मौलिक व्यक्तित्व के नेता थे कल्याण सिंह

बालेश्वर त्यागी

कल्याण सिंह एक मौलिक व्यक्तित्व के  नेता थे।वे किसी की नकल नहीं करते थे। उनका अपना सब कुछ मौलिक था। चिंतन ,भाषण ,लेखन यहां तक कि कपड़े भी अपने तरीके से सिले पहनते थे।जो अपनाया उसे पूरे जीवन निभाया उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं किया।जब वे नाराज होकर भाजपा से अलग हुए तो भी उनका तरीका वही रहा। इसी लिए वे बहुत दिनों तक अलग नहीं रह सके।

कुशल प्रशासक ,कड़े फैसले लेने में दक्ष ,अच्छे लोगों को प्रोत्साहन देने वाले , कुशल संगठन कर्ता ,जनता और कार्यकर्ताओं की आकांक्षाओं को समझने वाले नेता रहे। उनके जीवन मे सभी कुछ व्यवस्थित था ,समयबद्ध व्यवस्थित जीवन चर्या , समयबद्ध जनसामान्य से भेंट , नियमित समाचार पत्रों का पठन , नियमित पत्रों का उत्तर देना सब कुछ व्यवस्थित था।
राजनीति के प्रारंभिक काल मे तो वे पत्रों के उत्तर अपने हाथ से लिखकर देते थे। बहुत व्यवस्थित लेखन उनकी विशेषता थी।1980 के आसपास मैंने उन्हें चकबंदी की एक शिकायत भेजी थी। वह शिकायत उन्होंने  चकबंदी आयुक्त को आवश्यक कार्यवाही के लिए भेजी और उसके साथ संलग्न अपने पत्र की प्रति एक पोस्टकार्ड पर मुझे भी भेजी। उस पोस्टकार्ड पर बहुत सुंदर शब्दों में किसान की पीड़ा का जो वर्णन उन्होंने अपने शब्दों उस पर लिखा वह मेरे लिए धरोहर बन गया।
कल्याण सिंह जी का एक लंबा राजनैतिक करियर रहा। दस बार विधान सभा के सदस्य रहे। प्रदेश सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे ,दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और कई वर्षों तक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे।एक समय मे वे अटल जी और आडवाणी जी के बाद भाजपा तीसरे बड़े नेता थे।  भारतीय जनता पार्टी को उन्हीं के शब्दों में सर्व स्पर्शी और सर्वग्राही बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।भाजपा की सामूहिक नेतृत्व की नीति के अनुपालन में  उनके नेतृत्व में प्रदेश स्तर पर  नेताओं की एक टीम विकसित की। जिसमें कल्याणसिंह के अलावा कलराज मिश्रा ,लाल जी टण्डन ,ओमप्रकाश सिंह ,राजनाथ सिंह ,गंगाभक्त सिंह ,हरिश्चंद्र श्रीवास्तव जैसे कई नेता थे। 
कल्याण सिंह में कार्यकर्ता को गढ़ने की अभूतपूर्व क्षमता थी। जिले जिले में अनेक ऐसे कार्यकर्ताओं की श्रृंखला थी जो कल्याण सिंह जी से प्रेरित और प्रभावित थे। जब वे प्रदेश अध्यक्ष थे तब वे प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक का  जो सूचना पत्र सदस्यों को भेजा जाता था उसे वे स्वयं लिखते थे और उसकी ड्राफ्टिंग इतनी प्रेरक होती थी कि उसे पढ़ते पढ़ते ही कार्यकर्ता संगठन के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता था।
कल्याण सिंह द्वारा गढ़े गए नारे यथा गांव गरीब किसान ,झुग्गी झौंपड़ी का इंसान , दलितों का उत्थान ,महिलाओं का सम्मान जैसे नारों से भाजपा के कैनवास को विस्तार मिला ।प्रत्येक वर्ग की संगठन में भागीदारी , पार्टी के निर्णयों में भागीदारी और पार्टी के मंच पर भागीदारी जैसे निर्णयों ने पार्टी को प्रत्येक वर्ग तक पहुंच बनाने  का काम किया। 
1986 – 87 की बात होगी ,कल्याण सिंह भाजपा के विधान मंडल दल के नेता थे और राजेंद्र गुप्त जी प्रदेश अध्यक्ष थे ,गाजियाबाद एक बैठक लेने आये। मैं नगर अध्यक्ष था और रमेशचंद तोमर जिलाध्यक्ष थे। हमारे पास किसी के गाड़ी नहीं थी ,जिससे गाड़ी मांगी वह लेकर पहुंचा नहीं । स्टेशन पर हमने उनसे रिक्शा से चलने का प्रस्ताव किया और दोनों नेता बिना किसी संकोच एक रिक्शा में बैठ गए और हम दोनों दूसरी रिक्शा में बैठकर भाजपा के कार्यालय पर पहुंच गए। भाजपा के इन नेताओं की इस सादगी ने ही कार्यकर्ताओ को प्रेरणा दी।
प्रदेश के दो बार वे मुख्यमंत्री रहे , पहली बार 1991 मे भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार में और दूसरी बार 1997 में बसपा के साथ 6-  6 माह के मुख्यमंत्री बनने के समझौते के अनुसार। लेकिन उनका पहला शासन काल सुशासन के रूप में याद किया जाता है। उस सरकार में  अधिकारियों की मैरिट के आधार पर पोस्टिंग की गई। 1991 से पहले भाजपा के नेताओं में नौकरशाहों की पहुंच नहीं थी। इसलिए कल्याण सिंह अधिकारियों को योग्यता के आधार पर नियुक्ति दे पाए।योग्य और सक्षम अधिकारी निश्चय ही अच्छे परिणाम देने में सक्षम होते हैं। अपराधियों ,भूमाफियाओं के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही ने प्रदेश की कानून व्यवस्था को बेहतरी प्रदान की ।निर्दोष को छेड़ो मत दोषी को छोड़ो मत के निर्देश ने पुलिस प्रशासन को स्पष्ट सन्देश था । 
कल्याण सिंह ने अपने कड़क प्रशासक होने का सन्देश 1977 में जनता पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री के रूप में ही दे दिया था। उन्होंने पहले ही सभी डॉक्टरों से तीन विकल्प मांगे और फिर एक स्थान पर 10 वर्ष से अधिक नियुक्ति पाए चिकित्सकों का बिना किसी अपवाद स्थानान्तरण कर दिया। बलरामपुर हॉस्पिटल के डॉक्टर राय को भी तत्कालीन प्रधानमंत्री की संतुति के बाद भी स्थानान्तरण पर जाना पड़ा।कल्याण सिंह कभी निर्णय लेने में जल्दी नहीं करते थे पूरा विचार विमर्श के बाद निर्णय लेते थे। अपने अधिकारियों को भी धैर्य पूर्वक सुनते थे और फिर अपने विवेक से निर्णय लेते थे लेकिन निर्णय के बाद अपने निर्णय पर कायम रहते थे। उन्हें कभी अपने निर्णयों पर अफसोस नहीं रहा।
1992 के नवम्बर की एक घटना याद है। केंद्र ने राज्य योजना के आकार में 15% की कटौती कर दी इसलिए जिलों के परिव्यय में 15 % की कटोती होनी थी। पूरे मंत्रिमंडल की बैठक थी जिसमे सभी विभागीय सचिव भी थे। समय बहुत कम था इसलिए  सम्भवतः मुख्य सचिव ने सुझाव रखा कि सभी जिलों के प्रभारी मंत्री यहां है नियोजन विभाग जिलों का परिव्यय 15% घटाकर सम्बंधित मंत्रीगणों से हस्ताक्षर करा लें।सभी ने सहमति व्यक्त कर दी।लेकिन नियोजन सचिव श्री बक्शी खड़े हुए और बोले कि मुझे क्षमा करें , आप मुझे रखे या हटा दें ,मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगा। जिस फोरम ने पहले योजना स्वीकृत की है ,वही फोरम उसमें संशोधन करने के लिए अधिकृत है। बैठक में सन्नाटा छा गया ।कल्याण सिंह जी ने बड़ी सहजता से कहा कि बक्शी जी की बात बिल्कुल ठीक है कोई बात नहीं ,सभी प्रभारी मंत्री तत्काल अपने प्रभार के जिलों में बैठक आहूत करके  योजना में संशोधन करा लें। न कोई खीज ,न कोई गुस्सा ,न कोई अहंकार , ऐसे व्यवहार कल्याण सिंह जी को अन्य नेताओं से श्रेष्ठ प्रमाणित करते हैं।
कई लोग कल्याण सिंह को अनुदार होने का आरोप लगाते थे लेकिन मैंने उनसे उदार दूसरा कोई नेता नहीं देखा। मुझे  दो ऐसे अवसर याद हैं जब उनके मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री रहते उनके चाहत के अनुसार मैं कार्यवाही नहीं कर सका ,एक ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना के अंतर्गत खरीददारी के विकेंद्रीकरण के मेरे अपने पूर्व के निर्णय को बदलने और दूसरे 0.01 के गुणांक से शिक्षक भर्ती में छुटे उनके एक पूर्व सहयोगी के पुत्र का शिक्षक के लिए चयन । आज वे इस दुनिया मे नहीं हैं ,मैं उनको सादर नमन करता हूँ, दोनों ही सन्दर्भो में न तो उनके चेहरे पर शिकन थी ,न कोई खीज थी और न कोई रोष था। और केवल उसी समय ही नहीं उन्होंने कभी भी इसके लिए कोई नाराजगी व्यक्त नहीं की। ऐसी उदारता कल्याण सिंह को एक लोकतांत्रिक नेता प्रमाणित करती है।
कल्याण सिंह कभी जल्दी में निर्णय नहीं लेते थे ,वे पूरा मंथन का अवसर देते थे ,कई बात तो जिला स्तर के कार्यकर्ताओं को भी विचार विमर्श में शामिल करते थे। अपने मंत्रिपरिषद की बैठकों में भी खुलकर विचार रखने की स्वतंत्रता देते थे।लेकिन निर्णय के बाद अपने निर्णय पर कायम रहते थे। उन्होंने कभी अपने निर्णयों पर अफसोस नहीं किया । ये उनकी दृढ़ता उन्हें राजनेताओं की कतार से अलग खड़ा पाती है। 
(लेखक बालेश्वर त्यागी कल्याण सिंह सरकार में कैबिनेट मंत्री थे)

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