सांस्कृतिक सूर्य का तूर्यनाद

उमेश सिंह

भारत की सांस्कृतिक विरासत को वैभवपूर्ण बनाने की परंपरा में अयोध्या से निकले वनवासी श्रीराम की यात्रा मील का पत्थर है। १४ साल की यात्रा के दौरान वनवासी श्रीराम ने अयोध्या की संस्कृति को विभिन्न संस्कृतियों,संस्कारों और विचित्रता के साथ आपस में समन्वय कर स्थापित कर दिया। उन्होंने समाज की विभिन्न जातियों, समुदायों, कुनबों, परंपराओं और संस्कृतियों को जोडक़र विविधता में एकता के नए मानदंड स्थापित किया। श्रीराम के कार्य सामाजिक एकता को एक मजबूत डोर में बांधते हैं।

वनवास के लगभग १३ साल की अवधि को उन्होंने भारत के उन क्षेत्रों में व्यतीत किया, जहां आदिवासी, गिरिवासी और समाज के सबसे दबे-कुचले पीडि़त और अंतिम पात के लोग निवास करते थे। दस साल तक वह ऋषि, मुनियों की सघनता वाले दंडकारण्य में भ्रमण करते रहे। दंडकारण्य प्रदेश के रूप में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि के विभिन्न क्षेत्र शामिल थे। वनवास काल में उन्होंने न केवल समाज के अति पिछड़े लोगों के मन से भय निकालने का काम किया बल्कि उन्हें एक दूसरे की सांस्कृतिक चेतना से जोडऩे की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और समाज की सांस्कृतिक विरासत को मजबूत किया। श्रीराम ने अपने आदर्शों और कर्तव्यों के जरिए एक वृहत्तर भारत का दर्शन कराया। साथ ही समाज की अंतरधारा को धर्म के साथ संस्कृति से जोडक़र एक नए सांस्कृतिक वैचारिक चिंतन की ओर अग्रसर किया। यह सांस्कृतिक विरासत अयोध्या की संस्कृति से प्रभावित रही। 

दंडकारण्य के क्षेत्र में पडऩे वाले प्रदेशों में उस समय एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना करना भी आसान नहीं है। बावजूद इसके समाज को एक सूत्र में पिरोकर अन्याय के खिलाफ लडऩे के लिए मानसिक रूप से तैयार करने के लिए श्रीराम ने यह असंभव कार्य भी किया। 

वनवासी जीवन में श्रीराम के साथ उनकी अयोध्या भी सतत् चलती रही। अयोध्या की यह उपस्थिति मानव रूप में श्रीराम के साथ धर्म, मानवीय संस्कार, लोक कल्याण, आपसी प्रेम, समाज को एक सूत्र में पिरोने, पारिवारिक एवं सामाजिक मर्यादा, गुरु के प्रति प्रेम और समर्पण, समाज के अति पिछड़े वनवासी, गिरिवासियों के प्रति प्रेम, पूर्वजों के प्रति सम्मान, उनके आदर्शों की प्रेरणा जैसे अन्य मानवीय मूल्यों के रूप में रही। इसकी शुरूआत अयोध्या से निकलने के साथ ही हो गई थी। निषाद राज के प्रति मित्रवत प्रेम इसकी अनूठी मिसाल है। महर्षि भारद्वाज से श्रीराम केमिलन के साथ शुरू हुई ऋषियों, मुनियों के प्रति उनका प्रेम, वनवास व वनवास के बाद हर समय दिखता है। अयोध्या वनवासी श्रीराम के साथ दंडकारण्य के विभिन्न स्थलों और रामेश्वरम तक समान नाम वाले तीर्थों के रूप में भी मिलती हैं, जिनका उद्भव अयोध्या और उसकी परिधि में कहीं न कहीं न कहीं हो चुका था। वह ऋषियों-मुनियों की तपस्थलियों और कुंडों के रूप में दिखाई पड़ती है। श्रीराम की यात्रा से एक बात साफ दिखाई पड़ती है। रामावतार के लिए अयोध्या और उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा सृजन करने वाले ऋषि, महर्षि, मुनि, साधक, सन्यासी और तपस्वियों के नाम वाले तमाम ऊर्जा केंद्र श्रीराम के वनवास के दौरान भ्रमण क्षेत्रों में रहे और जो आज भी मिलते हैं। इन ऊर्जा केंद्रों के कालखंड स्पष्ट नहीं हो पाते लेकिन धर्म, संस्कृति, संस्कार की स्थापना और रक्ष संस्कृति के विनाश के लिए यह ऋषि, मुनि, तपस्वी, देवी-देवता उनके साथ या उनसे पहले आगे बढ़ते गए। समय-समय पर मानव रूप में वनवासी श्रीराम का न केवल इस काम के लिए मार्गदर्शन किया बल्कि अपनी ऊर्जा से उत्पन्न अनेकों तत्समय के महान अस्त्रों को भी उन्हें प्रदान किया। इस तरह वनवासी श्रीराम के १४ साल के वन क्षेत्रों में भ्रमण और राम-रावण युद्ध पर विहंगम दृष्टिपात साफ करता है कि अयोध्या, भारत के साथ ही श्रीराम की अवरा शक्ति को लेकर श्रीलंका तक पहुंच गई। वनवास के पहले अयोध्या के राजकुमार के रूप में श्रीराम ने अयोध्या की संस्कृति को नेपाल के हिस्सों तक बिखेर दिया था। 

भारत के भूगोल की देह ऐसी है, जिस पर कदम दर कदम ऋषियों ने महनीय हस्ताक्षर किए हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जैसा जननायक अयोध्या से श्रीलंका के बीच जहां भी चले, ठहरे वहीं राम की अवरा शक्ति ने सशक्त हस्ताक्षर कर दिए। तत्समय की समय की शिलाओं पर उनके जो हस्ताक्षर है, वे इतने गाढ़े है कि मिट नहीं सकते। अब ऐसे हस्ताक्षरित स्थलों की ओर आगे बढ़ते हैं, जो जनश्रुति में मान्यता प्राप्त है, धर्म साहित्य में वर्णन है। इन स्थलों के प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा आज भी प्रवाहित हो रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *