गहरे खोजी थे प्रो. मैनेजर पांडे – रामबहादुर राय

प्रो.मैनेजर पांडे की लोकप्रियता का आकाश अनंत है। इसे अब उनके निधन के बाद अनुभव किया जा रहा है। वे अपने छात्रों में लोकप्रिय थे। क्योंकि वे ऐसे प्रोफेसर थे जिन्‍होंने अपने अध्‍यवसाय से छात्रों के बीच नैतिक अधिकार के बल पर लोकप्रियता अर्जित की थी। डॉ. नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के साथ जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय के हिन्दी विभाग को जो ख्याति मिली उसमें प्रो. मैनेजर पांडे का योगदान अब बार-बार याद किया जाएगा। वे साहित्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति को उसका सबसे बड़ा मूल्य मानने वाले आलोचक रहे हैं। उन्होंने हिन्दी आलोचना के इतिहास में नामवर सिंह और डॉ. रामविलास शर्मा की परंपरा को बढ़ाया। उसमें नए आयाम जोड़े। उसे साहित्य की यथार्थवादी परंपरा के रूप में जाना जाता है।
वे एक प्रखर बौद्धिक व्यक्ति थे। उनसे आयु में दस साल बड़े विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने उन्हें एक कुशल वक्ता के रूप में याद किया। उनके छात्र अपने संस्मरणों से उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए जिस आदरभाव से उन्हें याद कर रहे हैं, यह दुर्लभ बात लगती है। पांडे जी ने साहित्य के सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों ही आलोचना क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। 1986 में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक ‘शब्द और कर्म’ में यह स्थापना है कि सिर्फ शब्द सृजन ही काफी नहीं है बल्कि उसके अर्थ के अनुरूप सामाजिक कर्म और सक्रियता भी जरूरी है। तभी साहित्य सृजन का उद्देश्‍य पूरा होगा। इस विचार ने उन्हें साहित्य की समाजशास्‍त्रीय आलोचना का सैद्धांतिक पक्ष सामने लाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने साहित्य के समाजशास्‍त्र पर हिन्दी में पहली पुस्तक लिखी। जो 1989 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का नाम है-‘साहित्य के समाजशास्‍त्र की भूमिका’। जे.एन.यू. में अपने छात्रों को वे ‘साहित्य का समाजशास्‍त्र’ पढ़ाते भी थे।
यह कार्य वह प्रोफेसर नहीं कर सकता जो सिर्फ अपनी दुनिया साहित्य की सीमा में ही बनाता हो और उसमें कैद रहता हो। इसके विपरीत थे, प्रो. मैनेजर पांडे। उन्होंने साहित्य के अलावा विद्या के दूसरे अनुशासनों से भी अपना गहरा नाता बनाया। यही उनकी विशेषता थी। वे विचार में भी निरंतर एक प्रवाह बनाए रखते थे। वे सैद्धांतिक आलोचना के माने-जाने नाम तो थे ही, उनके लेखन पर निगाह डालें तो कह सकते हैं कि वे दर्शन, इतिहास, राजनीति और समाजशास्‍त्र के गहरे अध्येता थे। इसीलिए साहित्य का समाजशास्‍त्र इसी विस्तृत और अंत:अनुशासनात्मक दृष्टि से भरपूर पुस्तक है। इसका नया संस्करण कुछ साल पहले आया। उसका शीर्षक भी नया है, साहित्य और समाजशास्‍त्रीय दृष्टि। यह कार्य मैनेजर पांडे जी ही कर सकते थे।
साहित्य के समाजशास्‍त्रीय आलोचना के बाद उनका दूसरा सबसे बड़ा योगदान साहित्य के इतिहास लेखन की पद्धति विकसित करने से जुड़ा हुआ है। नामवर जी के संपादन में निकलने वाली ‘आलोचना’ में उन्होंने साहित्य के इतिहास लेखन की इतिहास दृष्टि पर अनेक लेख लिखे। इसे आलोचना के पुराने अंकों में देखा जा सकता है। साहित्य की इतिहास दृष्टि से संबंधित उनके लेखन का संकलन है-‘साहित्य और इतिहास दृष्टि।’ वे विचारधाराओं और सिद्धांतों के आलोचक थे और उससे थोड़ा भिन्न भी थे। उन्होंने साहित्यिक विद्वानों, सिद्धांतों और चिंतकों की गंभीर समीक्षा का कार्य किया है। इसे एक प्रसंग से समझा जा सकता है। एक गोष्‍ठी में वे बोल रहे थे, जहां उन्होंने कहा कि विचार अनुभव से पैदा होता है। भारत में वैचारिक ग्रंथ जो भी हैं वे अनुभव से लिखे गए हैं। भारतीय विचारधारा इतने लंबे समय से चल रही है, इसका आधार भी अनुभव का प्रवाह ही है। इस पर वहां उपस्थित विद्वानों ने जो टिप्पणी की, वह उनकी इस अवधाराणा पर सहमति थी।
इस तरह उन्होंने साहित्य में संवेदना और अनुभव का एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। आधुनिक समय के साहित्य सृजन पर चिंतन के साथ ही पांडे जी ने मध्यकाल के साहित्य को भी मौलिक ढंग से देखने की कोशि‍श की है। पी.एच.डी. का उनके शोध प्रबंध का विषय-‘भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य’ था। इसमें उन्होंने भक्ति काव्य को एक जन आंदोलन की तरह देखने की कोशिश की है। इसके अलावा पांडे जी की अन्य पुस्तकें हैं-आलोचना की सामाजिकता, उपन्यास और लोकतंत्र, भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा। उन्होंने यह खोजवाया और इसमें सफलता भी पाई कि कुछ मुगल बादशाह हिंदी में कविता रचते थे। जैसे-जहांगीर। वे इन दिनों ‘दारा शिकोह’ पर कार्य कर रहे थे। मिलने-जुलने वालों को बताते थे कि पुस्तक पूरी हो गई है। लेकिन उनके जीवनकाल में वह प्रकाशित नहीं हो सकी। संभवत: देर-सबेर वह छपे। उस समय लोग-बाग दारा शिकोह के बारे में कुछ नया जान सकेंगे। यह भी अनुभव कर सकेंगे कि प्रो. मैनेजर पांडे थे कुछ गहरे खोजी।
वे अपनी मौजूदगी से गोष्ठियों को जीवंत बना देते थे। याद आता है, एक बार एक गोष्ठी में नामवर सिंह जी और प्रभाष जोशी जी भी मंच पर थे। उसमें पांडे जी ने कहा था कि भक्तिकाल से आज तक प्रतिरोध का साहित्य ही श्रेष्‍ठ साहित्य माना गया है। इस सिलसिले में प्रभाष जी ने कबीर का नाम लिया था। नामवर जी ने नागार्जुन का उदाहरण दिया था तो पांडे जी ने तुरंत कहा कि यही साहित्य की दूसरी परंपरा है। इसके अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं। बहुअर्थी व्यक्तित्व के वे प्रोफेसर थे। जो बातें मैंने यहां अब तक लिखवाई हैं, उससे ज्यादा उनके छात्र शोक सभाओं में बता रहे हैं। एक शोक सभा में करीब डेढ़ घंटे रहने का अवसर पिछले दिनों मुझे मिला।
वहां जिसका उल्लेख नहीं हुआ वह मेरी समझ से अज्ञात सा है और उनके छात्र भी संभवत: इनसे अनभिज्ञ भी हैं। यहां दो बातें बताना जरूरी है। पहली यह कि अगर मैनेजर पांडे ने ठान न लिया होता तो ‘देश की बात’ इतिहास के अंधेरे में खो जाती। इस पुस्तक का गर्व करने लायक इतिहास है। मराठी भाषी सखाराम गणेश देउस्कर ने बंगला में ‘देशेर कथा’ लिखी थी। वह पहली बार 1904 में छपी। बहुत लोकप्रिय हुई। बंग-भंग आंदोलन का वह सशक्त उपकरण बना। उसका अनुवाद है, ‘देश की बात।’ इस पुस्तक का सौ साल पूरा हो रहा था। तब पांडे जी एक दिन नेशनल बुक ट्रस्ट पहुंचे। वहां संपादक से कहा कि इसे पुन: छापना चाहिए। यह बहुत कीमती पुस्तक है। उनका ही प्रयास था कि यह पुस्तक हिन्दी पाठकों के लिए उपलब्ध है।
नेशनल बुक ट्रस्ट ने भारतीय साहित्य निधि की श्रृंखला में इसे प्रकाशित किया। जिसकी लंबी भूमिका और पुनर्प्रस्तुति मैनेजर पांडे ने की। जिसमें अपनी भूमिका का उन्होंने शीर्षक दिया-‘एक आंदोलनकारी किताब की कहानी।’ उनकी भूमिका से पाठक को पता चलता है कि ‘देश की बात’ बांगला में लिखी सखाराम गणेश देउस्कर की किताब ‘देशेर कथा’ का हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक हैं हिन्दी के यशस्वी पत्रकार बाबू राव विष्‍णु पराड़कर।’ इस पुस्तक का महत्व क्या था? इसने कितना चमत्कारिक प्रभाव डाला, इसे प्रामाणिक रूप से मैनेजर पांडे ने अपनी भूमिका में बताया। यह जानकारी दी कि ‘बरीसाल के वीर स्वदेश हितैषी बाबू अश्विनी कुमार दत्त ने अपनी कालीघाट वाली वक्तृता में कहा था कि इतने दिनों तक सरस्वती की आराधना करने पर भी बंगालियों को मातृभाषा में वैसा उपयोगी ग्रंथ लिखना न आया जैसा एक परिणामदर्शी महाराष्‍ट्र युवा ने लिख दिखाया। बंगालियों, इस ग्रंथ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्‍य पर विचार करो।’
ब्रिटिश उपनिवेशवाद की लूट और बर्बरता को समझाने वाली यह पहली पुस्तक है। यह उतनी ही प्रासंगिक आज भी है, जितनी प्रेरक तब थी। इस दृष्टि से देखें तो प्रो. मैनेजर पांडे के साहित्येत्तर कार्यों का आंकलन अभी होना बाकी है। इसी तरह का दूसरा उदाहरण है, वह ग्रंथ जो भुला दिया गया था। वह है-‘महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ।’ यह ग्रंथ 1933 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुआ था। नेशनल बुक ट्रस्ट ने इसे पुन: 2015 में प्रकाशित किया। इसकी एक कहानी है। रायबरेली के एक साहित्यकार रमाशंकर अग्निहोत्री ने अपनी ओर से पुराने ग्रंथ की एक प्रति आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्‍ट्रीय स्मारक समिति के कर्ताधर्ता गौरव अवस्थी को दिया। उनके प्रयास से इसका पुन: प्रकाशन हो सका। जिसमें मैनेजर पांडे ने ग्रंथ का महत्व बताते हुए इसका वह पक्ष सामने रखा जो लगभग अज्ञात था। 1933 के ग्रंथ में प्रस्तावना में दो नाम हैं, श्‍याम सुंदर दास और कृष्‍ण दास। क्या इन लोगों ने अपना नाम यूं ही छपवा दिया? यह अलग शोध का विषय है। मैनेजर पांडे का मत है कि प्रस्तावना नंद दुलारे वाजपेयी ने लिखी थी।
यह तो सभी जानते हैं कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में सरस्वती पत्रिका निकलती थी। वह उस युग की ऐसी पत्रिका थी जिसमें विद्या की सभी धाराएं अपना प्रतिनिधित्व पाती थी। उसमें साहित्य, अर्थशास्‍त्र, भाषाशास्‍त्र, इतिहास, पुरातत्व, जीवनी, दर्शन, समाजशास्‍त्र, विज्ञान आदि पर नवीनतम लेख होते थे। इस अभिनंदन ग्रंथ से सरस्वती पत्रिका की एक झलक मिलती है। यह 568 पन्नों में बड़े आकार का ग्रंथ है। जिसके बारे में मैनेजर पांडे ने लिखा है कि ‘इसके निबंध ज्ञान राशि के संचित कोश होने के कारण आज भी पठनीय और मननीय हैं।’

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