने जो व्यवस्था बनाई है, उसने समाज के सारे दायित्व राज्य को सौंप दिए हैं। समाज की भूमिका नगण्य हो गई है। इससे समाज का क्षरण हो रहा है। नैतिक मर्यादाएं नष्ट हो रही हैं। अपराध और स्वेच्छाचार बढ़ता जा रहा है। राज्य के पास पूरे समाज को नियंत्रित करने वाला तंत्र नहीं हो सकता। इसलिए सब जगह अराजकता जैसी स्थिति पनप रही है। कानून सबको एक डंडे से हांकने की तरह है।

धीरे-धीरे उसका भी भय समाप्त हो जाता है। यूरोपीय विचारों ने स्वच्छंद जीवन शैली को जन्म दिया है। सार्वजनिक जीवन को नैतिक नियमों पर आधारित करने का यह कहते हुए विरोध होता है कि ऐसा करना मोरल पोलिसिंग होगा। स्वच्छंद जीवन के आग्रह के कारण सभी संस्कार नष्ट हो रहे हैं। चुनावों ने गांव-गांव में विग्रह पैदा कर दिया है। भारतीय समाज इतना विभाजित और विखंडित पहले कभी नहीं हुआ था। इस स्थिति के बारे में गंभीर होकर सोचने की आवश्यकता है। सात दशक पहले डेमोक्रेसी की लुभावनी छवि दिखाई देती थी, आज उसके दुष्परिणाम दिखाई देने लगे हैं। इस स्थिति से उबरने के लिए हमें अपने आदर्शों की ओर लौटना चाहिए। स्वतंत्रता आंदोलन के समय स्वराज्य, रामराज्य और ग्राम स्वराज्य का जो संकल्प लिया गया था, उसे फिर से दोहराने की आवश्यकता है। हमें फिर से रामराज्य की समायानुकूल व्याख्या में लगना चाहिए।

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