अपराधियों से आक्रांत जनतंत्र

डॉ. आंबेडकर का कहना था कि, “संवैधानिक नैतिकता एक स्वाभाविक भावना नहीं है. इसका क्रमिक विकास किया जाता है.” किंतु भारत के पिछले सात दशकों के संवैधानिक इतिहास में यह प्रक्रिया विपरीत दिशा में गतिशील रही है.
     मताधिकार लोकतंत्र का आधारभूत तत्व है. लोकतंत्र की अवधारणा ही मताधिकार पर अवलंबित है और मताधिकार का वास्तविक अर्थ तभी है जब चयन में निष्पक्षता हो. लोकतंत्र की मजबूती और प्रगतिशीलता के लिए जरुरी है कि चुनाव सुधारों पर गंभीर प्रयास हो. क्योंकि चुनाव सुधारों के बिना मताधिकार का कोई विशेष औचित्य नहीं रह जाता. देश में चुनाव सुधारों के लिए कई मोर्चो पर गंभीर प्रयास की आवश्यकता है. लेकिन इसमें धन बल का प्रयोग और राजनीति में अपराधियों का बढ़ता प्रभाव, ऐसे दो मुद्दे हैं जिन पर त्वरित कार्यवाही समय की माँग है. इसमें भी धन के बढ़ते प्रभाव के पीछे भी मुख्य कारण इन अपराधी तत्वों की राजनीति में घुसपैठ ही है.
  बीते मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय पार्टियों समेत कुल आठ विभिन्न राजनीतिक दलों पर जुर्माना लगाया है. कारण यह था कि इनके द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव के समय अपने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड सार्वजानिक करने के उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन नहीं किया गया. इस दौरान तल्ख़ टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा बढ़ता जा रहा है. इसकी शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को क़ानून निर्माता बनने कि अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मगर हमारे हाथ बंधे हैं. हम सरकार के आरक्षित क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं कर सकते. हम केवल क़ानून बनाने वालों की अंतरात्मा से अपील कर सकते हैं.” ये टिप्पणी मात्र न्यायालय के क्षओभ और कुंठा को ही नहीं दर्शाती बल्कि आम भारतीय जन मानस को यह संदेश भी देती है कि किस तरह उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जनतंत्र की आड़ में अधिनायकवाद के भाव में संलिप्त होकर कार्य कर रहे हैं. ये जनप्रतिनिधि जिस छतनार वृक्ष की छाया में हैं उसी की जड़े काटने में लगे हैं.
   इस मसले पर जहाँ देश में संसद से सड़क तक एक गंभीर बहस होनी चाहिए थीं, वहाँ इसे एक आम फैसले की तरह लिया गया. क्योंकि हम ‘ट्विटर के लोकतंत्र में हस्तक्षेप’ और पोर्न वीडियो शूटिंग करने वालों में ही उलझें थे. इस देश के नेताओं के एक विशिष्ट गुण को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि, वे मूलभूत मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने और गैर- जरुरी मसलों पर बहस की कला बखूबी जानते हैं.
     इतिहासकार लार्ड ऐक्टन कहते हैं, ‘शक्ति कि प्रवृति भ्रष्टता क़ी ओर उन्मुख होती है और निरंकुश शक्ति सभी कों भ्रष्ट बना देती है.’ निरंकुश अपराधियों और उनके संरक्षक राजनीतिक दलों ने चुनावी प्रक्रिया को भ्रष्ट किया है एवं इससे निर्वाचित भ्रष्ट तत्वों ने देश के जनतंत्र को भ्रष्टाचार की ओर धकेला है. अपराध और चुनाव का सम्बन्ध बड़ा पुराना हैं. 70 और 80 क दशक में जब जातिवादी राजनीति का प्रभाव बढ़ने लगा तब जातिवाद के सहारे उभरने का प्रयास कर रहे नेताओं द्वारा अपने जाति विशेष के अपराधियों का इस्तेमाल बूथ लूटने, मतदाताओं को डराने-धमकाने, विरोधी दलों के प्रत्याशियों की हत्या कराने आदि में होने लगा. समय के साथ ये अपराधी राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए जरुरत बनते गये. इन अपराधियों ने भी अपने राजनीतिक रिश्तों का इस्तेमाल अपने को व्यवस्था के समानांनतर एक सत्ता केंद्र के रूप में स्थापित करने में किया. इन अपराधियों ने राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में अपने अनुकूल दखल दी और लोकतंत्र को गिरोहबंदी में बदल दिया. बीतते समय के साथ इन अपराधियों को लगने लगा कि जब वे किसी को चुनाव जितवा सकते हैं तो खुद भी जीत सकते हैं. इससे उनको विधिक संरक्षण भी मिल जाएगा, और वास्तव में हुआ भी ऐसा ही. 90 के दशक में इन अपराधियों ने स्वयं ही लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में ताल ठोंकनी शुरू कर दी. शुरुआत में क्षेत्रीय दलों ने ही इन्हे अधिक प्रश्रय दिया. इसके दो कारण थे, पहला, समाजवाद के परोक्ष प्रभाव के रूप में जातिवादी राजनीति का तेजी से उभार हुआ. इन क्षेत्रीय दलों का गठन मूलतः जातिवाद के आधार पर हुआ था. ऐसे में जाति विशेष के अपराधी इन दलों के प्रभाव प्रसार में विशेष लाभकारी सिद्ध हुए. जिन्होंने अपने को अपनी जातियों का ‘रॉबिन हुड’ घोषित कर रखा था. दूसरे, राष्ट्रीय दलों के आभामण्डल के समक्ष इन बाहुबलियों की ताकत बेहतरीन प्रतिरोधक का काम करती थी. जो काम भाषणों, वादों, धन वितरण, प्रसिद्ध व्यक्तित्व या फ़िल्मी सितारे नहीं कर पाते थे, वह आसानी से बंदूक के बल पर हो जाता था.
  एक बार जब क्षेत्रीय दलों ने इस प्रक्रिया को शुरू किया तो राष्ट्रीय दलों ने भी तेज़ी से इन असामाजिक तत्वों को झाड़-पोछ कर अपने यहाँ भर्ती करना शुरु कर दिया. अब उनके पास एक आसान सा तर्क भी था कि जब विरोधी उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि का हो तो हमारा सभ्य – सुशील प्रत्याशी उसका मुकाबला कैसे कर पायेगा. परिणाम ये हुआ कि धड़ल्ले से हर राजनीतिक दल के मार्फ़त गुंडे और डकैत ‘माननीय’ बनने लगे. इसका नकारात्मक प्रभाव समाज और प्रशासन पर पड़ा. लेकिन उससे कहीं ज्यादा दुष्परिणाम देश की राजनीति को भुगतना पड़ा. इसे यूँ कहें कि राजनीति के अपराधिकरण ने राजनीति कि उत्पादकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया.चर्चित रही एन.एन.वोहरा समिति (1993) की रिपोर्ट ने भी राजनीतिज्ञ- नौकरशाही- अपराधियों के मध्य की दुरभी संधि एवं इनके द्वारा देश में एक समानानंतर अर्थव्यवस्था के संचालन का उल्लेख किया था.
   हालांकि इन अपराधियों का सामाजिक आधार बढ़ाने में प्रशासन की जड़ता भी कम उत्तरदायी नहीं रही है. अकसर जब गरीब, लाचार आम लोग अपने अधिकार की रक्षा और मदद के लिए सरकारी अधिकारियों के पास पहुँचतें हैं तो उसे दुत्कार, वंचना और इंतजार के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता. फिर वहीं लोग अपने न्याय की दुहाई लेकर अपने इलाकों के बाहुबलियों के पास जाते है. आश्चर्यजनक रूप से इन बाहुबलियों के सामने प्रशासन में भी फुर्ती आ जाती हैं, और सारे काम त्वरित ढंग से हों जाते हैं. ऊपर से ये बाहुबली इन सरकारी कर्मचारियों को दुत्कारतें भी हैं. इससे आम लोगों के सामने प्रशासन की कायरता स्पष्ट होती है. साथ ही बाहुबलियों की छवि एक मसीहा की बन जाती हैं.
आम आदमी को भी त्वरित न्याय मिल जाता है. इससे ये बाहुबली समाज में अपने लिए एक श्रद्धावान वर्ग निर्मित कर लेते हैं. एक वर्ग जो उनके इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहता हैं.
  एमॉन डे वेलेरा ने संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बी. एन. राव के आयरलैंड दौरे के दौरान उनसे कहा था कि काश आइरिश लोगों ने भी अंग्रेजो की फर्स्ट पास्ट द पोस्ट चुनाव प्रणाली को अपनाया होता. उनका मानना था कि यह प्रणाली एक मजबूत सरकार और स्थायी सरकार के लिए उचित हैं. लेकिन भारत में इसका दुरूपयोग भी बखूबी होता रहा है. इससे एक बढ़े वर्ग के विरोधी मतलब सिरे से दरकिनार कर दिये जाते हैं. वह वर्ग जो अपने मत के बूते इनका विरोध करता है.
      अर्थशास्त्र में कौटिल्य शासन की अवधारणा को इस प्रकार व्यक्त किया हैं कि, ‘प्रजा सुखे सुखां राज्ञ:, प्रजानां च हिते हितम’ अर्थात् प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है. किंतु यहाँ लोकतंत्र की जमीन पर पैदा हो रहे आधुनिक राजा, जो खुद अपराधी और भ्रष्ट हो उनसे जनता के लिए किस प्रकार के कल्याण की उम्मीद की जा सकती है. इसके अतिरिक्त जो अपराधी न्यायालय के कटघरे में खड़े हैं, वहीं चुनाव जीतकर ‘माननीय’ क़ानून और प्रशासन के समक्ष माननीय का दर्ज़ा पा रहे हों. सबसे आश्चर्यजनक जेल से चुनाव लड़ने का अधिकार हैं. अगर सजायाफ्ता लोग चुनाव लड़ सकतें हैं तो फिर देश के सारे कैदियों को मतदान का अधिकार भी दे दिया जाना चाहिए. एक अपराधी जिसे क़ानून के सामने हाथ जोड़े खड़े होना वहीं क़ानून का निर्माता बन जाये, तो क्या ये हितों के टकराव का उदाहरण नहीं माना जाना चाहिए.
    साथ ही, अगर इस देश में किसी को ये लगता है कि सत्ता और विपक्ष में एका नहीं हो सकता है , तो आप चुनाव सुधारों पर बात करके देखिए. आपकी ये धारणा तुरंत खंडित हो जाएगी. याद करिये, आज तक किसी भी पार्टी ने इस विषय पर कोई गंभीर प्रयास किया हो, या पिछले तीन दशकों में कोई ऐसा दिन, जब संसद में इस बात के लिए हंगामा हुआ हो, वाकआउट हुआ हो, गाँधी जी की मूर्ति के सामने मौन प्रदर्शन हुआ हो, किसी ने भूख हड़ताल की हो या सांसदों ने सामूहिक इस्तीफा दिया हो. वो दिन भी याद होगा जब उच्चतम न्यायालय के फैसले की विरुद्ध सर्वदलीय मीटिंग में, क्या वामपंथ, क्या दक्षिणपंथ, सभी एक स्वर में बोल रहे थे. यहाँ तक कि बात न्यायपालिका द्वारा अपने अधिकारों के अतिक्रमण तक पहुंच गयी. लेकिन कोई भी इन अपराधियों को संसद और विधानसभा जाने से रोकने के मूल मुद्दे पर बात करने को तैयार नहीं था.
    इन अपराधियों और इनको संरक्षित करने वाली पार्टियों के पास एक सरल तर्क होता है कि ये मुकदमें फ़र्ज़ी हैं और विरोधियों की साजिश हैं. लेकिन वास्तविकता ये हैं कि ये साजिश होती है, इस देश के खिलाफ, संविधान के, लोकतंत्र के, समाज के खिलाफ, जहाँ सड़क छाप गुंडे – बदमाश और लम्पट तत्व अपने धन और बाहुबल के बूते लोकतंत्र के मंदिर में घुस जाते हैं. वो जो आज इस देश के संविधान और क़ानून को रौदते हैं, कल वहीं क़ानून के निर्माता बन जाते हैं. एक अपराधी जिसे क़ानून के सामने नतमस्तक होना चाहिए, क़ानून उसके सामने हाथ बांधे खड़ा होता है. ऐसे भारत का सपना तो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों नहीं देखा होगा. प्राचीन भारतीय परंपरा में कहा गया हैं कि, जिस राज्य में कोई अपराधी सिर्फ इसलिए मुक्त रहे कि वो राजा का सम्बन्धी हैं, वह राज्य सभ्य लोगों के रहने योग्य नहीं होता. ऐसे राज्य और समाज का पतन अवश्यभावी होता है.
     बीतते समय के साथ लोकतंत्र के मंदिर में अपराधियों की आमद बढ़ती जा रही है. अक्सर इन अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के दावे तो होते परन्तु यथार्थ का बयां तो ये आंकड़े कर रहे हैं. 2004 में 14वीं लोकसभा के चुनाव में 128 दागी उम्मीदवार संसद पहुंचने में सफल रहे. इनमें से 58 माननीय सांसद ऐसे थे, जिनके खिलाफ हत्या, हत्या की कोशिश या रेप जैसे गंभीर प्रवृति के आपराधिक मामले दर्ज थे. 2009 के 15वें लोकसभा चुनावों में चुनकर आये 162 (29.83 प्रतिशत) सांसदों खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे. इस लोकसभा में 14वीं लोकसभा के मुकाबले 26 प्रतिशत अधिक आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसद चुनकर आए थे. इनमें से 76 माननीयों के खिलाफ गंभीर प्रवृति के आपराधिक मामले दर्ज थे।
2014 में 16वीं लोकसभा के चुनावों में चुनकर आए कुल सांसदों में से 185 (34 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। इनमें से 112 के खिलाफ गंभीर प्रवृति के मामले दर्ज थे. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में चुनकर आए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में 2014 की तुलना में 26 फीसदी इजाफा हुआ. आगे 17वीं लोकसभा में चुनकर आए कुल सांसदों में से 233 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 159 के विरुद्ध गंभीर प्रवृति के मामले दर्ज हैं. उपरोक्त आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि 2004 के मुकाबले 2019 में 82 प्रतिशत अधिक सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं।
2004 में ये संख्या जहां 128 थी, 2009 में यह बढ़कर 162 हो गई। इसके बाद 2014 में 185 सांसद तो 2019 में इतिहास में सबसे ज्यादा 233 आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसद चुने गए. इतना ही नहीं, जिन नेताओं पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, संसद में उनकी संख्या भी लगातार बढ़ी है. हालांकि ऐसा नहीं हैं कि इन सारे तथ्यों से हमारे माननीय नेता गण परिचित नहीं होंगे. प्रश्न इन समस्याओं के निराकरण में रूचि लेने का है, जो किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकता में है ही नहीं.
    आश्चर्यजनक रूप से अब तक जितने उपयोगी चुनाव सुधार हुए भी है वे सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता और चुनाव आयोग की तत्परता के कारण ही संभव हो पाये हैं. जैसे कि, अक्टूबर 2018 में चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया था कि वे पूरे चुनाव के दौरान कम से कम तीन बार टेलीविजन और अखबारों में अपने आपराधिक अतीतों का विज्ञापन करें। साथ ही आयोग ने यह भी स्पष्ट किया था कि इन विज्ञापनों का खर्च भी प्रत्याशियों को वहन करना होगा क्योंकि यह ‘चुनाव खर्च’ की श्रेणी में आता है. किंतु देश के राजनीतिक दल इन सुधारों को पलटने की कला भी बखूबी जानते हैं. एक उदाहरण देखिए, वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश को बहाल रखा जिसमें यह कहा गया था कि एक व्यक्ति को जेल या पुलिस हिरासत में होने की वजह से मतदान का अधिकार नहीं हो, वह निर्वाचक नहीं है. इससे अपराधियों के निर्वाचन पर अंकुश लगने की संभावना बढ़ी. किंतु राजनीतिक दलों को ये पसंद नहीं आया इसलिए संसद या विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में नए प्रावधान जोड़े गए. इसमें पहला प्रावधान ये था कि, हिरासत में होने के कारण मतदान से रोके जाने पर भी अगर व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में दर्ज हैं तो उसे चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता. दूसरा प्रावधान था कि, किसी संसद और विधानसभा का सदस्य तभी अयोग्य माना जाएगा जबकि उसे इस अधिनियम के तहत अयोग्य ठहराया जाएगा, किसी अन्य आधार पर नही. इन संवैधानिक प्रावधानों को इन अपराधियों और इनके संरक्षक दलों ने अपनी ढाल बना लिया है.
    परिस्थितियां इतनी विकट होती जा रहीं हैं कि चुनाव सुधार के सम्बन्ध में कुछ उपाय तत्परता से किये जाने की आवश्यकता है. पहला, विधानसभा और लोकसभा के उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता स्नातक निर्धारित होना चाहिए. दूसरे, उन्हें पंचायत और निकाय चुनावों का अनुभव होना चाहिए. तीसरे, अगर कोई प्रत्याशी या विधायक – सांसद किसी न्यायालय द्वारा दोषी करार दिया जाता हैं तो उसे टिकट देने वाले राजनीतिक दल पर दंड आरोपित किया जाना चाहिए, जैसे कि आर्थिक दंड अथवा उक्त विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में उस दल को चुनाव लड़ने से न्यूनतम पांच वर्षो के लिए प्रतिबंधित करना. चौथे, चुनाव को पूरी तरह सरकार के खर्च पर संचालित कराना. चुनाव का खर्च सरकार द्वारा द्वारा वहन करना एक अच्छा विकल्प हो सकता है. सन् 1998 में गठित इंद्रजीत गुप्ता समिति ने इसे जनहित में कानूनी रूप से उचित माना था.
 पांचवा, चुनावी हलफनामे में फ़र्ज़ी सूचना पाये जाने पर प्रत्याशी को आजीवन प्रतिबंधित करने के साथ ही उसके दल पर भी जुर्माना आरोपित किया जाना चाहिए. क्योंकि ये उस दल की प्राथमिक जिम्मेदारी थी कि अपने उम्मीदवार को जनता के बीच भेजने से पहले उसकी पृष्ठभूमि के बारे में सुनिश्चित हो ले. छठवाँ, अब समय आ गया है कि जनता को ‘राइट टू रिकॉल’ की सुविधा प्रदान की जाए. क्योंकि इसके बिना माननीय जनप्रतिनिधि सुधरने वाले नहीं हैं. सातवाँ, नोटा को प्रभावी रूप से लागू किया जाए. ताकि राजनीतिक दल प्रत्याशियों के चयन प्रक्रिया में सुधार करें. इसके अतिरिक्त सबसे जरुरी बात हैं इन सुधारों में जनता की भागीदारी. संविधान निर्माण के समय संविधान सभा की प्रक्रिया को जनापेक्षी बनाने के लिए जनता से भी सुझाव मांगे गये थे, तो फिर आज ऐसा क्या हो गया कि 130 करोड़ से अधिक आबादी के भविष्य का निर्धारण मात्र 500 या 700 ‘माननीय’ ही करेंगे. और फिर जम्हूरियत का वास्तविक अर्थ भी तो यही हुआ ना कि, ‘जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा.’
   इतिहास ये बताता है कि इस दुनिया में किसी भी चीज़ की अति नहीं की जा सकती. एक सीमा पर आकार उसे रुकना ही पड़ता हैं. भारत में जनतंत्र की पवित्रता को अतिव्यापित करता धन बल और बाहुबल के मुद्दे को इसी नज़रिये से देखने की आवश्यकता है. इतिहास की इस सीख को देश की जनता तो समझ रही हैं, देश की राजनीति और राजनीतिज्ञ इसे कब और कैसे समझते हैं, ये जरूर विचारणीय विषय है.
[जनसत्ता से साभार ]

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