भरातीयों के ह्रदय में समायी है राम की मर्यादा

जवाहरलाल कौल

मर्यादायें सोच समझ कर विवेक को कसौटी पर कस कर समाज और मनुष्य की आवश्कताओं को परख कर बनाई जाती है, स्थापित की जाती है और रूढ़ियाँ अपने आप बन जाती हैं। रूढ़ियाँ बुढ़ापा है। बुढ़ापा में जो खराबियां आती हैं वो रूढ़ियाँ कहलाती हैं और मर्यादाएं स्वस्थ समाज के मानक है। जिन मानकों के आधार पर जिस परिमाण पर मनुष्य को जीना चाहिए, समाज को जीना चाहिए, समाज के विभिन्न वर्गों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए वो मर्यादाएं हैं। इसलिए मर्यादा पुरूषोत्तम आज भी प्रासंगिक हैं। 

अब जब गांधी जी इस विशाल समाज, इस विशाल राष्ट्र के लिए कुछ करने के मन से सामने आये तो उन्हें विसंगतियां ही दिखाई दी होंगी। उन्हें टूट-फूट ही दिखाई दी होंगी। उन्हें वैचारिक स्खलन यानी गिरावट ही दिखाई दी होंगी। अगर उनमें एक नया जोश और एक नई वैचारिक क्रांति बदलाव लाना था तो उनके सामने कुछ आदर्श की जरूरत थी। अपने इतिहास को खंगालकर उन्हें लगा होगा कि राम ही एक पुरुष हैं, एक व्यक्ति हैं जिसे एक आदर्श के रूप में हम जनता के सामने खड़ा कर सकते हैं। 

राम का राज्य और राम की मर्यादा और उन्हें यह पता लगा होगा और उन्होंने देख लिया होगा कि भारतीय चाहे बहुत मामलों में विकृत हो गया हो, वैचारिक रूप से विकृत हो गया हो, चाहे संस्कारों में बहुत सारी खराबियां-कमियां आ गईं हो लेकिन उसके भीतर राम और उसकी मर्यादाएं इतनी गहरी समाईं हुई हैं कि जब वह यहां से चला जाता है और इस देश को किसी मजबूरी की वजह से उसको छोड़ना पड़ता है तो अगर कोई चीज़ वह साथ ले जाता है तो वह राम का नाम ही है।

मॉरीशस में जाने वालों की ही यह बात नही है। रामचरितमानस का संबल लेकर अपना एक आधार लेकर यहां से विदेश चले गए थे, जहां की क्या व्यवस्था होगी, वहां का क्या आचरण होगा, उनको कुछ नहीं पता था। उससे पहले भी हमारे हिंदमहासागर के पूर्वी द्वीप समूह के देश इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड से लेकर कंबोडिया तक मॉरिशस जाने वालों से कई सदी पहले वहां चले गए थे। वो भी राम को साथ ले गए। बहुत से लोगों ने कोलरू का दशहरा देखा होगा लेकिन उसके मर्म को समझने की कोशिश बहुत कम लोगों ने की होगी। उसमें यह होता है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग अपना झंडा लेकर कोलरू के उस मैदान में पहुँच जाते हैं। मान लिया जाता है कि यहां राम का दरबार है। राम दरबार के सामने नतमस्तक करने के लिए कोलरू पहुँच जाते हैं। 

क्योंकि उनका मानना है कोलरू का दशहरा का यह प्रकार का दरबार है। और मुगल दरबार में हमारा राजा नही है हमारा राजा तो राम है, इसी राम के सामने हम नतमस्तक होने के लिए आ रहे हैं। तो राम एक प्रकार की भावना है, एक अपनत्व की भावना है, एक स्वाभिमान की भावना है, जो हम सबके भीतर कहीं न कहीं दबा हुआ है, जब अवसर मिलता है तो निकल जाता है। 

गांधी ने इस दमित भावना को ही साकार रूप दिया और इसे रामराज्य के रूप में स्थापित किया। गांधी अपना व्यवसाय राजनीति को मानते थे तो वो स्वाभाविक है क्योंकि वो अगर देश सेवा बोलते तो देश सेवा को व्यवसाय नही बना सकते थे। गांधी के लिए देश सेवा व्यवसाय नहीं हो सकती थी। किसी नैतिक काम को वह व्यवसाय नहीं कह सकते थे। राजनीति में कहीं  ऊंचनीच हो सकती है इसलिए वह व्यवसाय हो सकती है लेकिन उस व्यवसाय में भी एक उच्च आदर्श हो एक उच्चस्तरीय नैतिक मूल्य हो उसका उसका एक आदर्श भी नैतिक हो इसलिए रामराज्य आवश्यक था। 

रामराज्य एक आदर्श था। आज उसका रूप कैसा हो सकता है, उसमें बहुत सारे परिवर्तन करना चाहिए, कुछ बढ़ाना चाहिए लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम अयोध्या की इस भावना को राम की इस भावना को समझ कर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। अयोध्या इसलिए जब वहां संस्कार बन रहे थे, जब वहां संस्कृति आकार ले रही थी तब वह किसी एक छोटे से डायरी में संकुचित नहीं रह सकती थी। सांस्कृतिक और वैचारिक धारणाएं सुगंध की तरह चारों ओर फैल जाती हैं, उसे छोटी-मोटी सीमाएं बांध नही सकती। इसलिए कभी पांच कोस की यात्रा कभी दस कोस की यात्रा तो कभी चौरासी कोस की यात्रा और ये शायद हज़ारों कोस की यात्रा भी हो सकती है। 

क्या इस चौरासी कोस की यात्रा को हम हज़ार कोस की यात्रा बना सकते हैं? इसलिए जब अयोध्या उत्सव हम मना रहे हैं तो शायद हम याद कराना चाहते है अपने आपको और जो दूसरे हमारे साथी संपर्क में आ रहे हैं।  अयोध्या एक छोटा सा नगर नहीं है ,जहां रोजगार नहीं है, जहां लोग अपने घरों में रहते नहीं है, कहीं बाहर चले गए हैं। अभी बहुत सारे मकान खंडहर हैं उनमें रहने वाले लोग नहीं है। सरयू पर कम से कम ऐसे भी घाट नहीं है जैसे हरिद्वार में है। वह एक शहर नहीं है खाली वो एक ऐसी भावना है, ऐसी प्रेरणा है जिसे अगर हम अपने मन में स्थान दे सकें तो सबकुछ बदल जाएगा। क्योंकि विचार भी संक्रामक होते हैं। उनका संक्रमण होता है, वो कहीं एक जगह छिपे नहीं रहते, उन्हीं से क्रांतियां बनती है। 

आज जब हम यहां बैठे हैं और गांधी जी को याद कर रहे हैं तो गांधी जी रामराज्य के माध्यम से देश को जोड़ना चाहते थे। देश में एक नई भावना पैदा करना चाहते थे। एक विद्रोह की भावना पैदा करना चाहते थे और वो विद्रोह जो वैचारिक विद्रोह हो। वो ऐसी क्रांति स्थापित करना चाहते थे जिसमें खून न बहे लेकिन भावनाओं से, विचारों से, संकल्प से वो एक शक्तिशाली-बलशाली आक्रांता को भी परास्त कर सकें। आज हमारी समस्या गांधी जी के उस युग से ज्यादा गहन है क्योंकि अब हम किसी अंग्रेज के खिलाफ नहीं लड़ रहे हैं। अब हम अपने ही बंधुओं से लड़ रहे हैं, अपने आप से लड़ रहे हैं। शायद यह महाभारत जैसी शक्ति है या कलयुग के आरंभ की जैसे शक्ति है जहां अगर धर्मयुद्ध करना है तो अपनों के खिलाफ करना है।

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