प्रार्थना के अर्थ और आवश्यकता

मुझे खुशी है कि आप सब लोग चाहते हैं कि मैं प्रार्थना के अर्थ और उसकी आवश्यकता के बारे में कुछ कहूं। मैं मानता हूं कि प्रार्थना धर्म का प्राण है और सार है। इसलिए प्रार्थना मनुष्य के जीवन का मर्म होनी चाहिए, क्योंकि कोई आदमी धर्म के बिना जी ही नहीं सकता। कुछ लोग हैं जो अपनी बुद्धि के अहंकार में कह देते हैं कि उन्हें धर्म से कोई सरोकार नहीं। मगर यह तो ऐसा ही है जैसे कोई मनुष्य कहे कि वह सांस तो लेता है मगर उसकी नाक नहीं है। बुद्धि से कहिए या स्वभाव से अथवा अंध-विश्वास से कहिए, मनुष्य दिव्य तत्व से अपना  कुछ-न-कुछ नाता स्वीकार करता ही है।

घोर-से-घोर नास्तिक या अनीश्वरवादी भी किसी नैतिक सिद्धांत की आवश्यकता को मानता है और उसके पालन में कुछ-न-कुछ भलाई और उसका पालन न करने में बुराई समझता है। ब्रैडला, जिनकी नास्तिकता मशहूर है, सदा अपने आंतरिक दृढ़ विश्वास को घोषित करने का आग्रह रखते थे। उन्हें इस प्रकार सच कहने के कारण अनेक कष्ट उठाने पड़े, परंतु इसमें उन्हें आनंद आता था। वे कहते थे कि सत्य स्वयं अपना पुरस्कार है। उन्हें सत्य का पालन करने से होने वाले आनंद का बिल्कुल भान न हो, ऐसा नहीं था, परंतु यह आनंद सांसारिक बिल्कुल नहीं होता। यह ईश्वर के साथ अपने संबंध की अनुभूति से पैदा होता है। इसलिए मैंने कहा कि जो आदमी धर्म को नहीं मानता, वह भी धर्म के बिना नहीं रह सकता और नहीं रहता।

अब मैं दूसरी बात पर अता हूं। वह यह है कि प्रार्थना जैसे धर्म का सबसे मार्मिक अंग है, वैसे ही मानव-जीवन का भी। प्रार्थना या तो याचना-रूप होती है या व्यापक अर्थ में वह ईश्वर से, भीतर लौ लगाना होती है। दोनों ही सूरतों में अंतिम परिणाम एक ही होता है। जब वह याचना के रूप में हो तब भी वह याचना, आत्मा की सफाई और शुद्धि के लिए, उसके चारों ओर लिपटे हुए अज्ञान और अंधकार के आवरणों को हटाने के लिए होनी चाहिए। इसलिए जो अपने भीतर दिव्य ज्योति जगाने को तड़प रहा हो, उसे प्रार्थना का आसरा लेना चाहिए। परंतु प्रार्थना शब्दों या कानों का व्यायाम-मात्र नहीं है, खाली मंत्र जाप नहीं है। आप कितना ही राम नाम जपिए, अगर उससे आत्मा में भाव-संचार नहीं होता तो वह व्यर्थ है।

प्रार्थना में शब्दहीन हुदय, हृदयहीन शब्दों से अच्छा होता है। प्रार्थना स्पष्ट रूप से आत्मा की व्याकुलता की प्रतिक्रिया होनी चाहिए। जैसे कोई भूखा आदमी मनचाहा भोजन पाकर सुख का अनुभव करता है, ठीक वैसे ही भूखी आत्मा को हार्दिक प्रार्थना में आनंद आता है। यह मैं अपने और साथियों के यत्किंचित अनुभव के आधार पर कहता हूं कि जिसे प्रार्थना की जादू की प्रतीति हुई है, वह लगातार कई दिन तक आहार के बिना तो रह सकता है, परंतु प्रार्थना के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। कारण, प्रार्थना के बिना भीतरी शांति नहीं मिलती।

कोई कहेगा कि अगर यह बात है तो हमें अपने जीवन के हर क्षण में, प्रार्थना करते रहना चाहिए। निस्संदेह बात यही है; परंतु हम तो भूल में पड़े हुए प्राणी हैं, एक क्षण के लिए भी भगवान से भीतर लौ लगाने के लिए बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुख होना हमें कठिन जान पड़ता है। तब हर क्षण ईश्वर से लौ लगाए रखना तो हमारे लिए असंभव ही होगा। इसलिए हम कुछ समय नियत करके, उस समय थोड़ी देर के लिए, सांसारिक मोहों को छोड़ देने का गंभीर प्रयत्न करते हैं, या कहिए कि इंद्रियातीत रहने की दिली कोशिश करते हैं। आपने सूरदास का भजन सुना है। यह ईश्वर से मिलने के लिए भूखी आत्मा की करूण पुकार है। हमारे पैमाने से वे एक संत थे, परंतु उनके अपने पैमाने से वे घोर पापी थे। आध्यात्मिक दृष्टि से वे हमसे मीलों आगे थे, परंतु उन्हें ईश्वर वियोग की पीड़ा की इतनी ज्यादा अनुभूति थी कि उन्होंने आत्मग्लानि और निराशा के स्वर में अपनी पीड़ा इस तरह व्यक्त की।

मैंने प्रार्थना की आवश्यकता की बात कही है और उसके द्वारा प्रार्थना के सार पर भी प्रकाश डाला है। हमारा जन्म अपने मानव बंधुओं की सेवा के लिए हुआ है और यदि हम पूरी तरह से जाग्रत न रहें तो यह काम हम अच्छी तरह नहीं कर सकते। मनुष्य के हृदय में, अंधकार और प्रकाश की शक्तियों में, सतत संघर्ष होता रहता है। अतः जिसके पास प्रार्थना की डोर का सहारा नहीं है, वह अंधकार की शक्तियों का शिकार हो जाएगा।

प्रार्थना करने वाला आदमी अपने मन में शांति का अनुभव करेगा और संसार के साथ भी उसका संबंध शांति का होगा। जो मनुष्य प्रार्थनापूर्ण हृदय के बिना सांसारिक कर्म करेगा, वह स्वयं भी दुःखी रहेगा और संसार को भी दुखी करेगा। इसलिए मनुष्य की मरणोत्तर स्थिति पर प्रार्थना का जो प्रभाव होता है, उसके सिवा भी प्रार्थना का मनुष्य के पार्थिव जीवन में असीम महत्व है। हमारे दैनिक कार्यों में व्यवस्था, शांति और स्थिरता लाने का एकमात्र उपाए प्रार्थना है। आश्रम के अंतेवासी हम लोग सत्य की खोज में और सत्य पर जोर देने के लिए यहां आए और हमने प्रार्थना की क्षमता में विश्वास करने की बता कही, लेकिन अभी तक प्रार्थना को परमावश्यक विशय नहीं बनाया है। हम अन्य मामलों पर जितना ध्यान देते हैं, उतना इस पर नहीं देते। एक दिन मेरी निद्रा भंग हुई और मैंने अनुभव किया कि इस मामले में, अपने कर्त्तव्य के प्रति, मैं बहुत ही लापरवाह रहा हूं। इसलिए मैंने कठोर अनुशासन के साधनों का सुझाव दिया है और आशा है कि हम बिगड़ने के बजाए सुधरेंगे ही।

(17 जनवरी, 1930 या उससे पूर्व साबरमती आश्रम की प्रार्थना सभा में)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *