जम्मू-कश्मीर के इतिहास में नया अध्याय

रामबहादुर राय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को ‘जम्मू और कश्मीर के लिए विकास, लोकतंत्र और गरिमा’ प्रदान करने वाला बताया है। सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद-370 और 35-ए पर भारत सरकार के निर्णय को चुनौती दी गई थी। यह विषय सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के समक्ष था। 5 अगस्त, 2019 को भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 और 35-ए को हटाने का निर्णय लिया। इसे सुप्रीम कोर्ट में अगले दिन ही चुनौती दी गई। चुनौती देने वालों की संख्या बढ़ती रही। सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान पीठ को सौंपा। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, वरिष्ठ जज एस.के. कौल, संजीव खन्ना, बी. आर. गवई और सूर्यकांत की पीठ को देश ‘पंच परमेश्वर’ मानेगा। इसी पीठ ने जो निर्णय सुनाया है, वह हर तरह से ऐतिहासिक है।

अवश्य ही वे इस निर्णय से दुखी हुए, जो विघ्नसंतोषी हैं। उनके नाम गिनाना अनावश्यक है। यह जानना उससे ज्यादा आवश्यक है कि कैसे सुप्रीम कोर्ट का जम्मू-कश्मीर संबंधी निर्णय संविधान को संपूर्णता प्रदान करता है। अनुच्छेद-370 और 35-ए के कारण भारत का संविधान अपूर्ण था। ऐसी उलझन दशकों से बनी हुई थी कि कैसे संविधान पूर्ण हो। कैसे भारत का एकीकरण पूरा हो। क्या कोई सोच सकता था कि ऐसा सुखद समय जल्दी ही आएगा! यह हर भारतीय का सपना था। उस सपने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने दृढ़ निश्चय से 5 अगस्त, 2019 को पूरा किया। भारत सरकार ने संविधान के प्रावधानों का पूरा पालन करते हुए यह कार्य किया। लेकिन जो लोग अंड़गेबाजी में माहिर हैं, वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। ऐसे विषय में सुप्रीम कोर्ट ही है जिसे संविधान के प्रावधान का पालन हुआ है या नहीं, यह व्याख्या करने का अधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय की उलझन देखी। उसकी गंभीरता समझी। एक संवैधानिक पीठ बनाया। इस तरह 2020 से सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन यह विषय था। उसे कुछ प्रश्नों को सुलझाना था। पहला, क्या अनुच्छेद-370 का प्रावधान अस्थायी प्रकृति का था या फिर उसे संविधान में स्थायी दर्जा प्राप्त हो गया था? दूसरा, क्या अनुच्देद-370(1)(डी) की शक्ति का प्रयोग करते हुए अनुच्छेद-367 में संशोधन कर राज्य की संविधान सभा की जगह विधानसभा करना संविधान सम्मत है? तीसरा, क्या अनुच्छेद-370(1)(डी) शक्ति का प्रयोग करते हुए भारत का संपूर्ण संविधान जम्मू-कश्मीर में लागू किया जा सकता है? चौथा, क्या जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की संस्तुति के बगैर राष्ट्रपति का अनुच्छेद-370 को समाप्त करना संविधान सम्मत है? पांचवां, क्या जम्मू-कश्मीर में 20 जून, 2018 को राज्यपाल शासन घोषित करना और उसके बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा को भंग करना संविधान सम्मत था? छठवां, क्या जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति द्वारा 19 दिसंबर, 2018 को अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति शासन घोषित किया जाना संविधान की नजर में वैध था? सातवां, क्या जम्मू-कश्मीर को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 के जरिए दो केंद्र शासित प्रदेशों, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विभाजित किया जाना वैध था? आठवां, क्या अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू होने के दौरान जब विधानसभा या तो भंग हो या निलंबित हो, जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा केंद्र शासित प्रदेश में परिवर्तन किया जा सकता है?

इन प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट ने पूरा विचार किया। इन प्रश्नों से याचिका कर्ताओं ने कुछ तर्क दिए। वे ऐसे तर्क हैं जिन्हें कुतर्क कहना चाहिए। उनका एक तर्क यह रहा कि जम्मू-कश्मीर का जब विलय हुआ तो उसकी एक शर्त थी कि उसे आंतरिक संप्रभुता प्राप्त थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे सचमुच कुतर्क ठहराया। यह निर्णय सुनाया कि जम्मू-कश्मीर को किसी प्रकार की संप्रभुता प्राप्त नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसका कारण भी समझाया। यह उसके निर्णय में स्पष्ट लिखा हुआ है कि 25 नवंबर, 1949 को जम्मू-कश्मीर के युवराज कर्ण सिंह ने एक सार्वजनिक सूचना प्रसारित की। उसमें यह स्पष्ट किया गया कि भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर पर लागू होगा अगर राज्य का संविधान बाधक बनता है तो उसे अमान्य कर दिया जाएगा। उस सूचना में यह बात भी थी कि जम्मू-कश्मीर का संविधान राज्य और केंद्र के संबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए है। राज्य के संविधान में संप्रभुता का कोई उल्लेख नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर पर दूसरे राज्यों की तरह ही लागू होता है। डा. कर्ण सिंह इस समय 92 साल के हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत किया है। इसे हमेशा याद किया जाएगा। डा. कर्ण सिंह ने 3 नवंबर, 2022 को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में एक लेख लिखा। जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘अक्टूबर 26, 1947 को मेरे पिता महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर जम्मू स्थित हरि निवास में हस्ताक्षर किया था।’

दूसरा प्रश्न था कि अनुच्छेद-370 स्थायी है या अस्थायी? सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि यह प्रावधान अपने ऐतिहासिक संदर्भ में अस्थायी है। इसे दो लक्ष्यों को ध्यान में रखकर अस्थायी रूप में लागू किया गया था। पहला यह कि राज्य का संविधान पूरा होने तक यह एक अंतरिम व्यवस्था थी। दूसरा यह कि युद्ध के कारण एक परिस्थिति विशेष हो गई थी। उसकी यह मांग थी। सुप्रीम कोर्ट ने बताया है कि अनुच्छेद-370 को पढ़ने से यह बात अपने आप खुलती जाती है। प्रश्न यह है कि जम्मू-कश्मीर के संविधान का क्या होगा? इसका उत्तर भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में दे दिया है। वह यह है कि अनुच्छेद-370 के हटने के बाद भारत का संविधान वहां पूरी तरह लागू हो जाता है। इसलिए राज्य के संविधान की अब कोई जरूरत नहीं है।

एक प्रश्न यह भी था कि अनुच्छेद-370 के हटाए जाने से क्या संघीय ढांचे को कोई नुकसान हुआ है? इसका उत्तर विशेष रूप से जज संजीव खन्ना ने अपने निर्णय में सुनाया कि ऐसा नहीं है। नई व्यवस्था में जम्मू-कश्मीर के निवासी भारत के नागरिकों के समान ही अधिकारों का उपयोग कर सकते हैं। उनको किसी प्रकार से भी संवैधानिक अधिकारों से रहित नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 16 दिन की सुनवाई की। उस पर 11 दिसंबर को निर्णय सुनाया। हर संवैधानिक प्रश्न का सुप्रीम कोर्ट ने करीब-करीब समाधान दे दिया है। गृहमंत्री अमित शाह   ने ही 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-370 हटाने का विधेयक संसद में रखा था। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर कहा कि विपक्षी दलों की यह पराजय है। सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर के संविधान की वैधता को समाप्त कर दिया है। उन्होंने विपक्ष से पूछा कि वे अब कैसे कह सकते हैं कि अनुच्छेद-370 गलत तरीके से हटाया गया।

लेकिन जिन्हें आलोचना करनी है और कुतर्क करना है वे अपना काम करते रहेंगे। यह बात अलग है कि उनको समय ही समझाएगा। एक समूह है जो अनुच्छेद- 370 पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की इसलिए आलोचना कर रहा है क्योंकि उनका कहना है कि इससे भारत के संघीय ढांचे को चोट पहुंचेगी। यह वास्तव में तर्कसंगत बात नहीं है। भारत विभाजन के बाद संविधान निर्माताओं ने भारत की एकता-अखंडता को नंबर एक पर रखा। इसलिए संविधान में संघीय ढांचे की व्यवस्था तो है, लेकिन वह भारत की एकता की कीमत पर नहीं है। जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद-370 का प्रावधान भारत की एकता में न केवल बाधक था, बल्कि जम्मू-कश्मीर राज्य के नागरिकों में भी भेदभाव का बड़ा कारण था। जिसे हटा देने से राज्य का भारत में विलय का कार्य पूरा हुआ और भेदभाव की जड़ें समाप्त हो गई।  

यह संयोग ही था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के ही दिन गृहमंत्री अमित शाह संसद में जम्मू-कश्मीर आरक्षण विधेयक और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन संशोधन विधेयक पेष किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर की समस्या के लिए पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जिम्मेदार हैं। ‘हमारी सेना जीत रही थी। वे दो दिन रूक जाते, तो आज का पाकिस्तान-अधीनस्थ कश्मीर तिरंगे के तहत होता।’ गृहमंत्री अमित शाह ने उस इतिहास की याद दिलाई जिसकी पीड़ा तब तक बनी रहेगी, जब तक पाकिस्तान के अधीन हिस्से को जम्मू-कश्मीर में मिला नहीं लिया जाता। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से अनेक अच्छी बातें अपने आप होंगी। जैसे, जम्मू-कश्मीर में धार्मिक उन्माद घटेगा। जम्मू-कश्मीर की स्वायतता से अलगाववाद को बल मिलता था। अब इसका वातावरण नहीं बनाया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से तीन बातें सुनिचिश्त हो गई हैं। पहली, जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलेगा। दूसरी, सितंबर, 2024 से पहले विधानसभा के चुनाव हो जाएंगे। तीसरी, जम्मू-कश्मीर की राजनीति का रंग-ढंग पूरी तरह बदल जाएगा। कुछ बातें इसके अलावा हैं। उनकी शुरूआत हो गई है। जम्मू-कश्मीर में सिक्ख समुदाय की एक मांग वर्षों  से थी। वह उपेक्षित थी। राज्य में साढ़े छः लाख सिक्ख हैं। वे मांग करते रहे हैं कि आनंद मैरेज एक्ट को लागू किया जाए। उसे अब लागू कर दिया गया है। इसी तरह जम्मू-कश्मीर की अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अधिकारों का जो हनन हो रहा था वह अब समाप्त हो जाएगा। इसका एक उदाहरण ऐसा है जिसे वे लोग ही जानते हैं, जो भुक्त भोगी हैं। घटना 1957 की है। सफाई कर्मचारियों की जम्मू-कश्मीर में हड़ताल हो गई थी। उस समय राज्य सरकार ने पंजाब से कुछ सफाई कर्मचारियों को एक आश्वासन पर बुलाया कि उन्हें समस्त नागरिक अधिकार दिए जाएंगे। ऐसे करीब तीन सौ दलित परिवार जम्मू-कश्मीर आए। लेकिन उन्हें नागरिकता नहीं दी गई। इस कारण ऐसे ही परिवार से राधिका गिल को बीएसएफ में सिपाही बनने के अवसर से वंचित रहना पड़ा। यह अन्याय अब समाप्त हो जाएगा।

वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय से उस राजनीतिक प्रक्रिया को संवैधानिक मान्यता दी है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरू की थी। यह प्रक्रिया दो चरणों में हुई। पहला चरण जितना असंभव दिखता था, उतना ही अकल्पनीय था दूसरा चरण। पहले चरण में भाजपा और पीडीपी की सरकार जम्मू-कश्मीर में बनी। 2018 में वह प्रक्रिया समाप्त हुई। राज्यपाल शासन लगा। दूसरा चरण 5 अगस्त, 2019 को घटित हुआ। उसे ही सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक मान्यता दी है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कहता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के निर्णय विधि सम्मत हैं।

 

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