अहिंसा की शक्ति

मैं एक सज्जन द्वारा लिखे गए गुजराती पत्र का नीचे अनुवाद दे रहा हूंः

हिन्दुस्तान को दुनिया के लोकमत की नगण्य सहायता मिली है, जिस पर भी गांधीजी उसे पूरी-पूरी सहायता क्यों कहते हैं? निःशस्त्र शक्ति द्वारा लड़ने वाले राष्ट्र की दश्शा एक स्त्री की सी है। उसे शास्त्रधारियों ने जिस लाठी-प्रहार आदि द्वारा अनेक प्रकार से, अनेक जगहों में जगरूकतापूर्वक सताया है, यह देखकर दुनिया में जैसा पुण्य प्रकोप प्रज्वलित होना चाहिए था, वैसा कहां हुआ है? इस प्रकोप के अभाव का अर्थ तो मानवता का अभाव है। यदि दुनिया आम तौर से मानवता के अभाव का परिचय दे, तो सत्य के शस्त्र की विजय कैसे होगी? यदि सत्य और अहिंसा की विजय होनी है, तो निःशस्त्र भारतीय जनता का खून बहते देख दुनिया का खून जैसा खौलना चाहिए, वैसा नहीं खौला है। गांधीजी इस बात को इसी रूप में क्यों नहीं देखते?

दुनिया से पूरी-पूरी सहायता या समर्थन मिलने की बात मैंने कहीं भी कही हो, तो उसे अनजाने की गई, अतिशयोक्ति समझना चाहिए। यदि मैंने ऐसी कोई बात कही हो, तो वह मुझे बताई जानी चाहिए। मुझे तो इसकी कोई याद ही नहीं पड़ती।

ब्रिटिश सैनिक सत्ता के विरूद्ध लड़ने वाले निःशस्त्र राष्ट्र की तुलना, किसी बदमाश के सामने खड़ी निस्सहाय स्त्री की दशा से, करके लेखक ने अहिंसा और स्त्री शक्ति की अवगणना की है। यदि पुरूष-वर्ग ने स्त्रियों को निःसत्व न कर डाला होता, अथवा स्त्री भोग में फंसकर पुरूष के अधीन न हुई होती, तो वह अपनी अनंत शक्ति संसार को दिखा सकती थी। गत युद्ध में उसने अपनी शक्ति की थोड़ी और अपूर्ण झांकी कराई है। जब वे भी पुरूषों के बराबर सेवा कार्य के लिए अवकाश प्राप्त कर लेंगी, अपनी संघ-शक्ति बढ़ा लेंगी, तब इस देश को और जगत को उनकी अद्भुत शक्ति के दर्शन होंगे।

जिसके हाथ में अहिंसा रूपीश् शस्त्र है, वह निःशस्त्र है; यह कहना भी ठीक नहीं। स्पष्टतः लेखक अहिंसा के सही उपयोग को नहीं जानता और न उसने उसकी असीम शक्ति को ही पहचाना है। यदि उसने उसका प्रयोग किया भी है तो यंत्रवत किया है। किसी और अच्छे साधन के अभाव में, उसने काम भर चलाया है। यदि उसका मन अहिंसा की भावना से ओत-प्रोत होता तो वह निश्चय ही जान लेता कि हिंस्र पशु तक को वशीभूत किया जा सकता है; हिंस्र मनुष्य को तो निश्चय ही।

इसलिए यदि पिछले वर्ष के अत्याचारों से दुनिया का खून नहीं खौल उठा तो इसका कारण दुनिया का अन्यायी या हृदयहीन होना नहीं है; बल्कि उसका कारण यह है कि हमारी अहिंसा व्यापक और हमारे उद्देश्य के लिए अच्छी भले ही थी, तो भी वह शक्तिशाली और कुशल लोगों की अहिंसा नहीं थी। वह जीवंत विश्वास से प्रेरित न होकर सिर्फ एक नीति थी, एक अस्थाई साधन थी। हमने अपने ऊपर होने वाले प्रहारों के विरोध में, हाथ भले नहीं उठाया; किंतु हमने मन में क्रोध तो किया। हमारी भाषा और उससे भी बढ़कर हमारे विचार हिंसा से मुक्त नहीं थे। सामान्यतः हम हिंसापूर्ण कार्यों से दूर रहे; क्योंकि हम अनुशासन-बद्ध थे।

संसार ने अहिंसा के सीमित प्रदर्शन से भी चकित होकर, बिना किसी प्रचार के, हमारी पात्रता के अनुपात में समर्थन और सहानुभूति दी। इसके बाद जो बचा रहता है उस पर त्रैराशिक का हिसाब लागू करके देख लेना चाहिए। जब हाल के सघर्ष में, अहिंसा के सीमित और यंत्रवत उपयोग से हमें इतना समर्थन प्राप्त हुआ है, तब यदि हमने अहिंसा का पूर्ण पालन किया होता तो हमें और कितना समर्थन प्राप्त हो सकता था? ऐसा हो तो जरूर दुनिया का खून खौल उठे। मुझे मालूम है कि अभी यह पुनीत दिन बहुत दूर है। हमें कानपुर, बनारस और मिर्जापुर में, अपनी दुर्बलता का आभास हुआ। जब हम अहिंसा से ओत-प्रोत हो जाएंगे तब हम सिर्फ अधिकारी-वर्ग से होने वाले संघर्ष में ही अहिंसा का पालन नहीं करेंगे, बल्कि अपने आपसी झगड़ों में भी करेंगे। जब हमें अहिंसा की शक्ति में जीवंत श्रद्धा होगी तो वह दिन-प्रतिदिन फैलती चली जाएगी और एक दिन सारे संसार में, उसकी ऐसी व्याप्ति हो जाएगी कि संसार ने ऐसी जबर्दस्त व्याप्ति कभी न देखी होगी। मैं तो इसी विश्वास में जी रहा हूं कि हम अहिंसा के इस महान प्रयोग में सफल होकर रहेंगे।

(अंग्रेजी से) यंग इंडिया, 7.5.1931

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *