भगवान राम तक पहुंचने का माध्यम हैं मां सीता – महंथ गिरीशपति त्रिपाठी

महंथ गिरीशपति त्रिपाठी

हम लोग जिस परंपरा को मानने वाले हैं उस परंपरा में मिथिला धीर बालिका को शिथिल न होने देने की परवाह है। हमारे पूर्व आचार्य ने एक मंगलाचरण स्तुति का प्रणयन किया था जिसके पीछे भाव यह था कि भगवान तुम्हारा भला करे तुम्हारा कुशल हो, तुम्हारा भला हो। 

हमारा तो जीवन ही इसी बात के लिए था कि भगवान का कुशल हो हमारी तो आराधना इसी बात के लिए थी कि मिथिलाधिति बालिका शिथिल न पड़ने पावे। हमारी सारी साधना और तपस्या इसी बात के लिए थी कि जो कमल के कैरो पर पड़ी ओश जैसी जो नाजुक है, इतनी जो मासूम है उनका सरंक्षण हो और उनके संरक्षण के पीछे उनके सुरक्षा के पीछे उनके मंगल के पीछे भाव यह था कि जो लोक मंगल के लिए पूरी दुनिया में जो आदर्श है, जो लोक मंगल की पूरी दुनिया में प्रतीक पुरुष हैं, उनका जब मंगल रहेगा तो सृष्टि भी मंगल रहेगी, दुनिया भी मंगल रहेगी, प्रकृति भी मंगल रहेगी और हम सभी लोग मंगल कार्य रहेंगे। उसके पीछे भाव ही यही था। और हम लोग तो अयोध्यावासी हैं- ‘कि जियत न सुमरे राम पद मरे न सरजू तीर बना दास हमरे मते नाहक धरे शरीर।’ 

जिनको भगवान के नाम का स्मरण करने का सौभाग्य न प्राप्त हुआ हो जिनको भगवान के सरयू तट पर जीवनलीला को स्मृत करने का अवसर न प्राप्त हुआ हो हमारे एक पूज्य महात्मा वना दास जी उनका यह कहना था कि उस व्यक्ति का शरीर ही व्यर्थ है, उसका पूरा जीवन ही व्यर्थ है, उसका इस धरती पर आना ही व्यर्थ है, और हमलोग जो अयोध्या वासी हैं और माता जी के प्रति जो हमारा आग्रह है, हमारा जो समर्पण है वह कुछ विशेष भाव से है क्योंकि भगवान हमारे राजा है, हमारे सरकार हैं, राघवेंद्र हमारे सरकार हैं, सरकार तक बात सीधे नहीं पहुंचाई जा सकती। उनके साथ एक संकोच का रिश्ता होता है। उनके प्रति एक झिझक का रिश्ता होता है। किसी महामहिम के सामने जो संकोच होता है वही संकोच हम सभी अयोध्यावासियों को होता है। तो हमलोग विनयपूर्वक आग्रहपूर्वक माता जी के चरणों में निवेदन करते हैं।

कहने का मतलब है माता जी के पीछे आग्रह ही यही है उनसे निवेदन ही बस इतना है कि देखिए हम लोग अपनी बात करने में उनके पास इतने सक्षम और समर्थ लोग नहीं है, हमारी सामर्थ्य की सीमा है कि हम भगवान के सामने अपनी बात, भावना, कष्ट,पीड़ा को प्रकट नहीं कर सकते। अपनी पीड़ाओं को और अपने कष्टों को प्रकट करने का अगर कोई माध्यम है तो वह है मिथिलाधित बालिका जो देवी होकर आईं थी जो हमारी राजमहिषी होके आईं थीं उन अधिष्ठाती देवी को कहीं न कहीं अपना निवेदन कर देते हैं, अपना आग्रह कर देते हैं और वह हमारी बात सही जगह तक पहुँचा देतीं हैं। और जो दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है वह यह है कि हमारी प्रार्थना में हमारे रोज की प्रार्थना में माता जी का वह भाव छिपा हुआ है जिससे जीवन को एक सार्थक और रचनात्मक गति मिल सके। 

जीवन को अगर, मानस को और भगवान के चरित्र को निज मन मुकुर सुधार- विज्ञान समझा जाये यदि मानस को यह माना जाए कि ह्रदय की कल्पित भावनाओं को परिष्कृत करने का उसको परिमार्जित करने का यह साधन और माध्यम है, यदि भगवान के नाम को यह माना जाए कि ह्रदय में जो राग, द्वेष, आकांक्षाएँ, महत्वाकांक्षाएं जड़ जमाये रहती हैं और जो हमारे जीवन को सरल नहीं जीने देती हैं, भगवान के नाम प्रताप से वह आकांक्षाएँ वह कलुष हमारा धुल जाता है। मति को प्राप्त करने की अगर कोई अधिष्ठाती देवी हैं, सुमति को प्राप्त करने की, सदगति को प्राप्त करने की, सहज जीवन को प्राप्त करने की, जीवन को एक सार्थक रास्ते पर ले जाने की अगर कोई अधिष्ठाती देवी हैं तो वो मिथिला से पधारी हमारी माता जी हैं। जिनके कृपा से हमलोग सुमति को प्राप्त करते हैं। और बिना सुमति के न जीवन का सहज होना सरल है, न व्यक्तिगत जीवन का सहज होना सरल है, न पारिवारिक जीवन का सहज होना सरल है, न सामाजिक जीवन का सहज होना सरल है, न राष्ट्र के जीवन का सहज होना सरल है, क्योंकि हमारी सुमति की अधिष्ठाती देवी ही हमारी मिथिला से पधारी हमारी माता जी हैं। उन्हीं के चरणों में बार-बार प्रणाम है और हम अयोध्यावासी तो मिथिला का इतना संकोच करते हैं कि एकादसी के दिन भी माता जी को चावल का भोग लगाते हैं। क्योंकि वो एक परंपरा लेकर आईं हैं। एक मिथिलावासियों को भात का भोजन प्रिय है उस भावना को लेकर हमलोगों के बीच में आईं हैं। लेकिन हमारे अयोध्या में माता जी को चावल के महाप्रसाद का भोग लगता है। क्योंकि उनको प्रिय है, उनकी भावनाओं का हमलोग इतना ख्याल रखते हैं। और हम अयोध्यावासी कहीं न कहीं हमारे ऊपर एक कलंक का बिंदु भी लगा हुआ है। आज मैं आप सभी के सामने इस बात को स्वीकार्य करने में कोई परहेज नही है कि कहीं न कहीं अयोध्यावासियों के ऊपर उंगली उठती है जब सीता के दुबारा वन गमन की चर्चा आती है । कहीं न कहीं हम अयोध्यावासी अपने आपको दोषी पाते हैं। 

अयोध्या-मिथिला संबंधों को पुनः जीवित करके अपनी उस अधिष्ठाती देवी के प्रति अपने राग को अपने समर्पण को हमलोग फिरसे जीवित करके कहीं न कहीं हम अयोध्यावासियों के लिए अवसर भी है कि उस कलंक को धो सकें। 

 

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