गाँधी की पंथनिरपेक्षता पर प्रश्नचिन्ह

 

    अक्टूबर माह देश में विशेष रूप से गाँधी जयंती के लिए जाना जाता हैं. पिछले सौ वर्षों से भी अधिक समय से वे देश- विदेश में परिचर्चा का विषय रहें हैं. सिमित शब्दों में कहें तो गाँधी जी अपने युग के प्रवक्ता हैं. हीगेल का अभिमत है कि किसी युग का महापुरुष वह व्यक्ति होता है, जो उस युग की आकांक्षाओं को शब्द दे सके और युग को बता सके कि युग की आकांक्षाएँ क्या हैं तथा उन आकांक्षाओं को कार्यान्वित कर मूर्तरूप दे सके.

   हर व्यक्ति चाहे वो राजनीतिज्ञ हो या इतिहासकार, उन्हें अपने नज़रिये से समझने का प्रयास करता रहा हैं. लेकिन इस दौरान गाँधी जी और उनके दर्शन को चुनिंदा तरीके से प्रस्तुत करने की एक अघोषित परंपरा चल पड़ी है. इसी क्रम में इरफ़ान हबीब की किताब ‘भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और राष्ट्रवाद’ का उदाहरण प्रस्तुत है. अपनी किताब में श्री हबीब गाँधी जी के विषय में लिखतें हैं कि, ‘हिन्द स्वराज में राष्ट्र के प्रति अपने दृष्टिकोण के आधार पर गाँधी जी धर्मनिरपेक्ष नहीं थे.’
किंतु ऐसा नहीं है गाँधी जी हिन्द स्वराज में राष्ट्र के लिए जो नज़रिया प्रस्तुत करतें हैं, वह वास्तव में उनके जीवन दर्शन का ही प्रारूप है जिसे वे ताउम्र दोहराते रहें. सनातन संस्कृति सदैव समन्वयवादी रही है. ऋग्वेद में कहा गया है,
सामानो मंत्र: समिति: समानी समानं मनं सह चित्तमेषामl
समानी व आकृति: समाना ह्रदयानिवःl
समानमस्तु वो मनः यथा वः सुसहासतिl
अर्थात् ” समान मंत्र, समान समिति, समान मन, समान सबकी प्रेरणा, समान सबके ह्रदय, समान सबके मानस, समान सबकी स्थिति……
 गाँधी जी इसी धारा का प्रतिनिधित्व करते रहें हैं. जिसे अपने दृष्टिकोण में हबीब हिंदूवादी समझ बैठे हैं.
   अगर हबीब साहब को ये लगता है कि गाँधी जी पंथनिरपेक्ष नहीं थे तो उन्हें किसी ऐसे मुस्लिम नेता का नाम बताना चाहिए जो राष्ट्रवादी रहा हो लेकिन हिन्दू मांगो चाहे वो सोमनाथ मदिर का निर्माण, रामजन्म भूमि का मामला, गो हत्या निषेध अथवा बटवारे के दौरान हिन्दुओं के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों पर अपने सहधार्मिओ की भावना के विरुद्ध जाकर आमरण अनशन छोड़िये एक दिन का भी आंदोलन किया हो.
   अपने विचारों में अपने धर्म के प्रति आस्था प्रकट करना अलग बात है किन्तु व्यवहार मे गाँधी जी ने पंथनिरपेक्षता के वो मानक स्थापित किये हैं जहाँ अपने सहधार्मियों के धार्मिक हित भी दावं पर लगाने से नहीं हिचकते हैं. बाबा साहेब आंबेडकर अपनी किताब ‘भारत अथवा पाकिस्तान का विभाजन’ में खिलाफत आंदोलन के विषय में लिखतें हैं, गाँधी जी ने ऐसे हिन्दुओं की चिंता नहीं की जो असहयोग आंदोलन में मुस्लिमों का साथ देने के विरोधी थे…. हिन्दू – मुस्लिमों से इस शर्त पर सहयोग करना चाहते थे कि गोहत्या करना छोड़ दें उनसे गाँधीजी ने कहा – ” मेरा निवेदन है कि हिन्दुओं को यहां गोरक्षा का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए. दोस्ती की कसौटी यह होती है कि मुसीबत पड़ने पर सहायता कि जाए और वह भी बिना शर्त……..यद्यपि मैं गाय की पूजा करने में किसी भी हिंदू से कम नहीं हूँ पर सहयोग देने से पूर्व गोहत्या -बंदी की शर्त नहीं लगाना चाहता.” (यंग इंडिया, 10 दिसंबर, 1919)
 
   खिलाफत आंदोलन के दौरान अफगानों को भारतीय मुसलमानों द्वारा भारत पर हमले के लिए आमंत्रित करने के विषय में डॉ. आंबेड़कर लिखते है,……. और अपनी अधीरता में आकर मुस्लिमों ने बिलकुल वही किया जिसकी हिन्दुओं को आशंका थी, अर्थात अफगानों को भारत पर हमला करने का निमंत्रण देना…… स्वराज पाने के भ्रातिपूर्ण उत्साह और हिंदू – मुस्लिम एकता की सनक के कारण, क्योंकि वही उसका एकमात्र तरीका लगता था वह इस परियोजना का समर्थन करने को भी तैयार हो गए. गाँधी जी ने न केवल अमीर को यह सलाह दी कि वे अंग्रेज सरकार से किसी किस्म की संधि न करें बल्कि यह भी घोषणा की- ” अफगानिस्तान का अमीर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध करता है तो एक तरह से मैं उसकी निश्चित रूप से सहायता करूंगा. “( यंग इंडिया, 4 मई 1921)
आगे डॉ आंबेडकर गाँधी के विषय में लिखते हैं, “उन्होंने मुस्लिमों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध घोर अपराध किए जाने पर भी मुसलमानों से उसके कारण नहीं पूछे”. मोपलाओं द्वारा मालाबार में हिन्दुओं पर किये गये वीभत्स अत्याचारों पर बाबा साहेब आंबेडकर लिखतें हैं, ” प्रत्येक व्यक्ति यह जानता था कि हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए जरुरत से ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी थी….. उन्होंने मोपलाओं के कारनामों और बधाई देने वाले खिलाफतवादियों की हरकतों को अनदेखा कर दिया. मोपलाओं के बारे में उन्होंने कहा कि मोपला भगवान से डरने वाले बहादुर लोग हैं और वे इस बात के लिए लड़ रहे हैं जिसे वे धर्म समझते हैं, और उस तरीके से लड़ रहे हैं जिसे वे धार्मिक समझते हैं.”
   ये उदाहरण गाँधी जी की आलोचना करने के लिए नहीं उधृत किये गये हैं बल्कि यह बताने के लिए हैं कि धार्मिक एकता के लिए उनके प्रयास की सीमा कितनी बड़ी थी. आज तक सनातनी समाज का एक बड़ा वर्ग गाँधी जी की इन कोशिशों को व्यापक आलोचना की दृष्टि से देखता है. किसी से अपने लिए रियायतें मांगना, लेना या उम्मीद करना बहुत आसान है, कठिन है किसी की अपेक्षा पूरी करने का माद्दा, किसी की भावनाओं को अपनी भावनाओं पर तरजीह देना, किसी के लिए अपने हित का परित्याग करना, अपने लिए जीवन भर की शिकायतों और आलोचनाओं को मोल लेना, संभवतः हबीब साहब ये नहीं समझ पाये हैं.
ज़ब इतिहासकार अतीत के किसी महापुरुष का मूल्यांकन करता है, तो उसका निर्णय मूल्यसम्पृक्त नैतिक न्याय बन जाता है. तो क्या हबीब साहब अपने  न्याय विधान के अंतर्गत महात्मा गाँधी को एक हिंदूवादी नेता के रूप समाज के सामने चित्रित करना चाहते हैं??
  अन्यत्र वे लिखते हैं कि “पारम्परिक हिंदूवाद से बढ़ती दूरी के बावजूद गाँधीजी ने इस बात पर बल दिया कि वे सनातनी हिंदू थे.” सबसे पहले हिंदू शब्द को परिभाषित करना आवश्यक है. शब्दकल्पद्रुम कोष के अनुसार, “हीनं दूषयति इति हिन्दू:” अर्थात् जो हीनता को स्वीकार न करे, वह हिंदू है. गाँधी जी हिंदू इस अर्थ में हैं कि वे मानवीय हीनता से उबर चुके थे.वास्तव में हिंदू शब्द धार्मिक पहचान के बज़ाय विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है. फ़ारसी भाषा में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता था, अतः सप्त सैन्धव बना ‘हप्त हैंन्दव’ और वहाँ के निवासियों को हिन्दू कहा जाने लगा. इसी के बरअक्स यूनानियों ने ‘ह’ के बजाय ‘अ’ का प्रयोग किया अतः उन्होंने इन्दो का प्रयोग किया. इसी से विकृत शब्द ‘इंडिया’ बना. तुलनात्मक रूप से देखें तो दोनों शब्द समान रूप से भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के लिए प्रयोग किये गये हैं. लेकिन अगर हिन्दू शब्द को पारम्परिक अर्थ में ही लिया जाए तब भी गाँधी जी अपने जीवन के किसी भी मोड़ पर धार्मिक आग्रह नहीं रखते. इसके विपरीत सत्य ये है कि उन्होंने सदैव धार्मिक एकता के लिए हिन्दू हितो का त्याग किया और हिंदू समाज से भी निरंतर त्याग की मांग की है.
  आगे हबीब साहब लिखतें गाँधी जी के बारे में लिखतें हैं, ” उन्होंने हिंदू धर्म को कुछ सहिष्णुता का भी श्रेय दिया जो शायद उसके इतिहास में उसके पास मौजूद नहीं था. इस प्रकार गाँधी ने हिन्दू धर्म को एक अधिक सहिष्णु धर्म बनाने का प्रयास किया.” इस पूरी किताब में इससे अधिक हास्यास्पद और छिछला तर्क दूसरा नहीं मिलेगा. इससे एक सम्मानित इतिहासकार की कुंठा ही प्रकट होती हैं. हालांकि ये तो कुछ भी नहीं, स्वनाम धन्य एक महिला इतिहासकार तो भारत में इस्लाम के आगमन से पूर्व हिंदू धर्म के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करतीं.
  रही बात सहिष्णुता कि तो एक सामान्य सा तर्क है कि भारत ने संकट काल में दुनिया के हर मजहब को शरण दी है. राष्ट्रकूट सम्राटों ने मुसलमानों को अपने राज्य में बसने, मस्जिदें बनवाने और इस्लाम के प्रचार की अनुमति दे रखीं थी. इस्लाम से आक्रांत पारसी धर्म को कोंकण के शिलाहार राजाओं ने शरण दी. यही नहीं ज़ब मंगोलो ने एशिया को रौदना शुरू किया तो वहाँ से भागकर आने वाले मुसलमानों की शरणस्थली भी भारत ही बना. फिर उसके बाद इन्हीं शरणार्थीयों के द्वारा देश ने धार्मिक अत्याचार और ध्वँस झेले. तब गाँधी जी पैदा भी नहीं हुए थे. जो सनातनी समाज को सहिष्णुता सिखाते. वास्तव में ये शरारतपूर्ण होने के साथ ही भारत के धार्मिक  बहुसंख्यक समाज उकसाने की कोशिश ही अधिक लगती है.
  इरफान साहब को किसी ऐसी घटना का भी उल्लेख करना चाहिए ज़ब सनातनी धर्मावलंबी राजा या सम्राट ने किसी इस्लामी क्षेत्र पर हमला करके व्यापक तौर पर नरसंहार, बलात्कार, धार्मिक स्थलों का ध्वंस, या धर्मान्तरण कराया हो. वैसे ये चुनिंदा तर्क और धार्मिक पूर्वाग्रह वामपंथी इतिहासकारों के लिए कोई नई बात नहीं. हबीब साहब कोई पहली बार ये नहीं कर रहें हैं वे एक विशेष परंपरा के पोषक हैं.. मध्यकालीन इतिहासकार ख़फ़ी खान जो शिवाजी महाराज का कटु आलोचक है, उनकी धार्मिक नीति का प्रशंसक है. ये प्रशंसा इसलिए की वे विजित क्षेत्र के मुसलमानो के प्रति अत्याचार की नीति नहीं अपनाते, किन्तु औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर किए जाने वाले अत्याचार पर ख़फ़ी खान अपने घटिया धार्मिक मनोभावों से उबर ही नहीं पाता, और अत्यंत निर्लज़्ज़ता से कट्टरपंथ का औचित्य साबित करता है.
  अन्यत्र कराची प्रस्ताव के सम्बन्ध में हबीब साहब लिखतें हैं, “जहाँ तक गाँधी ने इसे कांग्रेस के कार्यक्रम का हिस्सा होने की अनुमति दी, कांग्रेस को एक वामपंथी दिशा प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान का श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए.” इसमें भी कोई नई बात नहीं हैं. कम्युनिस्टों का ये पुराना पैतरा हैं वो हर प्रसिद्ध व्यक्ति को वामपंथ से प्रेरित बताने लगते हैं, चाहे वे छत्रपति शिवाजी हों या मुंशी प्रेमचंद. लेकिन गाँधी जी की वामपंथ के प्रति अरुचि जग जाहिर है. हबीब साहब ने गाँधी जी का प्रयोग बड़े चुनिंदा तरीके से किया हैं. गाँधी जी द्वारा विभाजन के दौरान मुस्लिमों की हत्यायों और उनके पलायन को रोकने की कोशिशों पर प्रसन्नता जाहिर करते हैं. पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलाने को हबीब साहब गाँधी जी का ‘सबसे उत्कृष्ट कृत्य’ मानते हैं. साथ ही मुस्लिम मांगो को ज्यादा से ज्यादा रियायत दिलाने के लिए भी तारीफ करतें हैं.
  कराची में गाँधी जी ने कहा था, ” मैं चाहता हूँ कि आप मेरी मनोवृत्ति को परखें. “(26 मार्च 1931) वास्तव में यह उनका एक सन्देश हैं जो हर व्यक्ति के लिए अनुकरणीय हैं. इस देश में राजनीति हो या इतिहास लेखन, जीवन के हर क्षेत्र में गाँधी जी और उनके विचारों का प्रयोग बड़ी आसानी से अपनी सुविधानुसार करने की परंपरा रही है. ये उसी मानसिकता का पोषण हैं जिसमे महापुरुषों का विभाजन राजनीतिक, सामाजिक सुविधानुसार किया जाता रहा है. यह बड़ी असभ्य सी परंपरा बन गयी हैं कि जहाँ तक कोई महापुरुष अपने एजेंडे में फिट लगे तब तक उसे स्वीकार करो, फिर आगे उसे हिंदूवादी बता दो. इस देश में एक बौद्धिक वर्ग हमेशा से विद्यमान रहा है जो विभाजनकारी मानसिकता से पीड़ित है. डॉ लोहिया ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लिखते हैं कि, ” इससे लगता कि यह जैसे इतिहास का नियम हो कि समीपता के काम छोटी जाति व अर्द्धशिक्षित लोगों ने ही किये और पृथकता का काम शासकों तथा अधिक शिक्षित उच्च जाति के लोगों ने.” यह कथन वर्तमान प्रबुद्ध वामपंथी बिरादरी के लिए उचित लगता है.
  इतिहास या किसी महापुरुष के व्यक्तित्व के ऐसे जहरीले विश्लेषण का सबसे बड़ा दुष्परिणाम ये होता है कि सामाजिक समन्वय कि कोशिशे वर्षों पीछे धकेल दी जाती है और धार्मिक कटुता की लकीर और दृढ़ होती जाती है. विभाजन के 70 सालों बाद भी देश में एक धार्मिक तनाव मौजूद रहा है, जिसे धीरे धीरे मिटाने का प्रयास होता रहा है. किन्तु जब तक ऐसी मानसिकता रहेगी तब तक धार्मिक विद्वेष की खाई नहीं पाटी जा सकती चाहे जितने भी प्रयास होते रहें. दुष्यंत कुमार लिखते हैं,
‘एक तालाब सी भर जाती है हर बारिश में,
मै समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली l’
   
  1930 ई. में यरवदा जेल से लिखे पत्र में गाँधी जी लिखतें हैं कि, “सभी तरह आस्थाएँ सत्य के प्रकटीकरण की रचना करती हैं. लेकिन सभी अपूर्ण हैं और इनमें गलती करने की गुंजाइश है. दूसरे की आस्थाओं के सम्मान का मतलब यह नहीं कि हम उनकी गलतियों पर ध्यान नहीं दें.”  जब भी इतिहासकार अतीत के प्रस्तुतीकरण में किसी प्रकार के पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण का सहारा लेता है तो इसे प्रतिमान लेखन कहा जाता है. यह इतिहास और इतिहासकार का दोष होता है, गुण नहीं. इतिहासकार वो माध्यम हैं जो वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों को उनके अतीत के हर पहलू से अवगत कराता हैं तथा राष्ट्र और समाज को दिशा देता है. इतिहास का दुराग्रहपूर्ण विश्लेषण समाज को संघर्ष की ओर ले जाएगा जिसका प्रतिफल अंततः ध्वँस होगा.

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