रामराज्य का अर्थ है न्याय का राज्य – राहुल देव

भारत में रामराज्य की जो परिकल्पना है उसमें सबसे प्रमुख बात न्याय की आती है। क्योंकि रामराज्य की बात कहने पर एकमात्र घटना जो सबसे पहले लोगों की स्मृति में कौंधिती है, वह धोबी वाली घटना है। क्योंकि बाकी रामराज्य के बारे में अधिक विवरण हमको नहीं मिलता लेकिन मोटी -मोटी बातें जो परिकल्पना में आती है वह यह है कि न्याय और न्याय प्रिय राज्य था। समाज का छोटा और सबसे बड़ा अपनी बात कह सकत था और न्याय की उम्मीद कर सकता था। राजा विषय की संवेदनशीलता के आधार पर निर्णय देता है। कुछ कारण होगा कि कृष्णराज्य की परिकल्पना उस तरह से प्रचलित नहीं हुई जितनी रामराज्य की हुई, तो यह राम का जो भाव है, जो राम का जीवन है वही रामराज्य का आधार है। राम ने व्यवहारिक-लौकिक जीवन की जो रूपरेखा और जो आदर्श हमारे सामने रखा अपने जीवन से वही रामराज्य की परिकल्पना का भी आधार बना है। और इसीलिए वो आज भी इतना ही पवित्र है और पूज्य है। 

गांधी जी ने रामराज्य को क्यों अपनाया ? गांधी जी के कल्पना का रामराज्य निश्चय ही ग्राम स्वराज तो था।   उन्होंने पूरे समाज के सामने एक वैकल्पिक समाज की जो प्रविधि प्रस्तुत की थी वो ग्राम स्वराज से ही शुरू होती थी। उस राज्य की नींव ग्रामसभा से शुरू होती थी। गांधी जी का रामराज्य, राजनीति, जीवन और कई कार्य कई बार हम लोगों को असंभव सा लगता हैं कि कोई ऐसे कैसे जी सकता है। बहुत बार बहुत लोगों ने इसपर आश्चर्य प्रकट किया है कि आज के इस लौकिक संसार में गांधी जैसा व्यक्ति पैदा हो गया और उसने इतना बड़ा काम कर लिया। आखिर यह हुआ कैसे ? क्योंकि ऐसा कार्य न पहले कभी हुआ न बाद में हुआ।

गांधी एक बड़ा असंभव सा मार्ग हैं। लेकिन वो हुए और जिये और जीते भी बहुत बड़े हद तक ऐसे जैसे कोई जीता नहीं। गांधी ने जो जीवन जीया वो शक्य है, अशक्य नहीं है। वो इतना कठिन है इसलिए रामराज्य भी कठिन है। रामराज्य का आधार मेरी समझ में जो आता है वह ये है कि उसके लिए तो राम जैसा राजा होना चाहिए और उनके समय की प्रजा की तरह प्रजा होना चाहिए। यानी जब राजा और प्रजा दोनों के जीवन का जो नींव है, जब धर्माधारित राज्य होगा और हर नागरिक का जीवन धर्माधारित होगा वही रामराज्य हो सकता है। और वो धर्म कौन है, वो भी आप जानते ही होंगे। आज के मजहब वाला धर्म नहीं है। धर्म की व्याख्या भी राम कर चुके हैं धर्मरत की भी व्याख्या राम कर चुके हैं। 

अभी अयोध्या की बात हुई है और अयोध्या का अर्थ ही है जिसपर और जिसको लेकर और जिसमें युद्ध न हो सके वही अयोध्या है। जो अयोध्य है। युद्ध से परे। लेकिन आज तो सारा युद्ध अयोध्या को लेकर ही है। आखिर वो कौन सी अयोध्या है। ये भी एक विचारणीय प्रश्न है। और वह कौन सी अयोध्या है जिसको लेकर रण है। और ये अयोध्या हमने जीत भी ली तो क्या होगा, क्या रामराज्य आ जायेगा?  क्या राम भाव आ जायेगा? 

इस रामराज्य से अगर गांधी को अलग कर दें तो बात बन सकती है। क्योंकि गांधी बड़ी मुश्किल चीज़ हैं वो आसानी से पचने वाली चीज नही है। गांधी अगर पचने वाले होते तो उनके ही अपने शिष्यों ने उनके जीवन में उनको छोड़ न दिया होता। नेहरू ने न छोड़ा होता। नेहरू पर ही सारा दोष क्यों? पटेल ने भी तो छोड़ा था। उस समय हमारे प्रथम पंक्ति के जो नेता जो आजादी के बाद देश के शासन-सत्ता में आएं, जिन्होंने संविधान सभा में भाग लिया, जिन्होंने संविधान बनाया और जिन्होंने राज्य किया वो सब किसके शिष्य थे? तो उन लोगों ने तो गांधी के रहते-रहते छोड़ दिया था। गांधी के रामराज्य को छोड़ दिया था।

कुछ लोग थे जो एक अलग धारा में चले गए। तो मैं समझता हूँ कि रामराज्य के उस भाव को थोड़ा समझ कर मन की मर्यादा और मन की एक प्रेरणा और मन की एक ज्योति के रूप में रखें और उसपर चलने की कोशिश कर सकते हैं। तभी हम कुछ कदम उस दिशा में बढ़ा सकते हैं। 

गांधी ने क्या किया थागांधी ने बड़ी असामान्य राजनीति की थी। जीवन भर राजनीति की और अपने आपको वो चतुर बनिया भी कहते थे। अपने आपको राजनीतिज्ञ भी कहते थे। और महात्मा उनको दुनिया कहती थी। उनसे बड़ा हिन्दू कौन हुआ उनसे बड़ा धर्मप्राण कोई नहीं है, लेकिन वो थे। उन्होंने उस रामराज्य के धर्म वाली राजनीति की इसीलिए वो उसका नाम भी हिम्मत से रख सकें। बाकी लोगों में तो रामराज्य का नाम लेने का भी नैतिक साहस नहीं था। रामराज्य के बारे में बात करने के लिए नैतिक साहस चाहिए। लेकिन नहीं हुआ और उसको वहीं छोड़ दिया गया। रामराज्य को अंसभव मान कर, कल्पना मानकर, आदर्श मानकर। अगर आज हम गांधी और रामराज्य की एक ही सांस में और एक साथ बात करना चाहते हैं तो हमें कुछ दुःसाहस करके उसके मूल भावना को सामने रखना होगा।

(अयोध्या पर्व के दौरान गांधी और रामराज्य संगोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव जी के भाषण के अंश)

 

 

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