राष्ट्रवाद का अवसरवादी दौर

वर्तमान समय में देश वैचारिक संघर्ष के संकट से गुजर रहा है. ये संघर्ष वास्तविक पंथनिरपेक्षता और तुष्टिकरण के मध्य, कट्टर मजहबी मान्यताओं एवं सर्वधर्म समभाव के मध्य, आसमानी किताब तथा संविधान के नियमों के मध्य है. वैसे किसी भी राष्ट्र या समाज के जीवन में हर समय सैद्धांतिक द्वन्द चलते रहते हैं, जिसका आधार ये होता हैं कि अब किसी राष्ट्र या समाज को किस दिशा में अग्रसर होना है. किंतु एक समय ऐसा आता है ज़ब ये संघर्ष अपनी श्रेष्ठता के दावे के साथ तीव्र एवं तीक्ष्ण हो जाता है. भारत भी इस समय ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है. ऐसे संघर्ष में स्वयं की मान्यताओं एवं संस्कारों के आधार पर  समाज का वर्गीय विभाजन भी होता है. लेकिन इसमें भी एक वर्ग ऐसा होता है जो नितांत अवसरवादी एवं सिद्धांतविहीन होता है और अपने लिए संभवनाओं एवं भविष्य के लाभ के आधार पर इस या उस पक्ष का चयन करता है.
 विभिन्न संचार माध्यमों से एक विचित्र तस्वीर देखने को मिली. पिछले कुछ सालों में हिंदुत्व की सिनेमाई ब्रांड एंबेसडर बन चुकी कंगना रनौत एवं सनातन धर्म के देवी-देवताओं के प्रति अभद्र टिप्पणी करने के आरोपी मसखरे मुन्नवर फारूखी एक ही फ्रेम में मुस्कुराते नज़र आ रहे थे. खबर के अनुसार कंगना के किसी शो में फारुकी ने प्रतिभाग किया था और उसके विजेता बना था. उसी शो में तहसीन पूनावाला भी नज़र आया, जो टीवी डिबेट में हमेशा हिंदुत्व विरोध में अनर्गल तर्क देता रहता है.
 ये वही कंगना हैं जिन्होंने कुछ समय से हिंदी सिनेमा में राष्ट्रवादी और सनातन मूल्यों की स्थापना का बीड़ा उठा रखा था और देश का एक बड़ा वर्ग इनके समर्थन में था. लेकिन अब कंगना रनौत को इनसे कोई दिक्कत नहीं है, यानि मोटी रकम तथा व्यावसायिक लाभ देखकर आसानी से विचारधारा को तिलांजलि देकर पाला बदला जा सकता है. इसी सड़क छाप मसखरे फारुकी, जो ना सिर्फ सनातन धर्म बल्कि गोधरा की वीभत्स घटना तक का मज़ाक उड़ा चुका है, को अब तक मंच ना उपलब्ध करा देने के लिए प्रतिबद्ध भाजपा और संघ के अनुषांगिक संगठनों ने पूरा जोर लगा दिया था. उसी फारूखी को तथाकथित राष्ट्रवादी कंगना मंच उपलब्ध करवा रही थीं एवं उसे प्रमोट भी कर रहीं थीं. कंगना भूल गई कि ज़ब उनपर मुक़दमे लादे जा रहे थे और महाराष्ट्र सरकार उनका ऑफिस जमींदोज करवा रही थी तब यही सनातन समाज उनके समर्थन में डटा था जिसकी भावनायें ये मसखरा आहत करता रहा है.
  दूसरी बात, अल्ट बालाजी के जिस कार्यक्रम को कंगना रनौत होस्ट कर रही थीं वह भी उनकी वैचारिक विरोधी एकता कपूर का है. वही एकता कपूर जिन्हें सेना सम्बंधित अश्लील सामग्री परोसने के लिए कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. इस कार्यक्रम में खुलेआम अनैतिकता को प्रश्नय दिया गया. उधर भाजपा भी एकता कपूर और करण जौहर जैसे लिबरलों की जमात को पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार देने में कोई संकोच महसूस नहीं करती और दूसरी तरफ उसके कार्यकर्त्ता इनके विरोध में भी खड़े रहते हैं.
 इस मामले में दूसरा पक्ष भी मासूम नहीं है. यह फारूखी अभी कुछ समय पहले तक अपना काम बंद करने, बेरोजगारी जैसी समस्याओं का पूरे देश में रोना रो रहा था और इसके लिए दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों की शिकायत कर रहा था. आज उसे ही कंगना रनौत के कार्यक्रम में प्रतिभाग करने और उनसे अवार्ड और मोटी ईनाम राशि लेने में जरा भी दिक्कत नहीं हैं.
 ऐसे ही अभिनेता अक्षय कुमार, जिनकी फ़िल्म लक्ष्मी लव जिहाद का महिमामंडन कर रही थी, इनकी पत्नी ट्विंकल खन्ना अपने सोशल मिडिया अकॉउंट से कश्मीर फाइल्स फ़िल्म का मज़ाक उड़ाकर आलोचनाओं के घेरे में थीं. अक्षय कुमार को ज़ब मुख्य अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तब उनकी नागरिकता पर भी सवाल उठाया गया जिसका आज तक स्पष्ट उत्तर नहीं मिला हैं. ये भी समय देखकर राष्ट्रवाद के समर्थक हो जाते हैं.
  इसी प्रकार पिछले कुछ सालों से राष्ट्रवाद एवं हिंदुत्व के पक्षधर बने हिंदी के कवि कुमार विश्वास आज जिस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के देश विरोधी गतिविधियों तथा उनके खालिस्तानियों से सम्बन्ध के विषय में देश के सचेतक बने हैं, एक समय संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों विहिप और बजरंग दल पर व्यंगात्मक और कटु हमलों में व्यस्त रहते थे. इन्होंने तो उन प्रशांत भूषण तक का बचाव किया था जो एक आतंकवादी मेनन की फांसी रुकवाने आधी को कोर्ट पहुंच जाते हैं. उनसे एक प्रश्न तो बनता है कि इन देश-विरोधी गतिविधियों की जानकारी होने पर वे इतने दिन खामोश क्यूँ रहे? मतलब ये कि देश-हित तभी याद आयेगा ज़ब अपना कुछ बिगड रहा हो.
 हनुमान चालीसा पाठ को लेकर चर्चा में आये राणा दम्पति भी एक समय धर्मनिरपेक्षता के स्वघोषित अलम्बदार थे, पूरे साल दरगाहों के चक्कर काटते दिखते थे, आज दक्षिणपंथी राजनीतिक माहौल देखकर प्रचंड भगवाधारी हो गये हैं. धार्मिक भावनाओं को उभारने पर आधारित जो योजना उन्होंने बनाई थीं, आश्चर्यजनक रूप से महाविकास आघाडी सरकार उसमें फंस गई और राणा दम्पति को राजनीतिक चर्चा के केंद्र में ला दिया. इसी तरह कल तक पंथनिरपेक्षता की आड़ में तुष्टिकरण के अलम्बदार सपा, कांग्रेस जैसे दलों के नेता आजकल पाला बदलकर दक्षिणपंथी राजनीति की होड़ में शामिल हैं. यह समझ पाना अत्यंत कठिन है कि किस तरह ये अवसरवादी अनैतिक लोग राजनीति में शुचिता लाएंगे.
 यही नहीं ऐसे ही पत्रकारों की भी एक लंबी सूची है जो एक समय घोषित वामपंथी थे एवं भाजपा की  राजनीति के कटु विरोधी थे, आज भगवा पाले में खड़े हैं. वर्तमान में इनकी स्थिति ऐसी है कि राजनीतिक मुद्दों पर भाजपा से अधिक तो ये विपक्ष पर हमलावर हैं. इनमें खुद को सत्ता के समर्थन में दिखने की होड़ सी लगी है. ताज़ातरीन मामला उर्दू के एक मशहूर शायर का है, जो कल तक भाजपा के चुनाव जीतने पर उत्तर प्रदेश छोड़ने की धमकी देने वाले अब प्रदेश के मुख्यमंत्री के शान में क़सीदे गढ़ रहे हैं.
 इसमें एक पक्ष सत्ताधारी दल भाजपा का भी है. मशहूर फ्रेंच लेखक ला फोंतेन के लिखते हैं “मनुष्य अपने भवितव्य पर उसी रास्ते में पहुंच जाता है, जिस पर वह उससे बचने के लिए चलता है.” कांग्रेस के शासन काल की प्रचलित चाटुकारिता और स्वार्थी जनों की सत्ता प्रतिष्ठानों तक पहुंच को लेकर भाजपा निरंतर जिस प्रकार हमलावर रहीं हैं, आज स्वयं भी उसी मार्ग पर अग्रसर है.
  वर्तमान हालात ये है कि भाजपा के समर्पित एवं प्रतिबद्ध कॉडर को दरकिनार कर इन अवसरवादियों की जमात पार्टी पर हावी हो गई है. हालांकि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दल-बदलू अवसरवादियों के साथ का दुष्परिणाम भाजपा भुगत चुकी है. ज़ब चुनाव से ठीक पहले दूसरे दलों से आये विधायकों ही नहीं मंत्रियों भी भाजपा को छोड़ विपक्षी दलों में शामिल हो गये थे लेकिन पार्टी अभी भी चेतने को तैयार नहीं है. दूसरी ओर जो लेखक, पत्रकार, कलाकार बुद्धिजीवी आदि भाजपा के गर्दिश एवं पतन के दिनों में उसके वैचारिक संघर्ष में सहभागी बनकर खड़े थे आज हासिये पर हैं, किंतु पार्टी के लिए वे प्राथमिकता नहीं हैं. ख़ैर उन्नति के शीर्ष के बाद ही पतन का मार्ग शुरु होता है और इसका कोई ना कोई मूलभूत कारण अवश्य होता हैं. शायद भाजपा के लिए भी ये वही कारण बनेगा.
मूल प्रश्न पर लौटे तो इसमें कोई समस्या नहीं हैं कि आप किस विचारधारा के समर्थक हैं, या किस पार्टी के पैरोकार हैं, और इसमें किसी को आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए. यहां आपत्ति इनकी भावनात्मक लाभ उठाने की कुटिलता एवं अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर समाज को दिग्भ्रमित करने के प्रयास पर है. ये समझना कठिन है कि काडर आधारित भाजपा को इन अवसरवादियों में इतनी रूचि क्यों हैं? समस्या यही नहीं है, सिने जगत हो, बुद्धिजीवी अथवा पत्रकार, इन वैचारिक प्रतिबद्धता विहीन लोगों की जमात कल सत्ता बदलते ही दूसरे पक्ष के साथ खड़ी हो जाएगी, तब यही लोग भाजपा को अधिक नुकसान पहुंचाएंगे.
पं. प्रेम बरेलवी का शेर है,
  “मुझको सिखा रहा ख़ुदा ख़ुदा
  मज़हब की ईंट जो बजाये है…”
 आश्चर्य हैं कि वैचारिक नैतिकता से हीन ये लोग आजकल देश को राष्ट्रवाद की आचार-सहिंता का ज्ञान दे रहे हैं. यहां मूलभूत मुद्दा ये है कि अपने स्वार्थ में रत ऐसे लोगों द्वारा आम जनता को मुर्ख बनाया जा रहा हैं, जो इनके लिए लकीर खिंचकर मरने-कटने को तैयार है. यहां समर्थन के नाम पर आम लोग जिनके लिए हिंसा पर भी उद्यत हो जा रहे हैं, वे सिर्फ अपने लाभ के लिए जन भावनाओं का उपयोग कर रहे हैं.
 महात्मा गाँधी की उक्ति है, व्यक्ति विचारों से निर्मित प्राणी है. जो लोग स्वयं अपने विचारों के प्रति अस्थिर है, उनका व्यक्तित्व भी खंडित ही होगा. अब ऐसे लोग समाज को निर्देशित करने का प्रयास करें तो कल्पना कीजिये समाज को किस दिशा में जायेगा? अब इस प्रश्न का उत्तर जनता को स्वयं तलाशना है. 

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