अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में नस्लभेद

दक्षिणी कैरोलीना की पूर्व गवर्नर भारतीय मूल की रिपब्लिकन नेता निक्की हेली ने गत 14 फरवरी को 2024 में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव हेतु अपने उम्मीदवारी की घोषणा की.
  इसके साथ ही अमेरिका की नस्लभेदी समाज का घृणित चेहरा भी उभरकर सामने आया. भारतीय मूल और गैर-श्वेत होने के कारण उनकी उम्मीदवारी का विरोध कर रहे अमेरिकी वर्ग में से मुखर स्वर एक अमेरिकी लेखिका जिनका नाम एन. कोल्टर का है. रूढ़िवाद की समर्थक कोल्टन ने एक कार्यक्रम में निक्की पर नस्लीय टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘अपने देश लौट जाने’ को कहा. उन्होंने निक्की को हंसी का पात्र बताया और साथ ही कहा कि जो उनके समर्थक हैं वे जान लें कि उन्हें 2 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिलेंगे. कोल्टर इतने पर ही नहीं रुकी उन्होंने निक्की को एक वाहियात इंसान कह दिया. इसके साथ ही उन्होंने भारत पर भी अभद्र टिप्पणी की और गाय के पूजनीय होने का भी मजाक उड़ाया. कोल्टर का ऐसा इतिहास रहा है. उन्होंने 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से निक्की को देश से निर्वासित करने की सलाह दी थी.
आधुनिक सभ्य समाज और राष्ट्र के लोग कितने नैतिक है यह इसका एक उदाहरण मात्र है. विषय क्या है? क्या एक भारतीय मूल का व्यक्ति किसी पश्चिमी राष्ट्र का प्रधान नहीं हो सकता? या निक्की का महिला होना ही उनका मुख्य अपराध है. अगर आपत्ति लैंगिक मुद्दे पर आधारित है तो ये अमेरिकी समाज के लिए चिंतनीय विषय होना चाहिए क्योंकि पिछले 250 से अधिक वर्षों की उनकी लोकतान्त्रिक यात्रा में आज तक कोई महिला राष्ट्र-प्रमुख नहीं बन सकी. अमेरिकियों को इतनी प्रगतिशीलता तो इन तथाकथित ‘असभ्य और पिछड़े एशियाइयों से सीख ही लेनी चाहिए. जहाँ श्रीलंका, भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी मुल्क में भी महिलाएं राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री जैसे उच्चतम पदों पर काबिज रहीं हैं.
यह तो समय तय करेगा कि निक्की हेली संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का नेतृत्व करती हैं या लेकिन यह चुनाव अभियान अमेरिका के उन्नत समाज के मानसिकता, नृजातीय भेदभाव और उनके लिंग समानता के दावे का परीक्षण करेगा. निक्की हेली के विरुद्ध कोल्टर का विषवमन कोई उत्तेजना में व्यक्त पूरबी समाज, विशेषकर भारत के गर्हित मानसिक कुंठा मात्र नहीं है बल्कि उस ‘हवाईट मैन बर्डेन’ के उस खोखले सिद्धांत (19वीं सदी) से भी प्रेरित है जिसके आवरण में नस्लीय भेदभाव एवं विभिन्न देशों की संप्रभुताओं को नष्ट करने को संस्थागत रूप प्रदान किया गया.
 इसी परिपेक्ष में म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में अमेरिकी अरबपति जार्ज सोरोस के कथन और उसके द्वारा पैदा विवाद को भी देखा जा सकता है. म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन के दौरान सोरोस ने कहा था कि ‘हिडनबर्ग की अडानी समूह पर रिपोर्ट के साथ ही मोदी सरकार का पतन शुरू हो गया है. भारत एक लोकतांत्रिक देश है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं है. वह तानाशाह हैं और भारत में जल्द ही लोकतांत्रिक परिवर्तन होगा.’ अब सोरोस जैसों की मानें तो इसका यह मतलब है कि अब भारत को लोकतंत्र की परिभाषा पश्चिम सिखाएगा जिसने 50 के दशक के बाद दुनिया भर के तानाशाह को प्रश्रय दिया चाहे वह सऊदी अरब हो या ईरान का पहलवी वंश. जो आज भी ‘वार इकोनॉमी’ को अपनी जीवन रेखा मानता है.
 लोकतंत्र की बात करने वाले ये अमेरिकी आतंक के निर्यातक पाकिस्तान जैसे देशों के संरक्षक मसीहा बने रहें और वह देश दुनिया को जनतंत्र का ज्ञान देना चाहते हैं. भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर का कथन ठीक ही था कि सोरोस उस पूर्वाग्रही और खतरनाक व्यक्ति हैं. उन्होंने कहा कि अमेरिकी अरबपति चाहते हैं कि दुनिया वैसे चले जैसा वह चाहते हैं.
असल में यह व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि पूरे पश्चिमी जगत की मानसिकता है. जो सिद्धांत के लंबे-लंबे भाषण देने के बावजूद खोखला है और उसका यह खोखलापन विभिन्न मौकों पर बाहर भी आता है.  मात्र ब्लैक लाईव्स मैटर की तख्तीयां लहराने से अमेरिकी समाज सभ्य नहीं माना जा सकता. घटना विशेष के लिए ऐसे भावुक उत्तेजना कोई विशेष बात नहीं. अगर पश्चिमी समाज को वास्तव में नैतिक दिखना है तो  उसे पिछले 500 वर्षों से अपने मानसिकता में व्याप्त गोरी जाति के श्रेष्ठता के ‘यूटोपिया’ की अवस्था से उबरने की जरुरत है. अन्यथा ये विकृत कैंसर की तरह ना सिर्फ उसे जकड़े रहेगी बल्कि फैलती भी रहेगी.

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