क्या पाकिस्तान का कोई भविष्य है?

बनवारी

पाकिस्तान इस समय अपने जीवन के सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। लगभग दो वर्ष पहले इमरान अहमद खान नियाजी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे। उस समय पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या वित्तीय संकट थी। पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर केवल आठ अरब डॉलर रह गया था। उसका विदेशी व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा था।

2018 में उसने 60.5 अरब डॉलर का आयात किया था और मात्र 23.5 अरब डॉलर का निर्यात किया था। हालत यह हो गई थी कि विदेशी कर्ज की किस्त चुकाने के लिए भी उसे और कर्ज लेना पड़ रहा था। यह समस्या अमेरिका के अपना रुख कड़ा करते जाने से गंभीर हो रही थी। पर पाकिस्तान को सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और चीन का भरोसा था। इमरान राजनैतिक भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सत्ता में आए थे। लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि राजनैतिक भ्रष्टाचार की समस्या इतनी आसान नहीं है, जितनी उन्हें सरकार से बाहर रहते हुए दिखाई देती थी।

पाकिस्तान के बारे में यह प्रसिद्ध है कि उसका समूचा राजनैतिक प्रतिष्ठान प्रवासी पाकिस्तानी परिवारों से बना है। उस पर राज करने वाले अधिकांश परिवार अपना एक पैर रियाद, दुबई, ब्रिटेन या अमेरिका में जमाए रहते हैं। इसलिए उनकी संपदा पर हाथ डालना आसान नहीं है। इमरान ने पाकिस्तान के आयात में कटौती करके व्यापार घाटा कुछ कम करने की कोशिश की। इस बीच आतंकी संगठनों को वित्तीय सहायता देने वाले देशों पर नजर रखने वाली संस्था फाइनेंसियल एक्शन टास्क फोर्स ने भी अपना रुख कड़ा कर लिया था और पाकिस्तान को ग्रे सूची में डाल दिया था। अब अगले महीने होने वाली बैठक में पाकिस्तान फिर निशाने पर होगा। अगर वह काली सूची में डाल दिया गया तो उसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से वित्तीय सहायता मिलना बंद हो जाएगी।

पर पाकिस्तानी सेना ने इमरान खान को केवल इस वित्तीय संकट के कारण सत्ता में नहीं बैठाया था। उसे यह चिंता सता रही थी कि पाकिस्तान का राजनैतिक नेतृत्व भारत के सामने कमजोर पड़ता जा रहा था, वह कश्मीर को लेकर भारत से कोई समझौता कर सकता है। उसे सबसे पहले यह खतरा अटल बिहारी वाजपेयी और नवाज शरीफ के बीच बढ़ते संबंधों के कारण हुआ था। उसी से चिंतित होकर उस समय के सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध शुरू किया था।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार फिर संबंध सुधारने की कोशिश हुई। नवाज शरीफ की आरंभिक प्रक्रिया सकारात्मक थी। पर पाकिस्तानी सेना कश्मीर के कारण ही भारत के साथ युद्ध की आशंका बनाए रह पाती है। यह आशंका बनाए रखकर ही वह पहले अमेरिका से लड़ाकू विमान और दूसरे उन्नत हथियार प्राप्त करती रही। उसके बाद वह भारत को घेरे रखने की चीनी रणनीति में शामिल हो गई। चीन ने उसे नाभिकीय शक्ति बनने में मदद की। उसका मिसाइल भंडार भी चीन की मदद से ही खड़ा हुआ है।

भारत से दुश्मनी बनाए रखकर ही वह चीन का आर्थिक और सामरिक सहयोग पा सकती है। भारत से स्थायी दुश्मनी का व्यक्त आधार कश्मीर ही है। इसलिए पाकिस्तानी सेना अपनी पीठ पीछे पाकिस्तानी नेताओं को भारत से कोई समझौता करने नहीं दे सकती थी। ऐसा नहीं है कि नवाज शरीफ सचमुच कश्मीर को लेकर भारत से कोई समझौता करने वाले थे। पर वे भारत के साथ तनाव कुछ कम करना चाह सकते थे। क्योंकि उसके बिना कोई पाकिस्तानी सरकार अपनी आंतरिक समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दे सकती।

इमरान खान बिना किसी प्रशासनिक अनुभव के प्रधानमंत्री बने थे। उन्हें पाकिस्तान की राजनैतिक पेचीदगियों की कोई समझ नहीं थी। इमरान खान के बड़बोलेपन और अंतरराष्ट्रीय राजनीति की नासमझी ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। अमेरिका अफगानिस्तान से निकलना चाहता था, इसके लिए वह पाकिस्तान पर आतंकवादी तंत्र से हाथ खींच लेने के लिए दबाव डाल रहा था। इमरान खान से पहले के पाकिस्तानी नेता जिस चतुराई से अमेरिकी दबाव का सामना कर रहे थे, वह इमरान खान नहीं दिखा सके।

पाकिस्तान को गलतफहमी थी कि अमेरिका उसकी मदद के बिना तालिबान से समझौता नहीं कर सकता। लेकिन अमेरिका ने अपनी स्वतंत्र संपर्कों के बल पर तालिबान को शांतिवार्ता में शामिल होने के लिए तैयार कर लिया। इसलिए अब अफगानिस्तान शांतिवार्ता में पाकिस्तान की भूमिका गौण हो गई है। इस बात का भी खतरा पैदा हो गया कि तालिबान उससे कुछ दूरी बनाने की कोशिश कर सकते हैं।

इस समय तालिबान मिलिट्री कमीशन की कमान मुल्ला याकूब के हाथ में है। मुल्ला याकूब मुल्ला उमर के बेटे हैं, जिनके नेतृत्व में तालिबान को 1996 में अफगानिस्तान में सत्ता प्राप्त हुई थी। 1996 से 2001 तक चली उस तालिबान सरकार ने अपने आपको पाकिस्तान के प्रभाव से दूर ही रखा था। अभी अफगानिस्तान में तालिबान के सत्तारोहण की राह इतनी आसान नहीं हुई है। पर वे सत्ता में पहुंच भी गए तो पाकिस्तान के इशारे पर नहीं नाचेंगे। अफगानिस्तान पर शासन करना तालिबान के लिए भी उतना ही मुश्किल होगा, जितना आज अशरफ गनी सरकार के लिए है। इससे पाकिस्तान की सुरक्षा को लेकर भी समस्याएं पैदा होंगी।

इमरान खान की अपरिपक्वता का सबसे बुरा प्रभाव भारत-पाकिस्तान संबंधों पर पड़ा। पाकिस्तानी सेना की नीयत और कश्मीर समस्या की पेचीदगी समझे बिना इमरान खान ने भारत से बातचीत की पेशकश की। भारत की ओर से कोई उत्साह न दिखाए जाने के बाद इमरान खान ने भारतीय नेताओं पर कुछ अभद्र और अशिष्ट टिप्पणियां करके दोनों देशों के बीच तनाव घटने की किसी भी संभावना पर पानी फेर दिया। इस बीच पाकिस्तानी सेना के समर्थन से भारत पर आतंकवादी हमले होते रहे।

पठानकोट हमले के बाद भारत ने अपना रुख कड़ा करना शुरू किया। पुलवामा हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान को सबक सिखाने का फैसला कर लिया। पहले भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सीमा के भीतर घुसकर उसके कुछ आतंकी अड्डों को समाप्त किया। फिर भारतीय वायुसेना ने बालाकोट में कार्रवाई की। इसके बाद पिछले वर्ष अगस्त में भारत ने संविधान की धारा 370 हटाने का फैसला कर लिया। इससे कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय विवाद बनाए रखने का आधार ही समाप्त हो गया।

भारत की इसी कार्रवाई ने पाकिस्तान को सबसे अधिक आहत और परेशान किया है। पिछले एक वर्ष में पाकिस्तान दुनिया की तमाम शक्तियों का दरवाजा खटखटाता रहा है। उसने पश्चिमी देशों पर भारत से दबाव डलवाने की कोशिश की। निराश होने के बाद उसने मुस्लिम देशों के दरवाजे खटखटाने शुरू किए। जब मुस्लिम देशों के परंपरागत संगठन कश्मीर के मामले में उसका साथ देने के लिए तैयार नहीं हुए तो उसने अपने समर्थक मुस्लिम देशों का एक समानांतर संगठन खड़ा करने की धमकी दी। इससे नाराज सऊदी अरब ने पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक सहायता तक रोक दी है। अपने सरपरस्त सऊदी अरब को शांत करने में पाकिस्तानी सेना को भी सफलता नहीं मिल पाई है।

एक वर्ष पहले कश्मीर को लेकर पाकिस्तान ने जो अंतरराष्ट्रीय अभियान शुरू किया था, उसमें उसे केवल तीन देशों का समर्थन मिल पाया। हमेशा की तरह चीन उसके साथ रहा और पाकिस्तान को संतुष्ट करने के लिए उसने सुरक्षा परिषद में अनौपचारिक तौर पर एकाधिक बार कश्मीर का मुद्दा उठाने की कोशिश की। लेकिन अन्य देशों का समर्थन नहीं मिलने से चीन इसे आगे नहीं बढ़ा पाया।

तुर्की भी पाकिस्तान का समर्थक रहा है, जब महातिर मलेशिया के प्रधानमंत्री थे तो तुर्की के एर्दोआन ने महातिर के साथ मिलकर मलेशिया में मुस्लिम राष्ट्रों का एक सम्मेलन करने की कोशिश की थी। इससे नाराज सऊदी अरब ने धमकी देकर पाकिस्तानी नेताओं को भी उसमें जाने से रोक दिया था। महातिर की विदाई के बाद मलेशिया का अब क्या रुख रहेगा, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। लेकिन तुर्की अभी भी पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है। पर तुर्की के समर्थन का पाकिस्तान को उतना लाभ नहीं है, जितना उससे उसे नुकसान हो रहा है। तुर्की के कारण सऊदी अरब के नेतृत्व वाला पूरा अरब जगत पाकिस्तान से नाराज हो गया है। अरब देशों में कतर को छोड़कर कोई पाकिस्तान से सहानुभूति दिखाने के लिए तैयार नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इमरान खान अनेक बार अपनी इस हताशा को सार्वजनिक रूप से प्रकट कर चुके हैं कि उनकी सरकार दुनियाभर के दरवाजे खटखटा आई है पर कोई उनकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं है। अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत का महत्व इतना बढ़ गया है कि कोई देश पाकिस्तान की खातिर भारत को नाराज करने का खतरा मोल लेना नहीं चाहता। इस अनुभव के बाद भी इमरान सरकार हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर राग अलापने के लिए विवश है।

यह इमरान खान का दुर्भाग्य था कि जिस समय उन्हें सत्ता दी गई, उस समय अंतरराष्ट्रीय राजनीति तेजी से बदल रही थी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन और आतंकवाद को लेकर कड़े फैसले आरंभ कर दिए थे। पाकिस्तान की समूची राजनीति इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द घूम रही थी। इमरान खान यह नहीं देख पाए कि अमेरिका के दबाव में सऊदी अरब आतंवादी संगठनों की सहायता बंद करने लगा था। इस्लामिक स्टेट के कमजोर पड़ने के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता फिर सक्रिय होने लगे थे।

कतर और तुर्की उनके नए आश्रयदाता बन रहे थे। इसने सऊदी अरब को आतंकवादियों के प्रति और सख्त रुख अपनाने के लिए विवश किया। इसका असर पाकिस्तान की राजनीति पर पड़ना अवश्यंभावी था। इमरान खान की सरकार ने सऊदी अरब से संबंध सुधारने की बजाय तुर्की का हाथ पकड़ने की कोशिश की, इसने इमरान सरकार की स्थिति और कमजोर कर दी। सऊदी अरब का वरदहस्त उठ जाने से पाकिस्तान के शासक वर्ग की शरणस्थली समाप्त हो गई है। इमरान खान को यह समझ में नहीं आया कि तुर्की के साथ जाकर पाकिस्तान ने पाया कुछ नहीं है, खोया बहुत कुछ है। इसी तरह अमेरिका से संबंध बिगाड़कर पाकिस्तान ने अपने आपको पूरी तरह चीन पर निर्भर कर लिया है। एक ऐसे समय जब चीन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग पड़ता जा रहा हो, केवल उस पर निर्भरता पाकिस्तान के भविष्य के लिए अच्छी नहीं है। 

इमरान खान की इन सब अक्षमताओं और असफलताओं के कारण पाकिस्तानी सेना के लिए भी उनका उपयोग समाप्त हो गया है। सेना की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके पास इस समय इमरान खान का कोई विकल्प नहीं है। पाकिस्तान के राजनैतिक प्रतिष्ठान को अपने नियंत्रण में रखने की उतावली में सेना ने पुराने राजनेताओं को मरवा दिया या राजनीति से बाहर करवा दिया।

पाकिस्तान की राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियां तेजी से बिगड़ रही हैं। इसलिए राजनैतिक प्रतिष्ठान के कमजोर पड़ने का प्रभाव पाकिस्तान की सेना पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। इमरान खान की सरकार से लोगों का विश्वास खत्म होता जा रहा है। पाकिस्तान में सब जानते हैं कि इमरान सरकार वास्तव में चुनी हुई सरकार नहीं है, नामित सरकार ही है। सेना के पूरे समर्थन के बाद भी चुनाव में उसे बहुमत नहीं मिला था। उसके लिए बाहर से समर्थन जुटाने और अब तक उसे टिकाए रखने में सेना की ही भूमिका रही है। इसलिए इमरान सरकार के अपयश से सैनिक नेतृत्व अपने आपको अलग नहीं कर सकता।

पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा की एक समस्या यह है कि वे सेवानिवृत्त होने के बाद इमरान सरकार से तीन वर्ष के लिए सेवा विस्तार करवाकर अपने पद पर बने हुए हैं। इससे सेना के अनेक अफसरों में ईष्र्या और हताशा पैदा होना स्वाभाविक ही है। इसलिए पाकिस्तानी सेना पर उनका पूर्ण नियंत्रण नहीं हो सकता। पाकिस्तानी सेना के भीतर अनेक विभाजन रहे हैं। उसमें अफसरों का सदा एक ऐसा वर्ग रहा है, जो आतंकवादी संगठनों के निरंतर संपर्क में रहता है। उनके किसी गलत या दुस्साहसिक निर्णय से पाकिस्तान कभी भी और बड़ी मुसीबत में पड़ सकता है।

पाकिस्तान पर पहला बड़ा संकट 1971 में आया था, जब पाकिस्तानी सेना भारतीय सेना से युद्ध में पराजित हो गई थी और पाकिस्तान के विभाजन के बाद बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उभर आया था। यह पाकिस्तान की सबसे कठिन घड़ी थी। क्योंकि उस युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया था कि पाकिस्तान सीधी लड़ाई में भारत का सामना नहीं कर सकता। उसके बाद जनरल याहया खां को सत्ता जुल्फिकार अली भुट्टो को सौंपनी पड़ी थी। अपनी उस हताशा से निकलने के लिए पाकिस्तान ने दो उपाय किए थे। उसने भारत के खिलाफ चीन से अपना संबंध और मजबूत किया। उसके बाद 1977 में सत्ता हड़पने के बाद जनरल जिया उल हक ने भारत के खिलाफ आतंकवादी संगठनों का सहारा लेना शुरू किया। उस समय तो पाकिस्तान की हताशा दूर हो गई थी, लेकिन आज उसके यही दो कदम उसकी सबसे बड़ी समस्या बने हुए हैं।

आतंकवाद और चीन दोनों का सहारा लेने के कारण पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय जगत में अपने को अलग-थलग कर लिया है। पाकिस्तान का सैनिक तथा असैनिक शासक वर्ग अब तक अरब या पश्चिमी देशों को ही अपनी शरणस्थलियों के रूप में देखता आया था और वह इन्हीं देशों की जीवनशैली का अभ्यस्त हो चुका है। उसे इन देशों के मुकाबले चीन रास नहीं आ सकता। पाकिस्तान के भीतर आतंकवादी संगठनों पर नियंत्रण निरंतर कठिन होता जा रहा है।

संयुक्त अरब अमीरात के इजराइल से संबंध जोड़ने के बाद कट्टरपंथी और जेहादी तत्व पाकिस्तान और अफगानिस्तान की ओर रुख करेंगे। पाकिस्तान के भीतर शिया सुन्नी संबंध जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं, वह भी इसी इसी बात का परिचायक है कि पाकिस्तान और तेजी से कट्टरपंथी संगठनों के चंगुल में फंसता जा रहा है। पाकिस्तान में गैर-सुन्नी समूहों की ही नहीं बलूच, गिलगित-बालतिस्तान और आजाद कश्मीर के विरोध में आवाज उठाने वाले लोगों की भी आए दिन हत्याएं हो रही हैं। इससे एक बार फिर पाकिस्तान के सामने यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या पाकिस्तान का कोई भविष्य है।

मुस्लिम लीग ने 1947 में भारत का विभाजन यह कहते हुए करवाया था कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौम हैं, वे एक साथ नहीं रह सकतीं। अपने आपको अलग कौम मानकर पाकिस्तानियों ने अपने आपको अपने अतीत से काट लिया। इस्लाम जिस उम्मा का नारा देते हुए दुनियाभर में फैला था, वह एक मरीचिका ही साबित हुआ है। मुस्लिम जगत का नेतृत्व करने का सपना देखने वाले पाकिस्तानी नेताओं को तेल से अमीर हुए अरबों ने समझा दिया कि वे उन्हें अपने बराबर का नहीं मानते। अपने मूल से कटकर बना पाकिस्तान अब तक केवल भारत से वैमनस्य के आधार पर ही टिका रहा है। इस वैमनस्य को मूर्त स्वरूप देने के लिए ही उसने कश्मीर का विवाद गढ़ा है।

अब यह लक्ष्य उसकी पहुंच से बाहर निकलता जा रहा है। यही पाकिस्तान की वर्तमान हताशा का कारण है। दुनिया में अलग-थलग पड़ा हुआ पाकिस्तान केवल चीन पर निर्भर रहकर उसकी कॉलोनी ही बन सकता है। पाकिस्तान में बन रही औद्योगिक कॉरिडोर वास्तव में चीन के लिए बनने वाली कॉरिडोर ही है। पाकिस्तान की इससे भिन्न कोई परिणति हो भी नहीं सकती थी। पाकिस्तान का आगे का इतिहास आतंकवादी संगठन लिखने वाले हैं। उत्तर भारत के जिन मुस्लिम नेताओं ने पाकिस्तान बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी, वे तो पाकिस्तान में मुहाजिर के रूप में अपना हश्र देख ही चुके हैं। पाकिस्तान का भविष्य अब अपने आपको इस्लाम का लश्कर मानने वाले आतंकवादियों द्वारा निर्धारित होना है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *