इमरजेंसी में लोकसभा के पहले दिन का प्रारंभिक विवरण: 21 जुलाई, 1975

रामबहादुर राय

जिस प्रकार यह प्रस्ताव लाया जा रहा है उससे संसद का सरकार के समक्ष समर्पण ही प्रदर्शित होता है।कांग्रेस के जानेमाने नेता मोहन धारिया का यह कथन है। जैसे ही उन्होंने यह कहा कि लोकसभा में सत्तापक्ष के सदस्यों ने भारी शोर मचाया। वे अविचलित रहे। मोहन धारिया ने तब सीधा निशाना साधा, ‘क्या मंत्री जी (के. रघु रामैया) और प्रधानमंत्री जी (इंदिरा गांधी) यह बताएंगे कि सामान्य वर्षाकालीन सत्र क्यों नहीं बुलाया गया?’ यह प्रश्न गहरे में लोकसभा की गरिमा से जुड़ा प्रश्न है। 

लोकसभा पर इमरजेंसी के दुष्प्रभाव का इसमें राज छिपा है। कौन थे मोहन धारिया? वे पुणे लोकसभा क्षेत्र से 1971 में सदस्य चुने गए थे। उस समय कांग्रेस में थे। लेकिन इंदिरा गांधी की तानाशाही से बेपरवाह उनकी उपस्थिति में चुनौती लोकसभा की अवमानना को दी। वे अगस्त क्रांति के एक कर्मठ क्रांतिकारी भी थे। इमरजेंसी से पहले उन्होंने इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में योजना राज्यमंत्री और निर्माण एवं आवास राज्यमंत्री का जिम्मा संभाला था। फिर भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति को लोकसभा में भी रोकने का जब प्रस्ताव आया तो वे पार्टी की लाइन पर नहीं चले। विरोध की राह पकड़ी।  वह समय साहस, स्वतंत्र चेतना और संकल्प की परीक्षा का था। मोहन धारिया ने उस दिन लोकसभा में इन लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए सत्ता से दोदो हाथ किया।  

वह प्रस्ताव इमरजेंसी में लोकसभा सत्र के पहले दिन आया था। वह 21 जुलाई, 1975 था। उस प्रस्ताव से स्वाधीन भारत की लोकसभा के इतिहास में कलंक का जो बड़ा टीका उस पर लगा, उसके लिए इंदिरा गांधी की सरकार हमेशा  कलंकित बनी रहेगी। आज अगर कोई यह पूछता है कि ऐसा क्यों है और क्यों वह बना रहेगा, तो इसे सहज जिज्ञासा समझना चाहिए कि विरोध। आखिर 50 साल का अंतर जो गया है! पहली बात पहले जानें। इमरजेंसी घोषित होने के बाद लोकसभा का वह पहला दिन था। उस दिन की विषेष रूप से वे लोग भी प्रतीक्षा कर रहे थे जो बंदी जीवन में थे। 

इसका प्रमाण युवा तुर्क चंद्रशेखर की जेल डायरी से मिलता है। 22 जुलाई, 1975 की डायरी में उन्होंने लिखा, ‘आज सरकार की ओर से यह दावा किया गया कि संसद का अधिवेशन बुलाना ही इस बात का प्रमाण है कि भारत में लोकतंत्र अभी जीवित है। पर केवल अन्य समाचार छापने पर समाचार पत्रों पर पाबंदी है, संसद की कार्यवाही भी वे स्वतंत्रता पूर्वक नहीं छाप पाते। आज रेडियो से पता चला कि मोहन धारिया ने इस प्रस्ताव का संसद में विरोध किया। पता नहीं उनकी हालत क्या है? मुझसे अधिक कठिनाई में वही हैं।चंद्रशेखर की आशंका सही निकली। 

कुछ महीनों बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने अपने पूर्व मंत्री मोहन धारिया को गिरफ्तार कर लिया। न्यूर्याक टाइम्स ने 19 दिसंबर, 1975 की नई दिल्ली डेट लाइन से समाचार दिया कि मोहन धारिया को बंबई इलाके से गिरफ्तार कर दिया गया। यह भी लिखा कि अनेक स्थानीय नेता पिछले कुछ महीनों से गिरफ्तार किए जाते रहे हैं। लेकिन मोहन धारिया पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता हैं जिन्हें इमरजेंसी के पांच महीने बाद गिरफ्तार किया गया है जबकि विपक्ष उम्मीद कर रहा था कि उसके नेता रिहा किए जाएंगे। न्यूर्याक टाइम्स ने यह भी अपने समाचार में लिखा कि संसद के मानसून सत्र में मोहन धारिया ने कहा था कि सरकार ने संसद पर जबर्दस्त हमला किया है। उन्होंने अपने भाषण में कांग्रेस के साथियों से अपील की थी कि तानाशाही के सामने संसदीय लोकतंत्र को आत्मसर्पण नहीं करना चाहिए। मोहन धारिया ने 25 जून, 2010 को रेडिफ डाट. काम को एक इंटरव्यू दिया। जिसमें उन्होंने कहा किमुझे गर्व है कि इंदिरा गांधी सरकार का मैं अकेला मंत्री था जिसने इमरजेंसी के विरोध में इस्तीफा दिया। मुझे नासिक की जेल में 17 महीने सरकार ने बंदी रखा।’   

इसे कभी भुलाया नहीं जा सकता कि विपक्ष के अनेक दिग्गज बंदी बनाए गए थे। जो लोकसभा में प्राण फूंकने के लिए जाने जाते थे। ऐसे महनीय नामों में अटल बिहारी वाजपेयी, श्याम नदंन मिश्र, पीलू मोदी, मधु दंडवते, मधु लिमए आदि थे। वे यत्रतत्र बंदी जीवन जी रहे थे। एक अपवाद भी है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रसिद्ध नेता एके. गोपालन पहले बंदी बनाए गए और एक सप्ताह बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। इस कारण वे लोकसभा में उपस्थित रह सके। इस अपवाद में एक रहस्य है। जिसे स्वयं .के. गोपालन ने खोला। वह यह कि उन्हें ही इसलिए छोड़ा गया है जिससे सरकार यह कह सके कि कम्युनिस्टों को गिरफ्तार नहीं किया गया है। लोकसभा जन प्रतिनिधि मंच है। संविधान की एक सुखद उपज है। उसे मतदाता एक स्वरूप देता है। निर्वाचन के चाक पर वह स्वरूप आकार लेता है। वही लोकसभा लोकतांत्रिक गणराज्य के एक बड़े उपकरण की भूमिका निभाती है। लोकसभा की सार्थकता को अनेक आधारों पर निर्धारित किया जाता है। एक आधार स्वस्थ संवाद और लोकमंथन भी है। संविधान निर्माताओं ने लोकसभा को रामराज्य के लिए बनवाई थी। 

इन दृष्टिकोणों से इमरजेंसी में लोकसभा के पहले दिन को देखना आवश्यक है। कुछ स्पष्ट शब्द ऐसे हैं जो मनुष्य के मनोभाव को व्यक्त करते हैं। जैसे, प्रसन्नता, उमंग, उत्सुकता और उत्साह। क्या उस दिन लोकसभा सदस्यों में ये भाव थे? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या ऐसी आशा उस समय किसी को थी? इसका उत्तर है, आशंकाएं ही ज्यादा थी। दूसरा प्रश्न, क्या उस समय लोकसभा सत्र के प्रारंभ में सदस्यों में प्रसन्नता थी? क्या उनमें उमंग था? क्या उनमें उत्साह था? 50 साल बाद यह हमें अवश्य जानना चाहिए कि उस दिन वास्तव में लोकसभा सदस्यों के चेहरे पर भाव जो थे वे कैसे थे? इसे जानने के लिए एक प्रामाणिक स्रोत है। वह उपलब्ध है। जिसे लोकसभा सचिवालय ने संभाल कर रखा है। उसे पढ़ने मात्र से सत्य स्वयं बोलने लगता है। दूसरी बात कि वह पांचवीं लोकसभा थी। उसका चौदहवां सत्र उस दिन प्रारंभ हुआ था।

उस दिन की लोकसभा वादविवाद को पढ़ने से यह पता चलता है कि किसने क्या कहा और अध्यक्ष ने व्यवस्था क्या दी, लेकिन मनोभाव जानने के लिए अक्षरों में से झांकते अर्थ समझने होंगे। इसका यह एक सटीक उदाहरण है। पश्चिम बंगाल के बर्धमान लोकसभा क्षेत्र से सोमनाथ चटर्जी सदस्य थे। वे 2004 में लोकसभा के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने लोकसभा शुरू होते ही व्यवस्था का एक प्रश्न  उठाया। अध्यक्ष ने अनुमति नहीं दी। अध्यक्ष ने जो कहा वह यह है, ‘यह छोटा सत्र है और केवल सरकारी कार्य के लिए है।इस पर सोमनाथ चटर्जी की टिप्पणी उनके मनोभाव की हल्की सी झलक देती है। जिसमें लाचारी है। उन्होंने जवाब में तब टिप्पणी की थी कियह छोटासा अधिकार है अन्यथा हमारे सभी अधिकार और विशेषाधिकार समाप्त हो जाते हैं।इस कथन में सब कुछ गया है।  

लोकसभा की कार्य प्रणाली से जो थोड़ा भी परिचित होगा वह यह समझ जाएगा कि उस दिन लोकसभा के वे सदस्य जो सदन में पहुंच सके वे भी अपने अधिकारों और विशेषाधिकारों से वंचित कर दिए गए थे। जो नहीं पहुंच सके, उनकी व्यथाकथा को .के. गोपालन ने स्वर दिया। उन्होंने कहा, ‘स्थिति बड़ी ही गंभीर है। लोकसभा के कुछ सदस्य इस समय यहां नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि वह अपनी मर्जी से यहां नहीं आए बल्कि इसलिए नहीं सके क्योंकि उन्हें नजरबंद कर दिया गया है। श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके साथियों ने संसद को एक मजाक बना कर रख दिया है। मैं भी एक सप्ताह तक जेल में था।जेलों में बंद किए गए सांसद सचमुच अपनेअपने सदन में पहुंचने के लिए किस वेदना से तड़प रहे होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। 

लोकसभा की कार्यवाही पढ़कर सहज ही यह अनुभव गहरा होने लगता है कि उस दिन तानाशाही का राजरथ संसदीय मर्यादाओं को कुचलते हुए लोकसभा के मर्मस्थल पर पहुंच गया था। जिसे लोकसभा अध्यक्ष डा. गुरदयाल सिंह ढिल्लो ने अपनी दोहरी विवशता में देखा और उसी भाव से सदन में व्यवस्थाएं दी। क्या वे भी बंदी हो जाने की आशंका से ग्रस्त थे

जो भी हो, उस दिन लोकसभा में कैसी मायूसी थी इसका वर्णन लोकसभा के पहले अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर के बेटे प्रोफेसर पुरूषोत्तम गणेष मावलंकर ने अपनी पुस्तक में की है। उनकी पुस्तक है, ‘नो, सर वे अहमदाबाद से लोकसभा के निर्दलीय सदस्य थे। उन्होंने लिखा है, ‘लोकसभा का वातावरण तनाव और उदासी से भरा था। लोकसभा वही थी। लेकिन उसकी रंगत पूरी तरह से बदली हुई थी। स्वतंत्र और स्वाभाविक लोकतांत्रिक चमक गायब हो गई थी। लोकतंत्र के इस सदन पर काले और डरावने बादल मंडरा रहे थे।वे यह भी लिखते हैं कि उस दिन 11 बजकर 20 मिनट पर संसदीय कार्य मंत्री के. रघु रमैया ने एक प्रस्ताव रखा। वह प्रस्ताव तानाशाही का पहला दस्तावेज था। उसमें यह सूचना थी कि इंदिरा गांधी की सरकार जो निर्णय संसद से करवाना चाहती है वे ही विषय विचार के लिए रखे जाएंगे। किसी भी सदस्य को पहले की भांति कोई महत्वपूर्ण विषय उठाने का अवसर नहीं मिलेगा।

इस सूचना में दो बातें छिपी हुई हैं। इंदिरा गांधी की सरकार इमरजेंसी में लोकसभा को अपनी कठपुतली बनाने जा रही थी। यह पहली बात है। दूसरी बात यह कि कांग्रेस को विपक्ष की कोई परवाह नहीं थी। इसलिए उस प्रस्ताव की सूचना को सुनते ही विपक्ष सन्न रह गया। थोड़ी देर बाद कुछ सदस्य संभले। फिर विरोध में खड़े हो गए। विपक्ष का धर्म निभाने का वह एक प्रतीकात्मक प्रयास था। हर सदस्य व्यवस्था का प्रष्न उठाने के लिए तत्पर था। लोकसभा वादविवाद में 9 नाम दर्ज हैं। वे नाम हैं, ईरा सेझियन, जगन्नाथ राव जोशी, इंद्रजीत गुप्त, सोमनाथ चटर्जी, त्रिदिव चौधरी, पी.के. देव, मोहन धारिया, पुरूषोत्तम गणेश मावलंकर, सिब्बन लाल सक्सेना, के.एस. चावड़ा, एस.एम. बनर्जी। इनमें सिब्बन लाल सक्सेना का स्थान सबसे अलग है। वे संविधान सभा के भी अत्यंत मुखर सदस्य थे। उनका उस दिन भाषण हालांकि संक्षिप्त है पर अत्यंत मारक है। उन्होंने कहा किदुनिया के किसी लोकतंत्र में ऐसे प्रस्ताव के बारे में मैंने सुना है पढ़ा है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जो प्रस्ताव रखवाया है वह सर्वथा अनुचित है। अगर यह प्रस्ताव पारित हो जाता है तो उससे संसद मजाक होकर रह जाएगी। मैं इस प्रस्ताव का जबर्दस्त विरोध करता हूं।उनके इस भाषण में दो सूचनाएं भी हैं। पहली कि उन्होंने एक विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव दिया था क्योंकि लोकसभा के 21 सदस्य जेलों में थे। दूसरी सूचना यह है कि उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सलाह दी कि सामान्य सत्र बुलाया जाना चाहिए। जिससे देश के बड़े सवालों पर चर्चा की जा सके। इस आधार पर यह मानना उचित होगा कि उस दिन संविधान निर्माताओं का अपमान किया गया। 

अध्यक्ष बारबार कह रहे हैं किकोई व्यवस्था का प्रष्न नहीं है। यह सामान्य सत्र नहीं है। यह केवल सरकारी कार्य के लिए है।आज इसे जो पढ़ेगा वह मान लेगा कि अध्यक्ष के इस अड़ियल रूख पर सदस्य मन मार कर चुप हो गए होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ था। एक सदस्य पी.के. देव ने विषय बदलकर कहा किकार्य सूची के बारे में मेरा व्यवस्था का प्रश्न है।उन्होंने सोचा होगा कि अध्यक्ष इसमें उलझ जाएंगे। उनके अनुमान के विपरीत अध्यक्ष ने तुरंत कहा, ‘कोई व्यवस्था का प्रश्न नहीं है। प्रश्नों के लिए कोई समय नहीं है।पी.के. देव ने हार नहीं मानी और बोले, ‘जहां तक कार्यवाही का संबंध है, सभा की सारी कार्यवाही प्रक्रिया संबंधी नियमों के अनुसार होनी है।अध्यक्ष की एक ही रट थी, ‘बैठ जाइए।पी.के. देव ने पुनः विषय बदला और एक सवाल उठा ही दिया। अध्यक्ष ने उसे सुना और कहा, ‘मैं अनुमति नहीं दे सकता हूं।सदन के मुखिया की ऐसी विवशता लोकसभा ने पहले नहीं देखी होगी।

 कांग्रेस के सांसद शंकर दयाल सिंह ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बातों से ऐसा लगा मानो वे संसदीय कार्य प्रणाली को बदलना चाहती हैं। संसद का सत्र कम होगा, छोटा होगा। समितियों की बैठकें ज्यादा होंगी।यह 11 जुलाई, 1975 की बात है। उस दिन शंकर दयाल सिंह साउथ ब्लाक में इंदिरा गांधी से मिले थे। करीब 20 मिनट उनमें बातें होती रही। उनसे पहले कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्त मिले थे। उनके बाद अरूणा आसफ अली को मिलना था। वे वहां प्रतीक्षा में बैठी थीं। संसद सत्र से दस दिन पहले की इस बातचीत का विषेष अर्थ है। उसका संबंध संसदीय लोकतंत्र पर अंकुश की मानसिकता से है। 

इमरजेंसी के पहले संसद सत्र में उसकी पहली झलक मिली। संसदीय कार्य मंत्री ने जो प्रस्ताव रखा उसमें स्पष्ट लिखा हुआ था कि प्रश्नकाल नहीं होगा। इसे ही तानाशाही कहते हैं। लोकतंत्र का दूसरा नाम हैप्रश्न पूछने का पूरा अवसर। संसद की कार्य व्यवस्था में इसीलिए सबसे पहले एक घंटे का प्रश्नकाल होता है। संसद के लिए जिस दिन अधिसूचना जारी होती है उसी दिन से सांसद अपने प्रश्न पूछने लगते हैं। जो मंत्रालयवार निर्धारित होता है। प्रश्नकाल ही है जिसमें एक तरफ सरकार होती है और दूसरी तरफ जनप्रतिनिधि। सत्ता और विपक्ष नहीं होता, सिर्फ होता है जनप्रतिनिधि बनाम सत्ता। संसदीय कार्य मंत्री में कार्य नियामावली के स्थगन का प्रस्ताव रखकर संसद को इमरजेंसी के घेरे में ले लिया।

लोकसभा अध्यक्ष को उन 9 सदस्यों ने मजबूर कर दिया। अंततः उन्हें इस प्रस्ताव के गुणदोष पर चर्चा करानी पड़ी। चर्चा से निकला कि प्रस्ताव संविधान और संसद पर इमरजेंसी का हमला है। वह चर्चा करीब डेढ़ घंटे चली। सभी 9 सदस्य बोले। ईरा सेझियन ने केवल विरोध किया बल्कि सरकार को आईना भी दिखाया। उन्हांेने कहा किजो नियम निलंबित किए जा रहे हैं उनका उल्लेख प्रस्ताव में होना चाहिए। एकमुष्त निलंबन अनुचित है।हर सदस्य नियमों को तिलांजलि देने का विरोध कर रहा था। प्रोफेसर मावलंकर ने एक नई बात उठाई। उन्हांेने कहा किइस प्रस्ताव में आपात सत्र शब्द का प्रयोग किया गया है। नियमों में सामान्य सत्र या गोपनीय सत्र की व्यवस्था है। यह आपात सत्र असाधारण है। इसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। इसकी शब्दावली स्पष्ट नहीं है।’ 

जोजो प्रश्न सदस्यों ने उठाए उनके जवाब तो कार्यवाही में नहीं है। मंत्री के. रघु रामैया के कथन को पढ़ने और उसमें जवाब खोजने पर भी जवाब नहीं मिलते। हों, तब तो मिले। उनका भाषण संक्षिप्त है। उसके बाद यह प्रस्ताव पारित हुआ– ‘यह सभा संकल्प करती है कि चूंकि लोकसभा का वर्तमान सत्र कतिपय अविलंबनीय और आवश्यक सरकारी कार्य को निष्पादित करने हेतु बुलाया गया एक आपातकालीन सत्र है, इसलिए इस सत्र के दौरान केवल सरकारी कार्य ही लिया जाए तथा कोई भी अन्य कार्य जैसे प्रश्न, ध्यान आकर्षण और गैरसरकारी सदस्य का कोई अन्य कार्य सभा में प्रस्तुत अथवा निष्पादित किया जाए तथा इस विषय में लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्यसंचालन संबंधी नियमों के सभी संगत नियमों को एतद्द्वारा उस सीमा तक निलंबित किया जाता है।मतविभाजन से प्रस्ताव के पक्ष में 301 वोट पड़े और विरोध में 76 सदस्यों ने वोट डाला। इमरजेंसी में लोकसभा के पहले दिन का यह प्रारंभिक विवरण है। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *