आधुनिक जीवन का आधार है राष्ट्रीयता

रामबहादुर राय

संविधान सभा में पंडित जवाहरलाल नेहरू के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर दूसरे चरण की बहस महीने भर बाद फिर से शुरू हुई। इस अवधि में मुस्लिम लीग की प्रतीक्षा की जा रही थी। केबिनेट मिशन योजना को स्वीकार करने के बावजूद मुस्लिम लीग संविधान सभा में नहीं आई थी। उसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की कुचालों का सहारा मिल रहा था। उसी कुचाल में ब्रिटेन की संसद में चर्चिल और वाईकाउंट साइमन ने आरोप लगाया था कि भारत की संविधान सभा में ‘केवल एक बड़ी जाति का’ प्रतिनिधित्व हुआ है। इसमें यह आशय है कि संविधान सभा लूली-लंगडी है, आधी-अधूरी है। पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। इसलिए जरूरी हो गया था कि वास्तविकता से देश-दुनिया को परिचित करा दिया जाए। यह काम संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने सबसे पहले किया। तारीख है-20 जनवरी, 1947। उन्होंने जो कहा वह यह है-‘मैं सच्ची हालत बता देना आवश्यक समझता हूं।

आजकल राष्ट्रीयता का जमाना है। इस देश में हिन्दू और मुसलमान एक हजार वर्ष से भी अधिक समय से साथ-साथ रहते आए हैं। वे एक ही देश के रहने वाले हैं और एक ही भाषा बोलते हैं। उनकी जातीय परंपरा एक ही है। उन्हें एक ही प्रकार के भविष्य का निर्माण करना है। वे एक दूसरे में गुंथे हुए हैं।

संविधान सभा में 296 सदस्य चुने गए। लेकिन उनमें से 210 सदस्य ही आए। इनमें से 155 हिन्दू थे जबकि उनकी कुल संख्या 160 थी; 30 अनुसूचित जातियों के सदस्य थे जब कि उनकी कुल संख्या 33 थी; पांच सिक्ख सदस्य थे; 6 देशी ईसाइयों के सदस्य थे जबकि उनकी कुल संख्या 7 थी; पिछड़ी जातियों के पांच सदस्य थे; एंलो इंडियन के तीन सदस्य थे; पारसियों के तीन सदस्य थे; और मुसलमानों के 4 सदस्य थे जबकि उनकी कुल संख्या 80 थी।

मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति निस्संदेह उल्लेखनीय है।’ ये तथ्य थे जिन्हें डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रस्तुत कर ब्रिटिश नेताओं को सावधान कर दिया कि वे मुस्लिम लीग के स्वर में स्वर न मिलाएं और यह कुत्सित आरोप न लगाएं कि संविधान सभा ‘हिन्दुओं की एक सभा’ है। इस स्पष्टीकरण के बाद लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर दूसरे चरण की बहस को डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने प्रारंभ किया। बाद में वे दूसरे राष्ट्रपति बने थे। संविधान सभा में वे उत्तर प्रदेश से चुनकर आए थे। महान दार्शनिक डा. राधाकृष्णन ने बहस को नई ऊंचाई दी। संविधान के लक्ष्य को स्पष्ट किया। कहा कि ‘हम भारतीय समाज में मौलिक परिवर्तन करना चाहते हैं। अपनी राजनीतिक और आर्थिक पराधीनता का अंत करना चाहते हैं। वे लोग जिनका आत्मबल बढ़ा-चढ़ा होता है, जिनकी दृष्टि संकुचित नहीं होती, वे अवसर से लाभ उठाते हैं और अपने लिए नए अवसर पैदा करते हैं।’ उनकी दृष्टि में संविधान सभा भारत के लिए नया अवसर उपस्थित कर रही थी। उन्होंने किसी का भी नाम नहीं लिया। लेकिन उनके भाषण को पढ़कर समझा जा सकता है कि वे मुस्लिम लीग और चर्चिल को जवाब दे रहे हैं। लगता है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कथन की पुष्टि कर रहे हैं।

उनका कहना था कि ‘हम उन सबसे, जो संविधान सभा में नहीं आए हैं, यह कहना चाहते हैं कि हमारी इच्छा यह कभी भी नहीं है कि हम किसी वर्ग विशेष की सरकार स्थापित करें। हम यहां सभी भारतीयों के लिए स्वराज्य की स्थापना का कार्य कर रहे हैं।’ ब्रिटिश साम्राज्य के दूसरे उपनिवेशों जैसा भारत नहीं है। इसे डॉ. राधाकृष्णन ने बताया। उन्होंने कहा कि ‘जहां तक भारत का संबंध है, यह आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा या दक्षिण अफ्रीका की तरह सिर्फ उपनिवेश नहीं है। भारत की एक महान सांस्कृतिक परंपरा रही है। बहुत काल तक इसने स्वतंत्र जीवन व्यतीत किया है। इसलिए इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि भारत दूसरे उपनिवेशों की तरह एक उपनिवेश है।’ डॉ. राधाकृष्णन ने गणतंत्र की अवधारणा को अपने भाषण में विस्तार से समझाया। यह बताया कि भारत में गणतंत्रात्मक परंपरा रही है। ‘इतिहास बताता है कि बहुत प्राचीन काल से यह प्रथा चली आई है, जब उत्तर भारत के आधुनिक जीवन का आधार राष्ट्रीयता है! पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ राधाकृष्णन एवं डॉ राजेंद्र प्रसाद कुछ व्यापारी दक्षिण गए तो दक्षिण के एक नरेश ने उनसे पूछा, आपका राजा कौन है? उन्होंने जवाब दिया, हममें से कुछ पर परिषद शासन करती है, और कुछ पर राजा। पाणिनी, मेगस्थनीज और कौटिल्य प्राचीन भारत के गणतंत्रों का उल्लेख करते हैं।

महात्मा बुद्ध कपिलवस्तु गणराज्य के निवासी थे।’ संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. राधाकृष्णन अनुभव कर रहे थे कि भारत स्वतंत्रता की संधिवेला में है। आजादी दरवाजे पर खड़ी है। ऐसे समय में बहुत स्वाभाविक और मौलिक प्रश्न जो हो सकता था, उसे उन्होंने उठाया और उसका एक समाधान भी दिया। जो प्रश्न तब था, वह आज भी है। उतना ही ज्वलंत और प्रासंगिक। प्रश्न यह है कि सार्वभौम सत्ता कहां है? कैसी होनी चाहिए? उसका मूल स्वरूप क्या होगा? इन्हीं प्रश्नों के सही उत्तर से गणराज्य की रचना होती है। कोई भी गणराज्य हो, उसकी नींव में सार्वभौम सत्ता होती है। जिस पर गणराज्य का महल खड़ा होता है। डॉ. राधाकृष्णन ने इस बारे में जो कहा, वह यह है-‘हमारी यह धारणा है कि सार्वभौम सत्ता का आधार अंतिम रूप से नैतिक सिद्धांत है, मनुष्य मात्र का अंत:करण है। लोग और राजा भी उसके अधीन हैं। धर्म राजाओं का भी राजा है। वह लोगों और राजाओं, दोनों का शासक है।’ उस समय मुस्लिम लीग जोर-शोर से नारा दे रही थी कि हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं, जिनका आधार धर्म है। इसका समुचित उत्तर डॉ. राधाकृष्णन के भाषण में है। वे कहते हैं कि ‘आधुनिक जीवन का आधार राष्ट्रीयता है न कि धर्म।

मिस्र के स्वतंत्रता आंदोलन, अरब में लारेंस के साहसपूर्ण कार्य, कमाल पॉशा के तुर्की का उदाहरण, इस ओर संकेत करते हैं कि धार्मिक राज्यों के दिन लद गए हैं। आजकल राष्ट्रीयता का जमाना है। इस देश में हिन्दू और मुसलमान एक हजार वर्ष से भी अधिक समय से साथ-साथ रहते आए हैं। वे एक ही देश के रहने वाले हैं और एक ही भाषा बोलते हैं। उनकी जातीय परंपरा एक ही है। उन्हें एक ही प्रकार के भविष्य का निर्माण करना है। वे एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। हम अपने देश के किसी भी भाग को अलग नहीं कर सकते। हमारा देश सार्वभौम है। यदि हम दो राज्य भी स्थापित करें तो उनमें बहुत बड़े अल्पसंख्यक समूह होंगे और ये अल्पसंख्यक चाहे इन पर अत्याचार हो या न हो, अपनी रक्षा के लिए अपनी सरहदों के उस पार से सहायता मागेंगे। इससे निरंतर कलह होगा और वह उस समय तक चलता रहेगा, जब तक भारत एक संयुक्त राष्ट्र न हो जाए।’ इसे पढ़कर कोई भी बोल पड़ेगा, धन्य हो! डॉ. राधाकृष्णन। जिनका कहा अंशत: सच साबित हुआ है। दूसरा हिस्सा जिसका संबंध संयुक्त राष्ट्र से है, वह सच होने की प्रतीक्षा कर रहा है। उसी कड़ी में उन्होंने एक नई अवधारणा दी। वह बहुराष्ट्रीय राज्य की थी, जिसमें ‘विभिन्न संस्कृतियों को अपने विकास का पर्याप्त अवसर मिले।’ नेहरू के प्रस्ताव में मौलिक अधिकारों के उल्लेख पर डॉ. राधाकृष्णन की टिप्पणी थी कि ‘हम एक सामाजिक व आर्थिक क्रांति करने का प्रयत्न कर रहे हैं।’ उस क्रांति का आधार क्या होगा? दिशा क्या होगी? इस बारे में उनका मत था कि ‘मनुष्य के अंत:करण की स्वतंत्रता’ ज्यादा महत्वपूर्ण है।

उसकी रक्षा की जानी चाहिए। ‘जब तक कि स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न न की जाए केवल स्वतंत्रता की दशाओं को पैदा करने से कोई लाभ न होगा। मुनष्य के मस्तिष्क को अपना विकास करने और पूर्णावस्था प्राप्त करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। मनुष्य की उन्नति उसके मस्तिष्क की क्रीड़ा से ही होती है। वह कभी सृजन करता है तो कभी विनाश और उसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है। हमें मनुष्य के अंत:करण की स्वतंत्रता की रक्षा करनी है, जिससे उसमें राज्य हस्तक्षेप न कर सके।’ केबिनेट मिशन की संवैधानिक रूपरेखा में संविधान सभा काम कर रही थी। उसे पूरी स्वतंत्रता नहीं थी। इसे ही ध्यान में रखकर डॉ. राधाकृष्णन ने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को ‘लोगों से एक प्रतिज्ञा और सभ्य संसार से एक संधि’ बताया। कुछ दिनों पहले चर्चिल ने पूछा था कि क्या भारत की संविधान सभा प्रामाणिक रूप से काम कर रही है? इसके जवाब में ब्रिटिश सरकार की ओर से एलेक्जेंडर ने कहा कि ‘संविधान सभा के लिए चुनाव की जो योजना थी, उसका कार्य समाप्त हो चुका है। अगर मुस्लिम लीग ने उसमें जाना स्वीकार नहीं किया तो आप एक नियमानुसार निर्वाचित संविधान सभा को अपना कार्य करने से कैसे रोक सकते हैं?’ यह उद्धरण देकर डॉ. राधाकृष्णन ने कहा कि संविधान सभा न्यायोचित रूप से काम कर रही है। ब्रिटेन का भारत के संविधान सभा के प्रति रवैया संदेह के घेरे में था।

संविधान सभा बन गई थी। वह तमाम कठिनाइयों और ब्रिटिश सरकार की ओर से खड़ी की जा रही बाधाओं के बावजूद अपना काम करने लगी थी। जो ब्रिटिश सरकार और जनमत को रास नहीं आ रहा था। ऐसी परिस्थिति में डॉ. राधाकृष्णन ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली के कथन का हवाला दिया। वह 15 मार्च, 1946 के उस भाषण का अंश है जो उन्होंने हाउस आॅफ कामंस में दिया था। एटली ने कहा था कि ‘एशिया ऐसे विशाल महाद्वीप में, जो युद्ध में विध्वस्त हो गया है, एक ऐसा देश है जो लोकतंत्र के सिद्धांतों को प्रयोग में लाने की चेष्टा करता रहा है। हमेशा ही मेरा अपना अनुभव यह रहा है कि राजनैतिक भारत एशिया की ज्योति हो सकता है। एशिया का ही नहीं वरन संसार की ज्योति हो सकता है और उसके विभ्रांत मस्तिष्क में एक आंतरिक कल्पना जाग्रत कर सकता है और उसकी विचलित बुद्धि को उन्नति का मार्ग दिखा सकता है।’ इसे याद दिलाकर डॉ. राधाकृष्णन ने अपने भाषण का यह कह कर समापन किया कि ‘संविधान सभा को स्वीकार कीजिए। उसके नियमों को स्वीकार कीजिए। देखिए कि अल्पसंख्यकों के हितों की पर्याप्त सुरक्षा की गई है या नहीं। अगर की गई है तो उन्हें कानून का रूप दीजिए।’ उनका यह कथन एक चेतावनी थी। जिसे ब्रिटेन ने समझा जरूर पर उसके अनुरूप काम नहीं किया। परिणाम स्वरूप जो कुछ हुआ उसकी ओर संकेत डॉ. राधाकृष्णन ने इन शब्दों में कर दिया था। ‘अगर सभी शर्तों के पूरा होने पर आप यह दिखाने की कोशिश करें कि कुछ बातें रह गई हैं, तो यह समझा जाएगा कि अंग्रेज सारी सरकारी योजना की भावना के प्रतिकूल जा रहे हैं और संसार की वर्तमान परिस्थिति में इसका इतना भयंकर परिणाम होगा कि मैं उसकी कल्पना भी नहीं करना चाहता।’

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