प्रकृति अजेय है, हम नहीं

बनवारी

विश्व में कोरोना वायरस का संक्रमण चीन से हुआ है। लेकिन उसका सबसे घातक प्रभाव अमेरिका और यूरोप के सबसे समृद्ध देशों पर पड़ा है। अप्रैल के तीसरे सप्ताह के अंत तक संसार के 27 लाख से अधिक लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके थे। उनमें से लगभग दो लाख लोगों की इस वायरस के संक्रमण के कारण मृत्यु हो चुकी है। कोरोना वायरस से संसार भर में संक्रमित इन 27 लाख लोगों में नौ लाख अकेले अमेरिका में है। अमेरिका में संसार की लगभग पौने पांच प्रतिशत आबादी है। लेकिन संसार भर में संक्रमित कुल लोगों के एक तिहाई अमेरिका में संक्रमित हुए हैं। इसी तरह यूरोपीय देशों में अब तक 11 लाख लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संसार में संक्रमित हुए कुल लोगों में से 40 प्रतिशत यूरोपीय देशों में हैं। अमेरिका और यूरोप में कोरोना वायरस से मरने वालों का अनुपात और भी अधिक है। कोरोना वायरस से मरने वाले लोगों में एक चौथाई अमेरिकी हैं और आधे यूरोपीय देशों के नागरिक।

अमेरिका और यूरोपीय देशों के अलावा केवल तीन देश हैं, जिनमें कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 80 हजार से एक लाख तक है। इन तीन देशों में एक चीन है, जहां संक्रमित होने वाले लोगों की आधिकारिक संख्या 83 हजार है। उसके बाद तुर्की में संक्रमित होने वालों की संख्या एक लाख पार कर गई है। तुर्की मुख्यतः सुन्नी आबादी वाला मुस्लिम देश है। 1924 तक तुर्की के सुल्तान को ही संसार के मुसलमान अपना खलीफा मानते थे। उसके बाद तुर्की ने इस्लाम का रास्ता छोड़कर यूरोपीय जीवनशैली अपनाने की कोशिश की। वह यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता था और अपने आपको एक यूरोपीय देश की पहचान दिलाने की कोशिश कर रहा था। उसमें असफल होने के बाद अब वह फिर इस्लाम के रास्ते पर है। इन दोनों देशों के बाद  ईरान में संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या 90 हजार के आसपास है। इन तीनों देशों में चीन साम्यवादी होने के बावजूद अमेरिकी समृद्धि का सपना देख रहा है। 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान मुस्लिम उम्मा का चौधरी होने की कोशिश में लगा है। उसने अपने आपको अमेरिका और उसकी जीवन शैली का दुश्मन घोषित कर रखा है। इन तीनों देशों के बाद दक्षिण अमेरिका के ब्राजील में संक्रमित लोगों की संख्या 50 हजार के पार पहुंची है। ब्राजील की आबादी 21 करोड़ के आसपास है।

केवल भारत और दक्षिण अमेरिका के पेरू में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 20 हजार से कुछ ऊपर गई है। भारत चीन के बाद बड़ी आबादी वाला संसार का दूसरा देश है। भारत की एक अरब 35 करोड़ आबादी में अब तक केवल 24 हजार लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हुए हैं, यह विलक्षण बात है। पेरू सवा तीन करोड़ आबादी वाला दक्षिण अमेरिका का कैथलिक देश है। उसके यहां अब तक 21 हजार लोग संक्रमित हो चुके हैं। इन दोनों देशों के अलावा सऊदी अरब में 14 हजार लोग संक्रमित हुए हैं और इस्राइल में 15 हजार। चीन के बाद कोरोना वायरस के संक्रमण का सबसे पहले शिकार होने वाले देशों में जापान और दक्षिण कोरिया हैं, जहां संक्रमित लोगों की संख्या क्रमशः 12 हजार और 11 हजार के आसपास है। इन दोनों देशों ने कोरोना वायरस के संक्रमण को नियंत्रित करने में काफी कुशलता का परिचय दिया है।

अनेक देशों पर यह आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले और संक्रमण के कारण मरने वाले लोगों की वास्तविक संख्या छुपाई है। चीन के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तो यहां तक कह चुके हैं कि चीन में कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले और मरने वाले लोगों की संख्या अमेरिका से कहीं अधिक है। चीन के भीतर भी उसके आधिकारिक आंकड़ों पर संदेह जताया जाता रहा है। उसी के कारण पिछले दिनों चीन ने अपने आधिकारिक आंकड़ों में मामूली परिवर्तन भी किया था। अभी हाल में हांगकांग स्थित कुछ शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि चीन में कोरोना वायरस की जिस परिभाषा के आधार पर यह आंकड़े दिए गए हैं, वह दोषपूर्ण हैं। उसमें सुधार किया जाए तो फरवरी तक ही चीन में संक्रमित लोगों की संख्या 55 हजार से बढ़कर ढाई लाख हो जाएगी। ईरान भी साम्यवादी देशों के तरह के एक नियंत्रित राजनैतिक ढांचे में है। और उसके आंकड़ों की सच्चाई जांचना बहुत मुश्किल है।

अमेरिका और यूरोप के देश खुली व्यवस्था वाले हैं और उन पर संक्रमण का प्रभाव जानबूझकर कम करके दिखाने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। पर इसमें संदेह नहीं है कि अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में भी कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या बताई गई संख्या से अधिक होगी। अब तक संक्रमण के व्यापक परीक्षण के लिए केवल दक्षिण कोरिया और जर्मनी की प्रशंसा हुई है। पांच करोड़ आबादी वाले अपेक्षाकृत संपन्न दक्षिण कोरिया के लिए ऐसा करना आवश्यक भी था और संभव भी। चीन से भौगोलिक रूप से सटा होने के कारण उसके सामने संक्रमण का अधिक खतरा था। यूरोप का सबसे समृद्ध देश होने के कारण जर्मनी भी व्यापक परीक्षण करने में समर्थ था और उसने ऐसा किया। बहरहाल चीन और ईरान जैसे अपवादों को छोड़ दे तो विभिन्न देशों द्वारा दिए गए आधिकारिक आंकड़ों का तुलना के लिए उपयोग किया जा सकता है।

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कोरोना वायरस का सबसे घातक प्रभाव अमेरिका और यूरोपीय देशों पर ही क्यों हुआ? ये देश संसार के सबसे समृद्ध देश है। उनके नागरिकों को जीवन की सबसे उन्नत सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं। अच्छा जीवन जीने के लिए जो भी सामग्री हो सकती है, वह इन देशों के बाजारों में उपलब्ध है। यह देश शरीर को पोषित करने वाली अच्छी से अच्छी सामग्री दुनियाभर से इकट्ठा करके अपने नागरिकों को उपलब्ध करवाते हैं। अगर उनकी जनसंख्या के निचले पांच प्रतिशत को छोड़ दिया जाए तो किसी को भोजन का अभाव नहीं है। भोज्य सामग्री की बहुलता और विविधता से उनके बाजार भरे रहते हैं। इन देशों की सरकारों ने लोगों के आर्थिक जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों को इस तरह नियंत्रित कर लिया है कि आर्थिक विपत्ति के दिनों में भी लोगों की मूलभूत आवश्कताएं पूरी होती रहती हैं।

इन सभी देशों में सबसे उत्तम मानी जाने वाली चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध है।  अमेरिका में चिकित्सकीय सुविधाएं कुछ महंगी अवश्य हैं लेकिन अमेरिका अपने नागरिकों को संसार की सबसे उन्नत चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध करवाने का दावा करता है। नए विषाणुओं को पहचानने और उनको निर्मूल करने की विधि खोजने में लगी रहने वाली सबसे अधिक प्रयोगशालाएं उसके पास हैं। यूरोपीय देश तो अपने नागरिकों को चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध करवाने में अमेरिका से भी एक कदम आगे हैं। अधिकांश यूरोपीय देशों में चिकित्सकीय सुविधाओं को सर्वसुलभ कर दिया गया है। लोगों का स्वास्थ्य राज्य की जिम्मेदारी है। इसलिए अधिकांश यूरोपीय देशों में चिकित्सा का एक व्यापक तंत्र खड़ा कर दिया गया है और इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि वह हर नागरिक की पहुंच में हो।

भौतिक उन्नति का शिखर छू लेने के बाद और भौतिक सुविधाओं का अम्बार लगा देने के बाद भी अमेरिका और यूरोप के सभी समृद्ध और समर्थ देश एक वायरस के सामने असहाय हो गए। उनके चिकित्सकीय तंत्र ने उन्हें बताया कि यह एक नया वायरस है और अभी उनके पास उसका कोई उपचार नहीं है। उनकी प्रयोगशालाएं इस वायरस की प्रकृति और संरचना समझ कर उसका उपचार ढूंढ़ने में लग गई है, लेकिन इसमें समय लगेगा। बहुत संभव है कि असावधानी रहे, तभी इस अवधि में यह वायरस विश्व की एक विशाल जनसंख्या को संक्रमित कर दे। उसके संक्रमण से मरने वालों की संख्या लाखों की बजाय करोड़ों में पहुंच जाए। शेष लोग संक्रमित होकर प्राकृतिक रूप से अपने शरीर के भीतर उसकी प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर लें। सबसे आशाजनक अनुमान यह है कि इस वर्ष के अंत तक पश्चिमी चिकित्सा प्रणाली पर आधारित आधुनिक चिकित्सकीय तंत्र इस वायरस के संक्रमण से मुक्ति दिलाने वाला टीका बनाकर उसे बाजार में उपलब्ध कर देगा। पर तब तक यह वायरस लोगों के स्वास्थ्य और देशों की अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचा चुका होगा।

पिछले सवा सौ वर्ष में पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित जो तंत्र खड़ा किया गया था, कोरोना वायरस ने उसकी चूलें हिला दी है। उनके द्वारा खड़ा किया गया विश्वव्यापी अर्थतंत्र डगमगाने लगा है। यह अर्थतंत्र लोगों की नई-नई जरूरतें पैदा करके खड़ा किया गया था। कोरोना वायरस ने लोगों को कम से कम अभी अपने मूलभूत आवश्यकताओं में सीमित रहने के लिए बाध्य कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के आकलन के अनुसार पहली बार विश्व के सकल उत्पादन में तीन प्रतिशत की गिरावट दर्ज होगी। दुनियाभर के लोगों की आमदनी में और रोजगार में कमी आएगी। उसका असर अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों के मुनाफों पर पड़े बिना नहीं रहेगा। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुनाफा ही अमेरिका और यूरोपीय देशों की समृद्धि का आधार रहा है। आर्थिक गतिविधियों के घटने का असर तेल की मांग पर दिखने लगा है। तेल की कीमतें आसमान से जमीन पर आ गई है और निकट भविष्य में उनके पूर्व स्तर को पाने की संभावना नहीं है।

यह कहा जाने लगा है कि आने वाले समय में वैश्वीकरण से उलटी प्रवृत्तियां दिखाई देने लगेंगी। कोरोना वायरस के संक्रमण से पहले ही अमेरिका अपने कल-कारखानों को वापस लाने की मुहिम में लगा था। 1970 के आसपास अपने जिन कल-कारखानों को उसने सस्ते श्रम की आशा में चीन और अन्य देशों में स्थानांतरित होने दिया था, अब वह उन्हें वापस बुलाने की कोशिश में लगा है। कोरोना वायरस ने अन्य समृद्ध देशों को भी इस दिशा में सक्रिय होने के लिए विवश कर दिया है। सबके मन में यह आशंका पैदा हो रही है कि किसी भी संकट की घड़ी में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के लिए विदेशों पर निर्भर रहना मुसीबत बन सकता है। वैश्वीकरण की जगह स्वदेशी भावनाएं प्रबल होने लगी है। खुले व्यापार की जगह संरक्षणवाद को बल मिलने लगा है।

इस महामारी का जीवनशैली पर भी काफी असर पड़ने वाला है। अब तक अमेरिका और यूरोप में अमर्यादित उपभोग और स्वेच्छाचारी जीवन को बढ़ावा दिया जाता रहा। यह मान लिया गया था कि उससे पैदा होने वाली समस्याओं को पश्चिमी चिकित्सातंत्र संभाल सकता है। पश्चिमी चिकित्सा पद्धति ने लोगों में यह विश्वास भर दिया था कि हर रोग की दवा उपलब्ध है। कोरोन वायरस ने इस विश्वास को झटका दिया है। 

आने वाले समय में कोरोना वायरस का टीका निकल आएगा। उसका श्रेय भी निश्चय ही आधुनिक प्रयोगशालाओं का होगा। पर कोरोना वायरस ने हमें इस सत्य से परिचित करवा दिया है कि प्रकृति में असंख्य वायरस है। एक वायरस का उपचार खोजते-खोजते नया वायरस प्रकट हो जाता है। प्रकृति हमसे बड़ी है। हम अजेय नहीं है, प्रकृति ही अजेय है। विज्ञान का उद्देश्य प्रकृति पर नियंत्रण नहीं, जिसका सपना पश्चिमी विज्ञान के पितामह फ्रांसिस बेकन ने 16वीं शताब्दी में देखा था, प्रकृति से सहकार होना चाहिए। जिसका बोध भारतीय मनीषियों ने करवाया था।

सवा सौ साल की प्रगति पर भी सवाल 

कोरोना वायरस ने अमेरिका और यूरोपीय देशों के सामने जो संकट पैदा किया है, वह पिछले सवा सौ वर्ष की उनकी प्रगति पर गंभीर प्रश्न उठाता है। यूरोपीय देश सन् 1800 तक संसार की प्रधान सामरिक शक्ति बन गए थे। उसके बल पर 1900 तक उन्होंने एक विश्वव्यापी औपनिवेशिक साम्राज्य खड़ा कर लिया था। यह साम्राज्य जिस तरह की पाशविक वृत्तियों के आधार पर खड़ा किया गया था, उनके कारण उनके बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा भी पैदा हुई। उससे जनित आशंकाओं ने पहले और दूसरे महायुद्ध को जन्म दिया। दोनों महायुद्धों के विनाश ने उन्हें अजेय होने की प्रेरणा दी। पिछले सात दशकों में वे सामरिक रूप से तो अजेय हुए ही है, उसके साथ-साथ उन्होंने ऐसा भौतिक ताना-बाना खड़ा कर लिया है, जो आर्थिक जीवन के उतार-चढ़ाव और प्राकृतिक संकटों से बचा सकता है।

इसमें सबसे बड़ी भूमिका पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने निभाई है। बीसवीं सदी वास्तव में पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास की सदी थी। बीसवीं सदी ने यूरोप और अमेरिका के लोगों में यह विश्वास पैदा किया कि वह सारे संसार को और प्रकृति को नियंत्रित करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। इसमें कुछ शंकाएं 1970 के आसपास पर्यावरण से संबंधित समस्याओं के सामने आने के बाद उठी थीं, लेकिन उनका विज्ञान और प्रौद्योगिकी का सत्ता प्रतिष्ठान यह विश्वास दिलाता रहा कि पर्यावरण का संकट भी दूर कर लिया जाएगा। पिछले पचास वर्ष में उन्होंने अपने यहां हवा, मिट्टी और पानी के प्रदूषण की समस्या काफी हद तक हल कर ली है। जलवायु परिवर्तन के संकट को दूर करने के लिए उन्हें अपनी जीवनशैली को बदलना और अपने उपभोग स्तर को कम करना पड़ेगा। उसके लिए वे तैयार नहीं हैं। उन्हें आशा है कि दबाव डालकर वे अन्य विकासशील देशों का हरित क्षेत्र बढ़वा लेंगे, उन्हें अपने औद्योगिक उत्पादन और उपभोग को मर्यादित करने के लिए मना लेंगे और इस तरह धरती पर ताप की मात्रा औद्योगिक काल से पूर्व की स्थिति तक सीमित करवाने में सफल हो जाएंगे। 

 

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