असहयोग के समर्थन में कुछ बातें

गांधी जी ने गुजराती के नवजीवन, 3-10-1920 अंक मेंं असहयोग पर लिखा। इस लेख के इस वाक्य से इसका सार समझ सकते हैं।अगर शिक्षकों में वीरता या बहादुरी आ जाए, उनकी समझ में आ जाए कि जो सल्तनत इंसाफ नहीं करती और अपने, अन्याय का प्रायश्चित नहीं करती, उससे वेतन नहीं लिया जा सकता, तो गुजरात में आज ही स्वराज हो जाए। शिक्षक अगर हिम्मत करके कहें कि हम भीख मांगकर भी, सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा ही देंगे, तो आकाश में देवता भी देखने आएंगे और रूपयों की वर्षा करेंगे।

किसी समय मैं खुद भी शिक्षक था और अब भी यह दावा किया जा सकता है कि शिक्षक ही हूं। मुझे शिक्षा का अनुभव है। मैंने उसके प्रयोग करके देखें हैं। यह काम करते-करते मुझे ऐसा लगा कि जिस जाति के शिक्षक पुरूषत्व खो बैठते हैं,वह जाति कभी उठ नहीं सकती।हमारे शिक्षक अपना पुरूषत्व जरूर गंवा बैठे हैं। जो वे करना नहीं चाहते,वही उन्हें मजबूरन करना पड़ता है। मार-पीटकर उनसे कोई कुछ नहीं कराता,लेकिन सूक्ष्म बलात्कार तो उन पर होता ही है। अपने बड़े अफसरों की धमकियों,वेतन के नुकसान या वेतन न बढ़सकने की धमकियां या सूचनाओं से शिक्षक घबरा जाते हैं।

अब हमारे सामने ऐसा मौका आ खड़ा हुआ है,जब शिक्षक और शिक्षिकाएं अपनी जान, अपना माल और अपना वेतन,सब कुछ जोखिम में डालकर भी साहस के साथ सच्ची बात विद्यार्थियों के सामने रख दें। अगर वे ऐसा नहीं कर सकते तो अपनी आजीविका आजीविका का साधन उन्हें छोड़ देना चाहिए। इतना अगर आज मैं शिक्षकों को बता दूं,तो मेरा आज का काम निपट गया। मेरे खिलाफ शास्त्रीय जैसे महान शिक्षक हैं। हिन्दू विश्वविद्यालय-जैसी संस्था के संस्थापक पंडित मालवीय जी भी मानते हैं कि मैं जनता को उलटे रास्ते ले जा रहा हूं। जो राष्ट्रवादी दल के हैं, उन्हें भी शंका है। फिर भी मुझे लगता है कि मैं सही रास्ते पर हूं।

बगदाद से आए हुए एक सज्जन ने मुझे वहां का अपना अनुभव सुनाया, जिससे मैं चकित हो गया हूं। मैं कहता हूं कि हिन्दुस्तान में रहना मेरे लिए मुश्किल हो गया है। अगर मैं चौबीसों घंटे असहयोग का ही विचार न करता रहूं, सोते वक्त भी मेरा मन इसी विचार से शांत होता है तो मेरे लिए हिन्दुस्तान में रहना असंभव हो जाये। मैं जानता हूं कि बगदाद के अपढ़ अरब हमसे सैकड़ों दर्जे आगे बढ़े हुए हैं। ये सज्जन कोई मामूली आदमी नहीं हैं। वे बगदाद में सरकारी नौकरी में बड़े ओहदे पर थे। वे अंग्रेज सरकार के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने मुझसे वही कहा है, जो उन्हें अनुभव हुआ। गंगाबेन ने (एक विधवा महिला जो बाद में साबरमती आश्रम में रहने लगीं। उन्होंने गांधीजी के अनुरोध पर बीजापुर में चरखे की खोज की थी) उनसे पूछा, क्या वहां अंग्रेजों का राज्य कायम रहेगा? उन्होंने कहा, ‘‘वह क्या हिन्दुस्तान है?’’ जब तक एक भी अंग्रेज मैसोपोटामिया में रहेगा, तब तक अरब चैन से नहीं बैठेंगे। अरबों के पास गोला-बारूद या तलवार वगैरा नहीं है, होगा भी तो निकम्मा। किंतु एक सामग्री उनके पास जरूर है। वे मानते हैं कि ‘‘यह देश हमारा है। अपने इस देश में, जिसे हम न रहने दें, वह एक पल भी नहीं रह सकता।’’

अंग्रेज सरकार ने वहां जितने सिख सैनिक भेजे, उन सबको उन्होंने काट डाला। मैं हिन्दुस्तान को यह सीख नहीं देता। मैं तो उलटे इस तरफ जाने से लोगों को रोकता हूं। अरबों का सिखों से कोई विरोध नहीं था। हमें तो यही देखना है कि अरबों का कमसद क्या था? अंग्रेजों ने उन्हें बड़ी-बड़ी आशाएं बंधाई। बगदाद में इतनी गर्मी पड़ती है कि आप सब जैसे यहां बैठे हैं, वैसे वहां की रेत में नहीं बैठ सकते। वहां की रेत इतनी तप जाती है कि उस पर खाना पकाया जा सकता है। अंग्रेज सरकार ने कहा कि हम तुम्हारे लिए पक्की सड़कें बनाएंगे, रेल लाएंगे और जिनसे तुम्हें सुख मिले, वे सब सहूलियतें कर देंगे। तुम्हें शिक्षा देंगे। मोटर भी अरबों ने पहले-पहल अभी-अभी देखी। किंतु अरब तो एक ही बात जानते थे। उन्होंने कहा, ‘‘तुम हमारा मुल्क लेने आए हो।’’ यहां के मुसलमानों से पहले ही मैसोपोटामिया के मुसलमान, अंग्रेजों को अपने देश से निकाल रहे हैं।

अंग्रेजों के हवाई जहाज उन्हें डरा नहीं सकते। हवाई जहाज हो या और कुछ हो, अरबों को इससे क्या? वे तो  प्राणों को हथेली पर लिए फिरते हैं। उनके पास है क्या, जो कोई ले लेगा? वे अपने खुद के लिए नहीं लड़ते। उनके कपड़े चमड़े के होते हैं। वे तम्बू में रहने वाले ठहरे। अपने देश को, भले ही वह रेतीली हो, उन्हें बचाना है। बगदाद शारीफ में, जो पाक जमीन है और जहां कई पीर हो चुके हैं, बिना इजाजत के कौन जा सकता है? वहां अंग्रेज, सिख या उनके भाई-बंधु कोई नहीं रह सकता।

अरब हमसे कहीं ज्यादा बढ़े-चढ़े हैं। ‘‘यह हमारा देश है, इस पर कोई अंगुली उठाए तो हम उसकी अंगुली काट डालेंगे, तीसरे को यहां रहने न देंगे।’’ इस जोश में हैं, वे ही वास्तव में सुखी हैं। यदि हम मानते हों कि अरब जंगली हैं और हम सभ्य हैं, तो हम उनके और खुद अपने साथ बेइनसाफी करते हैं। हमें गुलाम होने पर भी थोड़े-बहुत सुख और भोग मिलते हैं। जब तक इस तरह के भोग-विलास की इच्छा हम रखते हैं तब तक हम अरबों से घटिया ही हैं।

हमारे बाप-दादा कह गए हैं, वेदों और उपनिषदों में कहा गया है कि पवित्र भूमि को अपवित्र न होने दो। दूसरे लोग तुम्हारी धरती पर पैर रखें तो मेहमान बनकर ही रख सकते हैं। जिसने आजादी को खो दिया, उसने सब कुछ खो दिया; अपना धर्म भी खो दिया।

मैं यह नहीं मानता कि अंग्रेजी राज्य में हम अपना धर्म शांति से पाल सकते हैं और मुसलमानी राज्य में नहीं पाल सकते थे। मैं जानता हूं कि मुसलमानी राज्य पीड़क था; उसमें घमंड था। आज का अंग्रेजी राज्य तो नास्तिक है, धर्म से विमुख है। इस राज्य में हमारा धर्म जोखिम में पड़ गया है।हमारे आप-पास के मुल्कों में पठानों, ईरानियों और अरबों की हालत हमसे अच्छी है। हमारी-जैसी शिक्षा उन्हें नहीं मिलती, फिर भी वे हमसे बढ़कर हैं।इस तरह अपनी दीन दशा का चित्र खींचने के बाद, मैं शिक्षकों के सामने अपना मामला पेश करता हूं। जब तक हम अपनी शिक्षा को कुरबान करने के लिए तैयार न होंगे, तब तक हम देश को स्वतंत्र नहीं कर सकेंगे।

आजकल बहुत से विद्यार्थी मेरे पास आकर अपनी बात इस ढंग से कहते हैं कि दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। फिर भी मैं देखता हूं कि वे घबराते हुए हैं। वे ऐसे सवाल करते हैं कि आज हम स्कूल छोड़ दें तो कल ही दूसरा स्कूल मिलेगा या नहीं। यह शिक्षा का मोह है। यह कोई नहीं कह सकता कि मैं शिक्षा का विरोधी हूं। मैं पल भर भी पढ़े या विचार किए बगैर नहीं रहता। लेकिन जब चारों तरफ आग लगी हो तो हम डिकंस (चार्ल्स डिकंस 1812-1870-19वीं शाताब्दि के सर्वाधिक लोकप्रिय अंग्रेज उपन्यासकार) या ‘बाइबल’ लेकर पढ़ने नहीं बैठ सकते। इस वक्त देश में दावानल सुलगा हुआ है। इस समय शिक्षा का मोह हमें हरगिज न रखना चाहिए।

अगर आप निश्चित रूप से यह मानते हों कि अंग्रेजों ने पंजाब और खिलाफत के मामले में हिन्दुस्तान पर जुल्म किया है, उस दंगा दी है, तो जब तक इस जुल्म का वे पूरा प्रायश्चित न करें, अपना मैला दिल पूरी तरह साफ न कर लें तब तक उनसे किसी तरह का दान, वेतन या शिक्षा लेना बड़ा भारी पाप है। हम राक्षस से शिक्षा नहीं ले सकते। मैले हाथों से दिया जाने वाला शुद्ध-से-शुद्ध शिक्षण भी मैला ही है। अंग्रेज तो अपनी गंदगी को भी सफाई कहकर बताते हैं।

इस वक्त हम में जो दीनता है, पामरता है और हम जिस भ्रम में पड़े हुए हैं, वह अंग्रेजी शिक्षा का ही प्रताप है। यह कहना सरासर झूठ है कि हमें अंग्रेजी शिक्षा न मिली होती तो हम इस वक्त कोई हलचल न करते होते।देश के लिए मर मिटने की जो वृत्ति अरबों में है, वह हम में नहीं हैं। मैं भविष्यवाणी करता हूं कि जब तक हम ऐसी गिरी हुई हालत से बाहर नहीं निकलेंगे, तब तक हिन्दुस्तान आजाद नहीं हो सकेगा।

शिक्षकों और प्रोफेसरों से मैं हिम्मत के साथ कहता हूं कि प्रजा में उमंग और उत्साह भरना हो, तो आप कल ही इस्तीफा दे दें। इस्तीफा देने वाला शिक्षक विद्यार्थियों को बड़े-से-बड़ा सबक सिखाएगा।अगर शिक्षकों में वीरता या बहादुरी आ जाए, उनकी समझ में आ जाए कि जो सल्तनत इंसाफ नहीं करती और अपने, अन्याय का प्रायश्चित नहीं करती, उससे वेतन नहीं लिया जा सकता, तो गुजरात में आज ही स्वराज हो जाए। शिक्षक अगर हिम्मत करके कहें कि हम भीख मांगकर भी, सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा ही देंगे, तो आकाश में देवता भी देखने आएंगे और रूपयों की वर्षा करेंगे।

 

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