हृदयंगम करें ‘हो-ली’ का तत्वदर्शन

भारत की सनातन संस्कृति में पर्वों-त्योहारों की अविरल श्रृंखला इसकी अखंड जिजीविषा, अदम्य उत्साह व शाश्वत जीवन दर्शन और राष्ट्रीय चरित्र को उजागर करती है। हमारे सामाजिक उत्सवों की श्रृंखला में होली एक प्रमुख पर्व है। इस वैदिक पर्व का मूल प्रयोजन स्वस्थ एवं ग्रंथिमुक्त व्यक्तिगत जीवन, समता, एकता एवं भाईचारे से युक्त सामाजिक व्यवस्था व आनंद एवं उल्लास से भरे-पूरे जनजीवन का विकास करना है। सर्दी के अंत और ग्रीष्म के आगमन की संधिवेला में मनाये जाने वाले इस पर्व में ऋतु चक्र की वैज्ञानिकता समाहित है। कृषि, पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और सामाजिक समरसता का द्योतक यह पर्व बसंत की मादकता और फाल्गुन की उन्मुक्त उदारता के मध्य जीवन की नकारात्मकता व नीरसता को दूर कर सर्वत्र मधुरता और स्नेह का संचार करता है। हमारी कृषि प्रधान संस्कृति का फसल पकने का उल्लास भी इनमें समाहित है।
होलिका के सामूहिक यज्ञ में नये अन्न (होला) का यज्ञ करने के बाद ही इसके उपयोग का विधान हमारे ऋषियों ने बनाया था। फाल्गुन के महीने मे खेतों में सरसों व गेहूं की लहलहाती फसल हमारे अन्नदाता के आनंद का सबब तो बनती ही है, अग्नि देवता द्वारा संसार के समस्त प्राणियों व देवताओं को पहुंच जाती हैं और देवताओं का भाग उन्हें देने के बाद कृषक व अन्य लोग उसका उपयोग व उपभोग करने के लिए पात्र बन जाते हैं। यह उदात्त प्रेरणा इस पर्व से अभिन्न रूप से जुड़ी है। जरा विचार कीजिए! कितना प्रेरक व पावन दर्शन है इस वैदिक पर्व का। यह साल की विदाई का त्योहार भी है इसलिए रंगों के साथ मनाया जाता है ताकि आने वाला नया साल भी रंगों और खुशियों से भरा हो।
    होली का सौन्दर्य साधारण नहीं, असाधारण है। इस ऋतु पर्व पर प्रकृति और मानवीय मनोभावों के उल्लास का सुंदरतम रूप अभिव्यक्त होता है। यह एक ऐसा जन-उत्सव है जिसमें स्त्री-पुरुष ऊँच-नीच, जात-पात के भेद भूलकर समाज का हर व्यक्ति पूरे उत्साह से शामिल होता है। इस ऋतु पर्व पर मनुष्य व प्रकृति दोनों का आंतरिक आह्लाद पूरे चरम पर होता है। यदि होली को ऋतुराज बसंत का सर्वोत्तम श्रृंगार कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। प्रकृति में चहुंओर निखरे मनमोहक फूलों से सजी धरतीमाता की धानी चूनर, आम के बौर, कोयल की पंचम कूक व पपीहे की पीव-पीव के साथ प्रकृति जब अपने बहुरंगी सौंदर्य की छटा विविध रूपों में बिखेरती है, तब होली का रंगपर्व अपनी निराली छटा के साथ समूचे भारतीय जनजीवन को अपने रंग में सराबोर कर डालता है। मगर जहां एक ओर फसलों की कटाई का यह मौसम कृषकों को उनके श्रम का उपहार सौंपता है वहीं दूसरी ओर ऋतु चक्र में आये बदलाव के कारण कीट-पतंगों के कारण उत्पन्न परेशानियों-बीमारियों का वाहक भी है। इसीलिए हमारे मनीषियों ने होलिका दहन के अगले दिन जल-क्रीड़ा और आमोद-प्रमोद के उत्सव की परम्परा डाली थी।
प्राचीन भारत में होलिकोत्सव पर जो जल-क्रीड़ा होती थी, उसके तमाम उल्लेख बहुत से प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलते है। तब प्राकृतिक व औषधीय फूलों के रंगों से होली खेली जाती थी। चूंकि इस पर्व के समय ऋतु परिवर्तन से चेचक व खसरा के संक्रमण की आशंका रहती है। अतः इससे बचने के लिए प्राचीन समय से टेसू के फूल का रंग बनाकर एक दूसरे पर डालने की प्रथा थी और होलिका यज्ञ की सामग्री में भी इन्हीं फूलों की अधिकता रखी जाती थी, जिससे वायु में उपस्थित रोग के कीटाणु नष्ट हो जाएं।
पुराने लोगों की मानें तो चार-पांच दशक पूर्व तक होली कुदरती तत्वों अर्थात टेसू, केसर, मजीठ आदि के रंगों से खेली जाती थी। बसंत पंचमी को होलिका रखने के बाद से इसकी तैयारियां होने लगती थीं। एक दौर था जब होली पर घर-घर चिप्स-पापड़ बनते थे। घर-घर से गुझिया की सुगंध आती थी। बाहर की मिठाइयां व व्यंजन शायद ही किसी घर में आती हों। होली गीतों, फाग और धमार की रौनक माहौल में एक अलग ही मस्ती घोल देती थी। मगर बाजारीकरण के वर्तमान दौर में आज इस पर्व की आत्मा छीजती जा रही है। कुदरत के रंग न जाने कहां खो गये हैं। प्राकृतिक रंगों की जगह अब रासायसिक रंगों व सिंथेटिक डाइयों ने ले ली है। कहने की जरूरत नहीं कि देखने में सुन्दर लगने वाले ये रंग कितने हानिकारक हैं। यह प्रकृति और मानव जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है? रंगों में ही नहीं, घी, तेल, खोया, मिठाइयों व अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट भी अब आम है। त्योहारों पर मांग बढ़ने से यह कुकृत्य और बढ़ जाता है। रंग खेलने के नाम पर पानी का बेइंतहा दुरुपयोग और होली पार्टियों के नाम पर भोजन की बर्बादी कर क्या हम इस प्रकृतिपर्व और पर्यावरण संरक्षण की भारतीय संस्कृति का अपमान नहीं कर रहे?
 एक दौर था जब प्रकृति के गर्भ से प्रकट होने वाला यह पर्व हमारे चहुंओर आनंद का ऐसा वातावरण सृजित करता था, जिसमें मनों में दबी सारी शंकाएं व कुंठाएं निर्मूल हो जाती थीं।  प्रख्यात मोटिवेशनल स्पीकर श्री श्री रविशंकर जी के अनुसार होली का सर्वश्रेष्ठ अर्थ इसके अक्षर विन्यास में ही सन्निहित है। वे कहते हैं, ‘’हो-ली अर्थात भूतकाल में जो हो गया, जो बीत गया.. अच्छा या बुरा, उचित या अनुचित; उस बात को छोड़ दो…ढोते न रहो। निराशा, अवसाद व विषाद को कंधे पर लादे न रहो, मन -मष्तिस्क पर बोझ न बनाओ। घटना के मूल में स्वयं की सहभागिता ढूंढो और यदि त्रुटि में संशोधन की सम्भावना हो तो बेहिचक तत्काल सुधार करो। अपना निरीक्षक – परीक्षक स्वयं बनो। आधी समस्या का समाधान तो इस प्राथमिक स्तर पर ही हो जायेगा और शेष आधी समस्या हल करने के लिए एक सार्थक और समुचित मार्ग मिल जायेगा।‘’ इस दृष्टि से होली का पर्व मात्र एक परंपरागत उत्सव नहीं; वरन जीवन का मनोविज्ञान है। इस पर्व का सामाजिक दर्शन अपने आप में अनूठा है, जिसे यदि भलीभांति समझ लिया जाये तो मानव जीवन की आधी उलझन, समस्याए और उहापोह का निराकरण स्वयं ही हो जायेगा।
    बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि उनके यौवनकाल में होली का उत्सव समूह मन का निर्माण करता था। एक उन्नत व स्वस्थ समाज की रचना के लिए होलिका रूपी अग्नि विध्वंसकारी शक्तियों, कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं, व्यसनों, कुविचारों, दुर्भावों व द्वेष-पाखण्डों को भस्मीभूत कर देती थी। मगर आज रंग को और बदरंग करने के लिए कीचड़ एवं घातक द्रव्यों का भी इस्तेमाल किया जाता है। नशे में धुत मनचले होली की आड़ में अपनी क्षुद्र वासनाओं की कुत्सित अभिव्यक्त का प्रयास करते हैं। हुड़दंगियों की टोली इसमें अपनी शान समझती है। कई बार न चाहने वाले लोग भी इनकी चपेट में आ जाते हैं और हंसी-खुशी का पर्व का हिंसा एवं ध्वंस का वाहक बन जाता है। स्वस्थ मनोरंजन की जगह अश्लीलतापूर्ण हंसी-मजाक व अवांछीनय दुष्कृत्य इसके स्वरूप को बदरंग कर देते हैं। निर्मल हास-परिहास व हंसी ठिठोली के इस महापर्व पर बढ़ती यह अपसंस्कृति इस पावन पर्व का अपमान है। हमें इसे रोकना होगा। होली में जो विकृतियां पनप गयी हैं, उन्हें दूर करने के लिए भावनाशील व साहसी लोगों को आगे आना होगा। इस दिन सामूहिक रूप से होलिका दहन के समय व्यक्ति को अपने अंदर मौजूद कुत्सित भावनाओं व गन्दे विचारों की भी होली जलानी चाहिए। हम इक्कीसवीं सदी के तकनीकी युग में जी रहे हैं। आज हमने अपनी सुख सुविधाओं में तो विस्तार कर लिया है मगर हमारे जीवन की परिधि निरंतर सिकुड़ती जा रही है और आनंद एकांगी होता जा रहा है। आज अपनों तक सीमित सामाजिक अवधारणा ने सब गुड़ गोबर कर दिया है। समाज अपने मूल को खोकर सिर्फ़ दिखावों तक सीमित रह गया है। शहरी संस्कृति भले ही विकास और समृद्धि की परिचायक हो लेकिन जो चीज़ हमें जड़ से अलग करती है वह है अनजानापन।
   हमें यह भूल सुधारनी होगी। समझना होगा कि रंगों का यह पर्व हारे भारतीय जीवन दर्शन को जितनी सम्पूर्णता के साथ पेश करता है, उतना शायद ही कोई अन्य पर्व करता हो। एक जा रहा है, दूसरा आ रहा है। समान्यतया आने का अभिनंदन होता है और जाने का शोक। लेकिन, होली की खूबी यह है कि यह आने वाले के साथ-साथ जाने वाले को भी अभिनंदित करता है, और गा-गाकर उसे खुशी-खुशी विदा करता है। इसीलिए सृष्टि में बसी है होली। होली हमारी राष्ट्रभक्ति है। पर्यावरण की सुरक्षा का भाव है। मातृभूमि के प्रति प्रेम है। समाज के बनते-बिगड़ते रिश्तों को सुलझाने का मूलमंत्र है। तो आइए एक नये संकल्प के साथ हम सब इस प्रकृति पर्व को मनाएं. तभी इस पर्व की गरिमा कायम रख भावी पीढ़ी को एक सुंदर पर्व की स्वस्थ विरासत सौंप सकेंगे।

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