मानवाधिकार पर नये विमर्श की आवश्यकता

शिवेंद्र सिंहवर्तमान विश्व विभिन्न प्रकार के सामाजिक चुनौतियों एवं असमानताओं, आर्थिक विषमताओं, राजनीतिक संघर्षों, धार्मिक-सांस्कृतिक टकरावों तथा पर्यावरणीय संकटों से आप्लावित है. उक्त चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में मानवीय मूल्यों के विकास एवं प्रसार से विकसित चेतना द्वारा ही मानव मन को संवेदनशील बनाना संभव हो पायेगा. 

मानव सभ्यता के उत्कृष्ट मानदंडों की स्थापना हेतु उचित प्रेरक परिदृश्य का निर्माण मानवाधिकारों की सुरक्षा और समता की संकल्पना से प्रेरित होता है.इस हेतु मानवाधिकार एवं मानवीय मूल्यों का अनुशीलन आवश्यक है. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् राष्ट्रीयता, नस्लवाद, क्षेत्रवाद, धार्मिक संकीर्णता से उपजने वाली आक्रमकता एवं हिंसक वृत्ति से वैश्विक मानव समाज की सुरक्षा हेतु अनुलंघनीय मानवाधिकारों की सम्मानजनक क़ानूनी स्थापना एक गंभीर विषय था.
इसी अनुरूप संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मानवाधिकारों संबंधी प्रावधानों के यथार्थ कार्यान्वयन महासभा ने इस सार्वभौमिक घोषणा को 10 दिसंबर, 1948 को स्वीकार किया. इस घोषणा का विशेष महत्व था क्योंकि तब विश्व मानव सभ्यता के सबसे विनाशकारी युद्धों की विभीषिका से उभरने का प्रयास कर रहा था. इन युद्धों के दौरान मानवीय अधिकारों के वृहद पैमाने पर उल्लंघन का कटु अनुभव वैश्विक मानव समाज को था. यही वजह थी कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर की प्रस्तावना यह संकल्प व्यक्त करती है कि आने वाली पीढियां को युद्धों के प्रकोप से बचाया जाय क्योंकि इन युद्ध ने मानव जाति को अकथनीय कष्ट दिए हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर जिस आधुनिक संकल्पना के अंतर्गत मानवाधिकारों के सभी आनुवांशिक अधिकारों को शामिल करता है वह विभिन्न राष्ट्रीय जीवन में अलग-अलग रूपों में विकसित हुई है यथा, इंग्लैंड में मैग्नाकार्टा, संयुक्त राज्य अमेरिका का स्वतंत्रता का घोषणा-पत्र, फ्रांस के मानवाधिकार घोषणा-पत्र तथा रूसी क्रांति आदि.इस चार्टर का मूल उद्देश्य उन सभी देशों में नागरिक अधिकारों की सुरक्षा करना है जहाँ राष्ट्रीय सरकारों एवं प्रशासन द्वारा इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किये जाते.
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में ‘मानव अधिकारों’ को स्पष्टतया परिभाषित नहीं किया गया. बल्कि यह घोषणा उसे ‘मानव परिवार के सभी सदस्यों के समान एवं असंक्रमणीय अधिकार’ कहती है. मानवाधिकार प्रकृति में निहित वे मौलिक अधिकार हैं जो राष्ट्रीयता, लिंग, जाति, धर्म के भेदभाव से परे प्रत्येक मनुष्य को केवल उसके मानव अस्तित्व के कारण प्राप्त हैं.मानवाधिकार मनुष्य को अपने मानवीय गुणों एवं बुद्धिमता को विकसित करने तथा उनके उपयोग करने तथा अपनी अंतरात्मा और जीवन के भौतिक, आध्यात्मिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार उपलब्ध कराते हैं.
भारतीय संविधान ने भी तर्कसंगत रूप से मौलिक अधिकारों को छ: व्यापक श्रेणीयों में (भाग-3 में निहित अनु.12 से 35) स्वीकृति दी है. भारतीय उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार किया है कि भारत द्वारा हस्ताक्षरित एवं समर्थित मानवाधिकारों की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाएं तथा मानव अधिकार पर अन्य अंतरराष्ट्रीय अभिसमयों की सहायता संविधान की मानव अधिकार संबंधी उपबंधों का निर्वचन करने में ली जा सकती है. वह समय-समय पर मानवाधिकार के अंतराष्ट्रीय अभिसमय से इनके सम्बन्ध की व्याख्या करता रहा है. जैसे जाली जॉर्ज वर्गीज बनाम बैंक ऑफ़ कोचिंग (ए.आई.आर.1980), विशाका बनाम राजस्थान राज्य (ए.आई.आर.1997), अपेरेल एक्सपोर्ट प्रोमोशन काउंसिल बनाम ए.के.चोपड़ा (ए.आई.आर.1999) आदि. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘परम्परागत जिसे ‘नैसर्गिक अधिकार’ कहते थे उसका आधुनिक नाम मौलिक अधिकार है.’ केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य वाद(1973) में तत्कालीन मुख्य न्यायधीश सीकरी ने कहा था, “मै यह धारित करने में असमर्थ हूँ कि यह अधिकार नैसर्गिक या असंक्रमणीय नहीं है. वास्तव में भारत मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का पक्षकार था तथा उक्त घोषणा कुछ मौलिक अधिकारों को असंक्रमणीय वर्णित करती है.”
 वर्तमान युग में मानवाधिकार की आधुनिक अवधारणा का विकास विनाशकारी युद्धों, जिनकी प्रणेता विभिन्न सरकारें थीं, के सन्दर्भ में हुआ था. तब ये विचार कि, पुलिस राज्य एवं विनाशकारी सैन्य टकराव के विरुद्ध आम नागरिक समाज के लिए एक अधिकारपूर्ण सुरक्षात्मक आवरण का होना आधुनिक सभ्यता के अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है. किन्तु  बदलते वैश्विक परिदृश्य में मानवाधिकारों की प्रचलित मान्यताओं की समीक्षा तथा नये प्रकार की व्याख्याओं की आवश्यकता है. उदाहरणस्वरुप वर्तमान में फिलिस्तीन-इजराइल संघर्ष ने मानवाधिकारों पर विमर्श के नये आयाम प्रदर्शित किये हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता.
1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में सभी देशों द्वारा स्वीकृत मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा-पत्र के प्रति प्रकट विश्वासनीयता मानवाधिकारों के सार्वभौमिकीकरण के राजनीतिक सत्यता का प्रणाम है. लेकिन इन नैसर्गिक अधिकारों का सर्वव्यापीकरण अभी भी बाकी है.या यूँ कहें कि अब इनको विस्तृत करते हुए राज्य के अंग के रूप में प्रचलित सशस्त्र सेवाओं अर्थात् सेना एवं पुलिस बल को भी इसमें शामिल करने की जरुरत है.तात्पर्य यह है कि दहशतगर्दों, नक्सलियों, शातिर अपराधियों के विरुद्ध आम जनता के जान-माल के सुरक्षार्थ संघर्षरत सशस्त्र बलों को खल शक्तियों के हिंसात्मक दुष्कृत्यों के प्रतिक्रियास्वरुप किये गये प्रतिहिंसा के लिए मानवाधिकार विरुद्ध आपराधिक श्रेणी में रखने की प्रचलित अवधारणा पर पुनर्विचार की आवश्यकता है.
 सामाजिक आवश्यकताओं तथा व्यक्तिगत अधिकारों के मध्य संतुलन बनाये रखना नि:संदेह दुष्कर कार्य है और इसके लिए आवेग में सशस्त्र बलों द्वारा हिंसा के अतिरेक की पूरी संभावना होती है.इसका अर्थ यह नहीं है कि राज्य सुरक्षा के आधारभूत अंगों के रूप में को हिंसा की खुली छूट मिल जानी चाहिए. नि:संदेह उन्हें संविधान एवं कानून के दायरे का भान हो एवं उनकी निरंतर निगरानी भी जरूरी है.किंतु यह भी एक यथार्थ है कि आधुनिक सभ्यता के नित नये विध्वंसक संघर्षों के परिपेक्ष एवं जनविरुद्ध अपराधों की बढ़ती भयावता ने सशस्त्र बलों की प्रतिहिंसा को एक स्तर पर स्वीकृत बना दिया है.
 कश्मीर में निरंतर मारे गए बेगुनाह के प्रति हिंसा के जिम्मेदार कट्टरवादी दहशतगर्दो के विरुद्ध सेना की हिंसात्मक प्रतिक्रिया को कैसे अनुचित मान लिया जाए? छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में घात लगाकर 76 सीआरपीएफ जवानों के गले रेतने वाले नक्सलियों के किन मूल अधिकारों को स्वीकार किया जाये? पाकिस्तान के पेशावर के आर्मी स्कूल पर हमला करके पाकिस्तान सेना के जवानों के 132 बच्चों की हत्या करने वाले तालिबानी आतंकियों के कौन से मानवाधिकार से सहानुभूति रखी जाये? ऐसे ही क्रूर हत्याएं, महिलाओं के बलात्कार बच्चों के गले काटने वाले फिलिस्तीन आतंकियों के विरुद्ध इजरायली सेना की प्रतिहिंसा को मानव अधिकार हनन के रूप में देखना एक पूर्वाग्रहवादी दृष्टिकोण होगा.
 लेकिन अभी तक आम नागरिक समाज के मानवाधिकार की आवाज़ बुलंद करने वाली सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थानों ने सशस्त्र बलों के मानवाधिकार की विवेचना में रूचि नहीं  दिखाई या अन्य शब्दों में कहें तो उनकी मानवाधिकार की  विवेचनात्मक दृष्टि सशस्त्र बलों में कार्यरत मानवों के मूल अधिकारों को स्वीकार नहीं करती और यह एक बड़ी वज़ह है जो उनके कार्यशैली को आलोचना का पात्र बनाती है. यह सैद्धांतिक रिक्तता दुनिया के हर हिस्से में मौजूद है.
भारतीय संविधान को ही लें. इसका अनु.13 प्रत्येक नागरिक के मूलाधिकारों की सुरक्षा की वचनबद्धता व्यक्त करता है. यह विधानमंडलों को मौलिक अधिकारों को बाधित या सीमित करने वाले किसी प्रकार के क़ानून बनाने का प्रतिषेध करता है.लेकिन संविधान प्रदत्त ये सलाहियत तब उत्क्रमित हो जाते हैं ज़ब बात सशस्त्र बलों की हो. अनु.33 सशस्त्र बलों में कार्यरत व्यक्तियों के नैसर्गिक अधिकारों को सीमित करता है. वास्तव में संविधान में इसकी कल्पना मौलिक अधिकारों के एक अपवादस्वरुप की गईं है. यह संसद को सशस्त्र बलों, पुलिस आदि में सेवारत कर्मियों के मूल अधिकारों, जैसे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संघों के गठन की स्वतंत्रता आदि को प्रतिबंधित या निरस्त करने के लिए अधिकृत करता है. जिसके पीछे इन सेवाओं में कर्तव्यों के उचित पालन एवं अनुशासन को बनाये रखने के तर्क को आधार बनाया गया है. हालांकि तब भी सशस्त्र  बलों के जवानों के एक मनुष्य के रूप में प्राप्त नैसर्गिक अधिकारों की अनदेखी कैसे की जा सकती है?
सुखद है कि देश में इस पर ठोस विमर्श को दिशा मिल रही है.कर्तव्य निर्वहन के दौरान उन्मादी भीड़ के हमलों का शिकार होने वाले सुरक्षा बलों के जवानों के मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय में एक सेवानिवृत्त सीआरपीएफ जवान और एक सेवारत सैन्य अधिकारी की बेटियों द्वारा याचिका दायर की गईं. जिसमें भारतीय सेना पर पथराव की घटनाओं के बाद सुरक्षा बनाए रखने की ज़िम्मेदारी निभा रहे सैन्यकर्मियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज किये जाने की घटनाओं का जिक्र करते हुए उनके आत्मरक्षार्थ की गईं कार्रवाईयों के खिलाफ मामले दर्ज किये जाने पर असंतोष व्यक्त किया गया था. जिसपर न्यायालय ने केंद्र, रक्षा मंत्रालय, जम्मू -कश्मीर और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को नोटिस जारी किया.
  किन्तु मानवाधिकार के पुरोधाओं का मौलिक चिंतन इस तर्क को अवहेलना करता आ रहा है कि राष्ट्र विरोधी तत्वों से से जुझ रहे सशस्त्र बलों के जवान कोई निजी हित या व्यक्तिगत शत्रुता नहीं साध रहे बल्कि नागरिक समाज की सुरक्षा हेतु ही संन्नद्ध हैं. इन संघर्षों में प्राण गंवाने, विकलांग होने वाले भी हाड़-मांस के इंसान हैं, उनके भी परिवार हैं, रिश्ते हैं.उनकी भी भावनाएं है. तो कही ऐसा तो नहीं कि आम नागरिक के मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता के नाम पर हम सैन्य तथा पुलिसकर्मियों के प्रति असंवेदशील हो गये हैं?यदि अपराधियों, आतंकियों के मूलाधिकार हो सकते हैं तो सुरक्षा बलों के मानवाधिकारों की अवहेलना कैसे की जा सकती है?
 यही वो बिन्दु है जहाँ मानवाधिकार का मूल चिंतन पथभ्रष्ट हो जाता है तथा इसकी प्रचलित मान्यताएं समालोचनाओं के घेरे में आ जाती हैं. वर्तमान में मानवाधिकारों की व्याख्या पर उपजा चिंतन इसलिए अशुभ एवं विपथगामी हो चुका है क्योंकि सिविल सोसाइटी का एक तबका अधिकारों के प्रति अतीव दुराग्राही एवं उसके लाभ हेतु लोकतान्त्रिक सरकार के विरुद्ध कटुभाषी होते हुए भी कर्तव्यों की सार्थकता पर विमर्श करने को तैयार नहीं है. कहने का तात्पर्य है कि मूलाधिकारों के उपभोग के लिए आग्रही समाज को नागरिक कर्तव्यों के पालन एवं उनके सम्मान के लिए समान रूप से उद्यत रहना चाहिए. संविधान भाग-4क के अंतर्गत हिंसा, राष्ट्रविरोधी कृत्यों के निषेध जैसे नागरिक कर्तव्यों के अनुपालन की अनुशंसा करता है. क्या मानवाधिकार के पैरोकारों का इस तथ्य की अनदेखी उनका सैद्धांतिक भटकाव नहीं माना जाना चाहिए?
यह स्थापित तर्क है कि मानवाधिकार पूर्ण एवं असीमित नहीं होते और ना ही उन्हें होना चाहिए. अधिकार हो या स्वतंत्रता व्यवस्थित रूप में ही  सकारात्मक होते हैं. उनकी उन्मुक्तता सामाजिक संविदा के अंतर्गत एक विघटनकारी स्थिति पैदा कर रही है.मौलिक एवं मुलाधिकारों में कोई दुराव नहीं है बल्कि ये एक दूसरे के पूरक अथवा पर्याय हैं.यह समझने की आवश्यकता है कि अधिकार कर्तव्यों की परिधि में ही अधिक स्वतंत्र, अधिक उन्मुक्त एवं अधिक सार्थक होते हैं.
  जैसा कि आधुनिक युग में अहिंसावाद के सबसे विशिष्ट प्रवर्तक महात्मा गांधी कहते हैं, ‘मैंने अपनी निरक्षर, लेकिन समझदार माँ से सीखा था कि सभी अधिकारों की हकदारी और संरक्षण अच्छी तरह निभाए गए कर्तव्य से ही संभव होता है. इस प्रकार, जीने का अधिकार केवल तभी हमें प्राप्त होता है ज़ब हम दुनिया में अपनी नागरिकता का कर्त्तव्य पूर्ण करते है.’ भारत समेत सम्पूर्ण वैश्विक नागरिक समाज को भी इसे समझने एवं मनन की महती आवश्यकता है ताकि मानवाधिकारों पर चिंतन तथा सामाजिक संतुलन स्थिर रह सके.

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