सिद्धांतविहीन अवसरवादिता भारतीय राजनीति का कोढ़ हैं. इसी का एक पहलू राजनीतिक दल-बदल होता है. वास्तव में ये वैचारिक प्रतिबद्धता विहीन नेता सत्ता लोभी हैं जिनका ध्येय जनसेवा नहीं बल्कि निज एवं पारिवारिक उत्कर्ष होता हैं. पिछले दिनों राजनीति के इस पहलू पर चर्चा करते हुए उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने बेंगलुरु के प्रेस क्लब में अपने व्याख्यान में दलबदल विरोधी कानून में विसंगतियों को लेकर चिंता जाहिर की एवं इस अधिनियम को प्रभावी बनाने के लिए इसमें संशोधन किये जाने की सलाह दी.
भारतीय राजनीति में दल-बदल की समस्या दशकों पुरानी हैं. लेकिन एक दौर ऐसा भी रहा है ज़ब काफ़ी हद तक राजनीति में नैतिकता विद्यमान थी. जिस समय कांग्रेस सोशलिस्टों ने तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व से अपनी असहमति प्रकट की तो उन्होंने पदों का त्याग भी किया. उस समय चुकिं वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत कर आए थे, अतः 1948 के नासिक अधिवेशन के अनुसार संयुक्त प्रदेश( वर्तमान उत्तर प्रदेश ) की विधानसभा में उनके सभी 15 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और अपनी पार्टी ( सोशलिस्ट पार्टी) के टिकट पर उपचुनाव भागीदारी की.
यह उस दौर की नैतिकता थी. लेकिन वर्तमान राजनीतिक वातावरण में इसकी कल्पना मूर्खता होगी. भारतीय राजनीति में दल-बदल की समस्या दशकों पुरानी हैं. पहली बार इस पर संवैधानिक रूप से रोक लगाने के लिए दल बदल के संबंध में निरर्हता के संबंध में 52 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1985 द्वारा संविधान के चार अनुच्छेदों ( 101,102,190,191 ) में संशोधन किया गया तथा एक नई अनुसूची (10 वीं अनुसूची) भी जोड़ी गई. इस अधिनियम को ही सामान्यतः दल बदल कानून कहा जाता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इसे सार्वजनिक जीवन में सुधारों की ओर पहला कदम बताया था.
राजनीति में अवसरवाद कोई नई बात नहीं है, और नैतिकताविहीन सत्ता अपने लिए संभावनाएं निकालना जानती है. इसी आधार पर बाद में 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा 10वीं अनुसूची के उप-बंधों में एक परिवर्तन किया गया. इसके अनुसार अब दल के अंतर्गत विभाजन के बाद दल बदल कानून के आधार पर अयोग्यता आस्वीकृत कर दी गयी.
इसके अंतर्गत दसवीं अनुसूची के उपबंध उस दशा में अक्षम हो जाते हैं जब किसी दल को छोड़ने वाले एक तिहाई सदस्य स्वयं को एक धड़ा घोषित कर दें. तो तब यह दल बदल नहीं बल्कि विभाजन माना जाता है. इसका अभिप्राय यह है कि विभाजन के आधार पर निरर्हकों के लिए कोई और संरक्षण नहीं है
दसवीं अनुसूची के प्रावधानों की मुख्य आलोचना दो बिंदुओं पर की जाती रही है. पहला, यह बड़े पैमाने पर दलबदल को प्रोत्साहित करता है जबकि व्यक्तिगत दल बदल का निषेध करता है. दूसरा, इसने सरकारों को अस्थिर करने में बड़ी भूमिका निभाई है.
इसके अतिरिक्त भी इसमें कई मूलभूत कमियां हैं. इस अधिनियम में निर्दलीय तथा नामित सदस्यों के मध्य अतार्किक भेदभाव निहित है. यही निर्दलीय सदस्य किसी दल में सम्मिलित हो जाये तो वह निरर्हक हो जाता है जबकि नामित सदस्य को इसकी अनुमति है. साथ ही दसवीं अनुसूची के उपबंध किसी सदस्य के दल-बदल एवं उसकी के मध्य का अंतर नहीं बता पाते हैं. इसके प्रावधान विधायिका के स्वविवेक एवं विचारों की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करते हैं. इसने दलीय अनुशासन के नाम पर दल की अधिकारिता को और कठोरता से लागू किया है.
आलोचना का सबसे मुख्य बिंदू अध्यक्ष के निर्णयन के अधिकार की शक्ति है. इसके दो आधार हैं, पहला अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चलते उसका निर्णय दूषित हो सकता हैं. दूसरे, ऐसे मसलों पर निर्णयन हेतु अध्यक्ष के पास आवश्यक विधिक ज्ञान की कमी भी हो सकती है. शिवराज पाटिल (1993) ने इसी पहलू के विषय में कहा था, “अध्यक्ष या सभापति को इस प्रकार के मामलों में विशेषाधिकार दिये जाने उचित हैं. फिर इन मामलों को यदि उच्चतम न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में निपटाया जाता है तो वह ज्यादा उचित होगा.” पिछले कई वर्षों से लगातार कई राज्यों की विधानसभाओं में अध्यक्ष के निर्णय पर सवाल उठाए गए. इन विवादित मामलों में अध्यक्ष अपने संबंधित राजनीतिक दल के अनुकूल निर्णय करते पाये गये.
दल बदल से उत्पन्न संबंधी निरर्हता के प्रश्नों पर निर्णयन का अंतिम अधिकार सदन के अध्यक्ष का है. प्रारम्भ में इसे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर समझा जाता था. किंतु ‘किहोतो-होलोहन बनाम जाचिल्हू’ मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय इस उपबंध को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि जब अध्यक्ष दसवीं अनुसूची के आधार पर निरर्हता संबंधी किसी प्रश्न पर निर्णय देने के समय एक निरर्हता की तरह कार्य करता है अतः किसी अन्य न्यायिक अधिकरण की तरह उसके निर्णय की भी निष्पक्षता, प्रतिकूलता, दुर्भावना आदि के आधार पर न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. इसलिए यह उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है.
हालांकि न्यायालय ने सदन के अध्यक्ष के न्याय निर्णायन के अधिकार के विवाद को इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि वह स्वयं में राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध है. साथ ही, न्यायालय का कहना था कि संसदीय लोकतंत्र में सभापति या अध्यक्ष की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है. यह सदन के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों का संरक्षक होता है. दसवीं अनुसूची के अंतर्गत मामलों में इनके न्याय-निर्णयन अधिकार को अपवादस्वरुप नहीं माना जाना चाहिए.
दिनेश गोस्वामी समिति 1990 विधि आयोग के 170वीं रिपोर्ट ही नहीं बल्कि संविधान समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग, 2002 ने भी अपनी रिपोर्ट में दसवीं अनुसूची से उस प्रावधान को हटाने की अनुशंसा की जिसमें दल-बदल के मामलों में अयोग्यता से छूट मिलती है. आयोग में दलबदल करने वाले व्यक्ति को तब तक संवैधानिक अथवा सांविधिक, किसी भी पद पर नियुक्त करने का विरोध किया जब तक कि नए चुनाव के पश्चात् नई विधायिका का गठन न हो जाए.
91वें संविधान संशोधन अधिनियम (2003) द्वारा कुछ मुद्दों पर सुधार का प्रयास किया गया. दल परिवर्तन करने वाले नेता अक्सर मंत्री पद या किसी अन्य सांविधिक पदों के साथ ही केंद्र अथवा राज्य सरकारों के अधीन लाभ के पदों की लालसा में जाते हैं. लेकिन 91वें संविधान संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री समेत मंत्रिपरिषद का आकार, सदन के कुल सदस्यों के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए.(अनुच्छेद 75 एवं अनुच्छेद 164). संसद अथवा राज्यविधानमंडल निश्चित कर एक प्रकार से इन दलबदलू ओं की महत्वाकांक्षा को सीमित करने का प्रयास किया गया.संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य जो दल-बदल के आधार पर निरर्हक ठहराया गया हो, वह किसी भी मंत्री पद क़ो धारण करने के लिए भी निरर्हक होगा (अनुच्छेद-75 एवं अनुच्छेद-164). इसके अलावा, संसद या राज्य विधानमंडल का ऐसा सदस्य किसी भी लाभ के राजनीतिक पद क़ो धारण करने के लिए भी निरर्हक होगा (अनुच्छेद-361ख).
यह स्वीकार करना कठिन है कि जिन्होंने सत्ता के सानिध्य के लोभ में अपनी विश्वसनियता को तिलांज़ली दे दी, उनसे जनसेवा में ईमानदारी की उम्मीद तो मूर्खता हैं. फ्रेडरिक नीत्शे लिखते हैं, “हम लोग कम सीखते हैं और मुश्किल से सीखते हैं, इसलिए झूठ हम लोगों की मजबूरी हैं.” ये झूठ सिर्फ नेता नहीं बल्कि देश की जनता भी बोल रही है. एक तरफ जनता को स्वच्छ राजनीति एवं सुशासन चाहिए. वही दूसरी तरफ वो ऐसे अवसारवादी तत्वों को ना सिर्फ अपना जन-प्रतिनिधि चुन रहीं बल्कि इनका समर्थन भी कर रही है.
भारतीय जनता इस आलोचना से नहीं बच सकती कि अपने नेताओं के प्रति उसके भावुक समर्थन ने राजनीतिक प्रतिनिधि चयन के मूल मान्यताओं को क्षति पहुँचायी है. इन अवसरवादियों में अपने त्राता की तलाश मृग-मरिचिका के पीछे भागना है. जनता को समझना होगा कि जो व्यक्ति अपनी विचारधारा, अपने दल के प्रति ईमानदार नहीं है वो समाज के प्रति कैसे ईमानदार हो सकता है.
इन सभी पहलूओं को ध्यान में रखते हुए दल-परिवर्तन के मुद्दे पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता हैं. साथ ही यथाशीघ्र इसपर संवैधानिक सुधार राजनीति के उज्जवल भविष्य की जरुरत हैं. संभवतः तब भारतीय राजनीति के अधोपतन पर थोड़ा विराम लगने की संभावना है.