धर्म राजाओं का भी राजा है

डा. राधाकृष्णन

जनवरी 20, 1947 पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा विधान परिषद् में प्रस्तुत किए गए लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर द्वितीय चरण की बहस का आरंभ डॉ. राधाकृष्णन के इसी भाषण से हुआ,

अध्यक्ष महोदय, मैं बड़े हर्ष से यह सिफारिश करता हूं कि इस सभा को यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए। संशोधनों की जो सूची पेश की गई है, उसमें मैं देखता हूं कि तीन अलग-अलग सवाल उठाए गए हैं-क्या आया इस तरह की घोषणा आवश्यक है, क्या इस घोषणा पर विचार करने के लिए यह उचित समय है, और क्या इस प्रस्ताव में जिन लक्ष्यों की ओर संकेत किया गया है, उनके बारे में सभी लोग सहमत हैं या उनको बदलने या संशोधित करने की आवश्यकता है। मेरा यह विश्वास है कि इस प्रकार की घोषणा आवश्यक है। ऐसे लोग भी हैं, जो वहमी हैं, जो हिचकिचाते रहते हैं, या जिन्हें इस विधान परिषद के कार्य से अत्यंत दुर्दशा है। ऐसे लोग भी हैं, जो दृढ़ता से कहते हैं कि मंत्रिमंडल की योजना के अंतर्गत देश में न तो वास्तविक एकता को स्थापित करना संभव होगा और न सच्ची स्वतंत्रता या आर्थिक सुरक्षा को प्राप्त करना। वे हमसे कहते हैं कि उन्होंने पिंजड़े के अंदर गिलहरियों को मते हुए देखा है और यह कि मंत्रिमंडल के बयान की चौहद्दी के अंदर हमारे लिए यह संभव न होगा कि हम उन क्रांतिकारी परिवर्तनों को कर सकें, जिनकी ओर देश बढ़ रहा है। वे इतिहास को सामने रखकर यह तर्क देते हैं कि हिंसात्मक कार्य द्वारा पहले से स्थापित सरकारों का तख्ता उलटकर ही क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकते हैं।

अंग्रेजों ने राजसत्तात्मक एकतंत्र को इसी तरह खत्म किया, संयुक्त राज्य अमरीका ने भी आरंभ में सीधी चोट द्वारा ही स्वतंत्रता प्राप्त की। फ्रांसीसी वोल्शेवी, फासिस्ट और नाजी क्रांतियाँ भी इन्हीं तरीकों से की गई। हमसे कहा जाता है कि हम शांतिपूर्वक उपायों से, सलाह लेकर या विधान परिषदों में बहस करके, क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। हमारा जवाब यह है कि हमारा लक्ष्य भा वही है, जो आपका है। हम भारतीय समाज में मौलिक परिवर्तन करना चाहते हैं। हम अपनी राजनीतिक व आर्थिक पराधीनता का अंत करना चाहते हैं। वे लोग, जिनका आत्मबल बढ़ा-चढ़ा होता है, जिनकी दृष्टि संकुचित नहीं होती है, अवसर से लाभ उठाते हैं। वे अपने लिए अवसर पैदा करते हैं। हमें यह अवसर प्राप्त हुआ है और इससे लाभ उठाकर हम जानना चाहते हैं कि क्या ऐसे तरीकों को काम में लाकर, जो पहले इतिहास में कभी काम में नहीं लाए गए. हमारे लिए अपने क्रांतिकारी उद्देश्यों को पूरा करना संभव है या नहीं। हम यही देखने के लिए कोशिश कर रहे हैं कि क्या हमारे लिए आसानी से और तुरंत ही दासत्व की अवस्था को त्यागकर स्वतंत्रता की अवस्था प्राप्त करना संभव है या नहीं। इस असेंबली को यही आश्वासन देना है। हम उन सबसे, जो इस असेंबली में नहीं आए हैं, यह कहना चाहते हैं कि हमारी इच्छा यह कभी भी नहीं है कि हम किसी वर्ग विशेष की सरकार स्थापित करें। हम यहां किसी जाति विशेष या किसी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लिए कोई मांग करने नहीं आए हैं। हम यहां सभी भारतीयों के लिए स्वराज्य की स्थापना का कार्य कर रहे हैं। हम हर प्रकार के स्वेच्छाचारी शासन को और निर्जीव परंपरा की हर एक टूटी-फूटी चीज को खत्म करने का प्रयत्न करेंगे।

हम यहां ऐसी व्यवस्था करने के लिए सम्मिलित हुए हैं, जिससे इस देश के जनसाधारण की, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या संप्रदाय के हों, मौलिक आवश्यकताएं वास्तव में पूरी हो सकें। यदि तुरही से संदेहजनक आवाज निकले तो लोग हमारा समर्थन करने नहीं आएंगे। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारी तुरही की आवाज, हमारी शंखध्वनि, स्पष्ट हो, जिससे लोगों के हृदय आह्लादित हों और वहमी व अलग रहनेवाले लोगों को दुबारा यह आश्वासन मिले कि हम यहां इस संकल्प से आए हैं कि सारे भारतवर्ष को स्वाधीन बनाएं और यह कि यहां किसी व्यक्ति को बिना किसी दोष के तंगी का सामना नहीं करना पड़ेगा और किसी वर्ग को अपनी सांस्कृतिक उन्नति के लिए कुंठित न किया जाएगा। इसलिए मेरा विश्वास है कि इस प्रकार के लक्ष्य-संबंधी घोषणा की आवश्यकता है और हमें उस समय के लिए रुके रहने की कोई आवश्यकता नहीं है, जबकि इस असेंबली में आज दिन से अधिक प्रतिनिधि आ जाएँगे। अब मैं अपने लक्ष्य के विषय में कहूँगा। हम यह निश्चय करते हैं कि हिंदुस्तान स्वतंत्र सार्वभौम सत्तासंपन्न जनतंत्र होगा। स्वतंत्रता के प्रश्न पर कोई मतभेद नहीं है। प्रधानमंत्री एटली अपने पहले वक्तव्य में, जो उन्होंने 5 मार्च को दिया, कहते हैं – ‘मैं आशा करता हूँ कि भारतीय ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में रहने का निश्चय करेंगे। मुझे विश्वास है कि ऐसा करने में उन्हें बहुत लाभ दिखाई देगा, लेकिन यदि वह ऐसा निश्चय करें तो यह स्वतंत्र इच्छा से होना चाहिए। ब्रिटिश साम्राज्य ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के साथ किसी बाहरी दबाव से नहीं है। लेकिन इसके विपरीत यदि वह स्वतंत्र होने का निश्चय करे तो हमारे मत में उसे इसका अधिकार है।’ मुस्लिम लीग और नरेश सब इस पर सहमत हैं। रियासतों की संधियों और सर्वोच्च सत्ता के बारे में मंत्रिमंडल ने नरेंद्रमंडल के चांसलर को मई 12, 1946 ई. को जो स्मृतिपत्र दिया है, उसमें कहा गया है – ‘नरेंद्रमंडल ने तब से इसका समर्थन किया है कि भारतीय रियासतों की भी आमतौर से सारे देश की तरह यही इच्छा है कि हिंदुस्तान तुरंत ही अपने पूर्ण विकसित स्वरूप को प्राप्त हो।

सम्राट् की सरकार ने भी अब यह घोषित कर दिया है कि यदि ब्रिटिश भारत की उत्तराधिकारी सरकार या सरकारें स्वतंत्रता की घोषणा करें तो उनके रास्ते में कोई अड्गा न लगाया जाएगा। इन घोषणाओं का यह असर हुआ है कि सभी लोग, जो हिंदुस्तान के भविष्य के लिए चिंतित हैं, चाहते हैं कि यह स्वाधीनता की स्थिति को प्राप्त हो, चाहे वह यह स्थिति ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अंदर रहकर प्राप्त करें या उसके बाहर रहकर।’ कांग्रेस, मुसलिम लीग और दूसरे संगठन और नरेश, जो कोई भी हिंदुस्तान के भविष्य के लिए चिंतित हैं. यही चाहते हैं कि वह स्वतंत्र हो, चाहे वह ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अंदर रहे या बाहर।

महोदय, सम्राट् की सरकार की स्वतंत्रता की भेंट का उल्लेख करते हुए मि. र्चिचल ने जुलाई 1, 1946 ई. को कॉमंस सभा में कहा था – ‘लेकिन यह दूसरी बात है कि हम इस कार्यप्रणाली को छोटा कर दें और कहें, लीजिए, स्वतंत्रता अभी लीजिए। यह सरकार देखेगी ही और वह भी जल्दी ही। उन्हें इसे नहीं भूलना चाहिए। सरकार जिन लोगों से बातचीत कर रही है, उन्हें तुरंत ही पूर्ण स्वतंत्रता स्वीकार करने में संकोच नहीं होगा। यह होने ही वाला है।’ इस लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव का उद्देश्य मि. चर्चिल को निराश करना नहीं है। (वाह वाह) यह उन्हें बताता है कि जिसकी आशा की जाती थी, वह हो रहा है। आपने यह हमारी इच्छा पर छोड़ दिया कि हम ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में रहें या न रहें। हम ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में न रहने का निश्चय कर रहे हैं। क्या मैं इसका कारण बता सकता हूँ? जहाँ तक हिंदुस्तान का संबंध है, यह आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा या दक्षिणी अफ्रीका की तरह सिर्फ उपनिवेश नहीं है। इनका ग्रेट ब्रिटेन से जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक संबंध है। हिंदुस्तान की जनसंख्या विशाल है और उसके विपुल प्राकृतिक साधन हैं, उसकी एक महान सांस्कृतिक परंपरा रही है और बहुत काल तक उसने स्वतंत्र जीवन व्यतीत किया है। इसलिए इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि हिंदुस्तान दूसरे उपनिवेशों की तरह एक उपनिवेश है। इसके अलावा, हमें इस पर विचार करना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जो कुछ हुआ उसका क्या अर्थ है। जब भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने हमारी प्रतिष्ठित सहचरी श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित के नेतृत्व में दक्षिणी भारत के भारतीयों की सुरक्षा के लिए योग्यता से दलीलें पेश की तो ब्रिटेन ने कैसा रुख दिखाया।

ग्रेट ब्रिटेन ने कनाडा और आस्ट्रेलिया के साथ दक्षिण अफ्रीका का समर्थन किया। न्यूजीलैंड ने किसी तरफ वोट नहीं दिया। इससे स्पष्ट है कि ब्रिटेन और दूसरे उपनिवेशों के आदेशों में सामंजस्य है, लेकिन यह हिंदुस्तान के लिए नहीं कहा जा सकता। ब्रिटिश कॉमनवेल्थ में रहने का कोई अर्थ नहीं है। हमें यह अनुभव नहीं होता कि ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के विभिन्न भागों में रहते हुए हमें समान अधिकार प्राप्त हैं। आप में से कुछ सज्जनों ने यह भी सुना होगा कि मि. चर्चिल और लॉर्ड टेंपलवुड ने एक यूरोपीय संघ के लिए हाल में काम शुरू किया है, जिसका अध्यक्ष और संरक्षक ग्रेट ब्रिटेन होगा। इससे भी मालूम होता है कि हवा का रुख क्या है। फिर भी यदि हिंदुस्तान ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से अलग होने का निश्चय करे, तो भी स्वेच्छा से सहयोग करने और व्यापार, रक्षा और सांस्कृतिक मामलों में एक-दूसरे का हाथ बटाने के सैकड़ों तरीके हैं, लेकिन ग्रेट ब्रिटेन ने इस संकट के समय जो रुख दिखाए। वह उसी पर निर्भर है कि मैत्री, विश्वास और सामंजस्य की भावना से यह पारस्परिक सहयोग उत्तरोत्तर बढ़े या पारस्परिक विश्वास और कटुता से खत्म हो जाए। यह मालूम पड़ता है कि भारतीय रिपब्लिक से संबंधित इस प्रस्ताव में मि. चर्चिल और उनके अनुयायी रुष्ट हो गए हैं। हमारे सभापति महोदय ने आज मि. चर्चिल के एक बयान का हवाला दिया है, मैं कुछ दूसरे बयानों की ओर आपका ध्यान आर्किषत करूंगा। जब बर्मा के विषय में वाद-विवाद हुआ तो मि. चर्चिल ने कहा कि बर्मा उस समय साम्राज्य में मिलाया गया था, जबकि उनके पिता सेक्रेटरी थे और अब बर्मा को इसकी स्वतंत्रता दे दी गई है कि वह साम्राज्य में रहे या न रहे।

यह जान पड़ता है कि वे बर्मा और हिंदुस्तान को अपनी पैतृक संपत्ति के भाग समझते हैं, चूंकि अब वे हाथ से निकले जा रहे हैं, इसलिए उनको बहुत ही अफसोस हो रहा है। हिंदुस्तान के बारे में जब वाद-विवाद हो रहा था तो उन्होंने श्रीमान सम्राट् की सरकार से कहा कि ‘उसे मुसलमानों के प्रति, जिनकी संख्या 9 करोड़ है और हिंदुस्तान के सैनिकों में जिनका बाहुल्य है।’ और ‘4 से 6 करोड़ अछूतों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को ध्यान में रखना चाहिए। भारत से संबंधित वाद िववाद और अंतरराष्ट्रीय बातचीत में सत्य का मान नहीं किया जाता। महान् कांग्रेस दल के प्रतिनिधियों के बारे में वे कहते हैं कि ‘वे परिश्रम से संगठित और बाहरी दबाव से बनाए हुए अल्पसंख्यकों के वक्ता हैं, जिन्होंने बलपूर्वक या चालबाजी से शक्ति अपने हाथों में ले ली है और वे उस शक्ति का प्रयोग विशाल जनसाधारण के नाम पर करते हैं, हालांकि उनका जनसाधारण से कभी का संबंध टूट गया है और उन पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं है।’ यह वह दल है, जिससे सदस्यों ने जीवन के कष्टों का बहादुरी से सामना किया है, देश के लिए जिन्हें कष्ट झेलने पड़े हैं, जिनका देश-प्रेम और त्याग संसार में अद्वितीय है और जिनका नेता एक ऐसा व्यक्ति है, जो आज के दिन हिंदुस्तान के एक सुदूर प्रदेश में एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा है और जिस वृद्ध पुरुष के कंधों पर राष्ट्र के शोक और संताप का भार है। ऐसे दल का इस तरह उल्लेख करना, जैसे कि मि. चर्चिल ने किया है-मेरी समझ में नहीं आता है कि मैं इसे क्या कहूं। (अफसोस की आवाजें) मि. चर्चिल के उद्गारों में कुछ भी गंभीरता या विवेक नहीं है।

उत्तेजनापूर्ण और असंगत बातें कहकर और हमारे सांप्रदायिक भेदभाव का उपहास करके उन्होंने इस अवसर पर व अन्य अवसरों पर अपने भाषण को प्रभावपूर्ण बनाया है। मैं यहां सिर्फ यह कहूंगा कि इस तरह के भाषणों और वक्तव्यों से यह नहीं हो सकता कि हम अपने लक्ष्य को प्राप्त न करें। हाँ, इतना हो सकता है कि कुछ ढील-ढिलाव हो जाए और कष्ट अधिक काल तक झेलना पड़े। अंग्रेजों से संबंध टूटकर ही रहेगा और उसे टूटना ही चाहिए। इस संबंध के टूटने पर मैत्री और सद्भाव हो या दु:ख और उत्पीड़न, यह सबकुछ इस पर निर्भर है कि अंग्रेज इस महान प्रश्न को किस तरह सुलझाते हैं। ‘रिपब्लिक’ एक ऐसा शब्द है, जिसने इस देश की रियासतों के प्रतिनिधियों को विचलित कर दिया है। इस मंच से हमने यह कहा है कि भारतीय रिपब्लिक का यह अर्थ नहीं है कि नरेशों का शासन खत्म हो जाएगा, नरेश रह सकते हैं।

यदि नरेश अपने को वैधानिक और रियासतों के लोगों के प्रति उत्तरदायी बना लें तो वे रहेंगे। यदि सर्वोच्च शक्ति ही, जिसने इस देश को जीतकर सार्वभौम सत्ता प्राप्त की है, लोगों के प्रतिनिधियों को अधिकार हस्तांतरित कर रही है, तो यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वे लोग जो उस सर्वोच्च शक्ति के अधीन हैं, वही करें जो कि अंग्रेज कर रहे हैं, उन्हें भी चाहिए कि वे लोगों के प्रतिनिधियों को अधिकार हस्तांतरित करें। हम यह नहीं कह सकते कि इस देश की गणतंत्रात्मक परंपरा नहीं रही है। इतिहास बतलाता है कि बहुत प्राचीनकाल से यह प्रथा चली आई है, जब उत्तर भारत के कुछ व्यापारी दक्षिण गए तो दक्षिण के एक नरेश ने उनसे पूछा, ‘आपका राजा कौन है?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘हम में से कुछ पर परिषद् शासन करती है, और कुछ पर राजा।’

केचिद्देशो गणाधीना केचिद राजाधीनापाणिनी, मेगस्थनीज और कौटिल्य,

प्राचीन भारत के रिपब्लिकों का उल्लेख करते हैं। महात्मा बुद्ध कपिलवस्तु की रिपब्लिक के निवासी थे। लोगों की सार्वभौम सत्ता के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। हमारी यह धारणा है कि सार्वभौम सत्ता का आधार अंतिम रूप से नैतिक सिद्धांत है, मनुष्य मात्र का अंत:करण है। लोग और राजा भी उसके अधीन हैं। धर्म राजाओं का भी राजा है।

धर्मम क्षात्रस्य क्षात्रम

वह लोगों और राजाओं दोनों का शासक है। हमने कानून की सार्वभौम सत्ता पर भी जोर दिया है। नरेश, जिनमें से बहुत से मेरे मित्र हैं, मंत्रिमंडल के वक्तव्य पर सहमत है और वे देश की भावी उन्नति में हाथ बंटाना चाहते हैं। मुझे आशा है कि वे अपने लोगों की उभरती हुई आकांक्षाओं की ओर ध्यान देंगे और अपने को उत्तरदायी बनाएंगे। यदि वे ऐसा करें तो वे देश के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भाग लेंगे। हमारा नरेशों से कुछ द्वेष नहीं है। गणतंत्र या लोगों की सार्वभौम सत्ता पर जोर देने का यह अर्थ नहीं है कि हम नरेशों के शासन के विरुद्ध हैं। उसका संबंध देशी रियासतों की वर्तमान परिस्थिति या उनके प्राचीन इतिहास से नहीं है, बल्कि यह रियासतों के लोगों की भविष्य की आकांक्षाओं की ओर संकेत करता है। दूसरी बात, जिसका उल्लेख इस प्रस्ताव में किया गया है, वह भारतीय यूनियन के बारे में है। मंत्रिमंडल के बयान में हिंदुस्तान के विभाजन के विरुद्ध निर्णय दिया गया है। भूगोल उसके विरुद्ध है। सैन्य संचालन में भी उससे रुकावट पड़ती है। इस समय जो धारा बह रही है, वह बड़े-से-बड़े समूहों के अनुकूल है। देखिए अमरीका, कनाडा और स्विट्जरलैंड में क्या हुआ? मिस सूडान से मिल जाना चाहता है, दक्षिण आयरलैंड उत्तरी आयरलैंड से मिल जाना चाहता है, फिलिस्तीन विभाजन का विरोध कर रहा है। आधुनिक जीवन का आधार राष्ट्रीयता है, न कि धर्म।

एलनवाई के मिस्र में चलाए हुए स्वतंत्रता के आंदोलन, अरब में लॉरेंस के साहसपूर्ण कार्य, कमालपाशा का तुर्की को बलपूर्वक पार्थिक (पंथनिरपेक्ष) रूप देना, इस ओर संकेत करते हैं कि धार्मिक राज्यों के दिन ढल गए हैं। आजकाल राष्ट्रीयता का जमाना है। इस देश में हिंदू और मुसलमान एक हजार वर्ष से भी अधिक समय से साथ-साथ रहते आए हैं। वे एक ही देश के रहनेवाले हैं और एक ही भाषा बोलते हैं। उनकी जातीय परंपरा एक ही है। उन्हें एक ही प्रकार के भविष्य का निर्माण करना है। वे एक-दूसरे में गुंथे हुए हैं। हम अपने देश के किसी भी भाग को अल्सटर की तरह अलग नहीं कर सकते। हमारा अल्सटर सार्वभौम है। यदि हम दो राज्य भी स्थापित करें तो उनमें बहुत बड़े अल्पसंख्यक समूह होंगे और वे अल्संख्यक, चाहे उन पर अत्याचार हो या न हो, अपनी रक्षा के लिए अपनी सरहदों के उस पार से सहायता मांगेंगे। इससे निरंतर कलह होगा और वह उस समय तक चलता रहेगा, जब तक भारत एक संयुक्त राष्ट्र न हो जाए। हम यह अनुभव करते हैं कि सभी लोगों को संगठित करने के लिए एक शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता है। लेकिन कुछ निर्देशों के कारण, चाहे वे वास्तविक हों या काल्पनिक, हमें एक ऐसे केंद्र से संतोष कर लेना है, जिसको केवल वे तीन विषय दिए गए हैं, जिन्हें कि मंत्रिमंडल ने हमारे सामने रखा है, इस प्रकार हम प्रांतीय स्वशासन के सिद्धांत को अपनाकर काम कर रहे हैं, जिसके अंतर्गत अवशिष्ट अधिकार प्रांतों के ही होंगे।

बिहार और बंगाल में जो घटनाएँ घटित हुई हैं, उनको देखते हुए केंद्र का शक्तिशाली होना आवश्यक है। लेकिन चूंकि ये कठिनाइयाँ हैं, हमारी तजवीज यह है कि एक बहुराष्ट्रीय राज्य का निर्माण किया जाए, जिसमें विभिन्न संस्कृतियों को अपने विकास का पर्याप्त अवसर मिले। समूहबंदी के कारण हमें बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, लेकिन समूहबंदी दो आवश्यक बातों पर निर्भर है, जो कि मंत्रिमंडल की योजना के ही अंग हैं, यानी यूनियन का केंद्र और अवशिष्ट अधिकार प्राप्त प्रांत । इन समूहों में भी बड़े-बड़े अल्पसंख्यक समूह होंगे। जो लोग अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर जोर दे रहे हैं, उन्हें ऐसे दूसरे लोगों को भी ये अधिकार देने होंगे, जो समूहों में सम्मिलित हैं। सर स्टैफोर्ड क्रिप्स ने जुलाई 19, 1946 ई. को जो वक्तव्य दिया, उसमें कहा – ‘यह भ्रम प्रकट किया गया है कि यह संभव है कि नए प्रांतीय विधान इस प्रकार बनाए जाएंगे कि बाद को प्रांतों के लिए संबंध-विच्छेद करना असंभव हो जाएगा। मेरी समझ में नहीं आता कि यह कैसे संभव होगा। लेकिन यदि ऐसी कोई बात की जाए तो यह स्पष्टत: इस योजना के आधारभूत आशय के ही विपरीत होगा।’ सर स्टैफोर्ड क्रिप्स ने यह कहा है कि यदि निर्वाचक समूहों को इस प्रकार बनाने का प्रयत्न किया गया कि प्रांतों के लिए स्वेच्छा से बाहर निकलना ही मुश्किल हो जाए, तो यह सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के शब्दों में इस योजना के आधारभूत आशय के विपरीत होगा। आखिर हमने साथ रहना है और यह बिल्कुल असंभव है कि कोई विधान, जिसके अनुसार लोगों पर शासन होगा, उनकी इच्छा के विरुद्ध लागू किया जाए।

इस प्रस्ताव में मौलिक अधिकारों का भी उल्लेख है, हम एक सामाजिक व आर्थिक क्रांति करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि इस पार्थिक स्थिति को समुन्नत बनाने के अतिरिक्त हमें मनुष्य के अंत:करण की स्वतंत्रता की भी रक्षा करनी है। जब तक कि स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न न की जाए, केवल स्वतंत्रता की दशाओं को पैदा करने से कोई लाभ न होगा। मनुष्य के मस्तिष्क को अपना विकास करने और पूर्णावस्था प्राप्त करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। मनुष्य की उन्नति उसके मस्तिष्क की क्रीड़ा से ही होती है। वह कभी सृजन करता है तो कभी विनाश और उसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है। हमें मनुष्य के अंत:करण की स्वतंत्रता की सुरक्षा करनी है, जिससे उसमें राज्य हस्तक्षेप न कर सके। आर्थिक दशाओं के सुधार के लिए आवश्यक है कि राज्य व्यवस्था करें, लेकिन इससे मनुष्य के अंत:करण की हत्या नहीं होनी चाहिए। हम आज एक महान ऐतिहासिक नाटक के पात्रों के रूप में काम कर रहे हैं। चूंकि हम उसके अंदर काम कर रहे हैं, इसलिए हमें उसकी बृहद् रूपरेखा का ज्ञान नहीं हो सकता। जो घोषणा आज हम कर रहे हैं, वह वास्तव में अपने लोगों से एक प्रतिज्ञा और सभ्य संसार से एक संधि है। मि. चर्चिल ने मि. अलेक्जेंडर से यह सवाल पूछा कि क्या यह असेंबली प्रामाणिक रूप से काम कर रही है? मि. अलेक्जेंडर ने कहा कि ‘मैं यह फिर कहता हूँ कि विधान परिषद् के लिए चुनाव की जो योजना थी, उसका कार्य समाप्त हो चुका है।

यदि मुसलिम लीग ने उसमें जाना स्वीकार नहीं किया तो आप एक नियमानुसार निर्वाचन असेंबली को अपना कार्य करने से कैसे रोक सकते हैं?’ मि. अलेक्जेंडर ने यह कहा। समूहबंदी की व्याख्या के संबंध में कुछ कठिनाइयाँ हुई। बहुत कुछ इच्छा न होते हुए भी कांग्रेस ने श्रीमान, सम्राट की सरकार की व्याख्या स्वीकार कर ली है। जो दो खंड रह जाते हैं, उनसे अल्पसंख्यकों के हितों की पर्याप्त सुरक्षा हो जाती है और शक्ति हस्तांतरित होने पर जो प्रश्न उठेंगे, उनको हल करने के लिए उनका महत्त्व वही होगा, जो एक संधि का होता है। विधान परिषद् न्यायोचित रूप से काम कर रही है। सरकारी योजना का हर एक भाग पूर्णतया स्वीकार कर लिया गया है, और यदि हम अल्पसंख्यकों के हितों की पर्याप्त सुरक्षा की व्यवस्था कर सकेंगे ऐसी सुरक्षा, जिससे चाहे अंग्रेजों को या हमारे देशवासियों को संतोष हो या न हो, परंतु जिससे सभ्य संसार के अंत:करण को संतोष होगा, तो यद्यपि अंग्रेजों को ही उसे प्रयोग में लाने का अधिकार होगा, उन्हें कम-से-कम इस विधान को कानून का रूप देना ही होगा। यह आवश्यक है कि वे ऐसा करें, यदि इन शर्तों के पूरा होने पर भी हिंदुस्तान की स्वतंत्रता को स्थगित करने के लिए कोई बहाना ढूंढ़ा जाए, तो यह इतिहास में सबसे कठोर विश्वासघात का उदाहरण होगा। लेकिन इसके विपरीत यदि अंग्रेज यह तर्क दें कि विधान परिषद् ने मंत्रिमंडल की योजना के आधार पर काम शुरू किया है और उसने 16 मई की मंत्रिमंडल की योजना के हर एक खंड को स्वीकार कर लिया है और सभी अल्पसंख्यकों की पर्याप्त सुरक्षा के लिए व्यवस्था कर दी है और इसलिए उन्हें इस विधान को प्रयोग में लाना चाहिए, तो यह इतिहास की एक सफलता होगी और इससे दो महान राष्ट्रों के बीच सहयोग और उनमें सद्भावना होगी।

मि. एटली ने प्रधानमंत्री की हैसियत से 15 मार्च को जो भाषण दिया, उसमें उन्होंने कहा – ‘एशिया ऐसे विशाल देश में, युद्ध द्वारा विध्वस्त एशिया में, एक ऐसा देश, जो प्रजातंत्र के सिद्धांतों को प्रयोग में लाने की चेष्टा करता रहा है। हमेशा ही मेरा अपना अनुभव यह रहा है कि राजनीतिक भारत एशिया का ज्योति हो सकता है। एशिया का ही नहीं, वरन संसार की ज्योति हो सकता है और उसके विभ्रांत मस्तिष्क में एक आंतरिक कल्पना जाग्रत कर सकता है और उसकी विचलित बुद्धि को उन्नति का मार्ग दिखा सकता है।’ ये दो उपाय हैं-विधान परिषद् को स्वीकार कीजिए, उसके नियमों को स्वीकार कीजिए, देखिए कि अल्पसंख्यकों के हितों की पर्याप्त सुरक्षा की गई है या नहीं। यदि की गई है तो उन्हें कानून का रूप दीजिए। इससे आपको सहयोग मिलेगा। यदि सभी शर्तों के पूरा होने पर आप यह दिखाने की कोशिश करें कि कुछ बातें रह गई हैं तो यह समझा जाएगा कि अंग्रेज सारी सरकारी योजना की भावना के प्रतिकूल जा रहे हैं और संसार की वर्तमान परिस्थिति में इसका इतना भयंकर परिणाम होगा कि मैं उसकी कल्पना भी नहीं करना चाहता।

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