मी लार्ड, जरा सुनिए!

शिवेंद्र सिंहन्यायपालिका राजनीतिक प्रक्रिया का एक ऐसा अंग है जो सरकार या सत्ता के हाथों में राजनीतिक शक्ति के अत्याधिक संकेन्द्रण की रोकथाम तथा ‘लोकतंत्र की धाँधलियों’ अथवा बहुमत के निरंकुश सत्ता संचालन से जनतंत्र एवं जनता की सुरक्षा करने के साथ ही संविधान की व्याख्याकार भी होती है. किसी भी लोकतंत्र में यदि हम न्यायपालिका की भूमिका को परिभाषित करने का प्रयास करें तो यह एक सामान्य परिभाषा होगी. लेकिन न्यायपालिका यदि स्वयं शक्ति केंद्रित करने, लोकतान्त्रिक सरकारों की उपेक्षा एवं अपनी भूमिका के अनावश्यक विस्तार के साथ ही स्वयं लोकतान्त्रिक धाँधलियों में लिप्त हो जाये तो ऐसे में लोकतंत्र की आत्मशक्ति तो आश्रयहीन एवं ही हो जायेगी.

पिछले दिनों दो घटनायें ऐसी थीं जो न्यायपालिका के विरुद्ध ऐसे सवालों का एक मजबूत आधार पैदा करतीं हैं. पहली है, राष्ट्रपति द्वारा जजों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा आयोजित करने की सलाह. इस संविधान दिवस (26 नवंबर) के अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अपने सम्बोधन में देश की सारी व्यवस्थाओं को नागरिक केंद्रित बनाने का आह्वान किया, ताकि न्याय तक सभी की पहुँच संभव हो सके. उन्होंने सुझाया कि ‘एक ‘ऑल इंडियन जुडिशल सर्विस’ की व्यवस्था बनाई जा सकती है जिसमें विभिन्न पृष्ठभूमियों से न्यायधीशों की नियुक्ति हो, प्रक्रिया मेरिट पर आधारित हो, प्रतियोगी हो और पारदर्शी हो.ऐसी व्यवस्था से उन सामाजिक समुदायों को भी मौका मिलेगा, जिनका प्रतिनिधित्व कम है. न्याय तक सबकी पहुँच हो, तो इससे बराबरी का सिद्धांत भी मजबूत होता है.’
 असल में इस वक्तव्य के माध्यम से राष्ट्रपति मुर्मू परोक्ष रूप से न्यायिक सुधार की ही सलाह दे रहीं थीं. इस समय भारतीय न्यायिक व्यवस्था का सबसे बड़ा कोढ़ है1993 में प्रारम्भ कॉलेजियम प्रणाली. इस मुद्दे पर सरकार एवं न्यायपालिका के बीच निरंतर टकराव की स्थिति बनी रही है. पिछले कुछ समय से उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ एवं कानून-मंत्री किरन रिजिजू का न्यायपालिका के साथ जारी शाब्दिक युद्ध एवं आरोप-प्रत्यारोप निरंतर सुर्खियों में रहा है.
 इस प्रणाली के अंतर्गत लोकतान्त्रिक सरकार एवं संसद की शक्ति अत्यंत सीमित जबकि न्यायपालिका की स्थिति स्वयंभू सर्वशक्तिमान जैसी है. यानि कुछ ऐसी जिसे पारदर्शिता, जवाबदेही, निष्पक्षता से हीन कहा जाये.इस व्यवस्था में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति तथा उसके चार वरिष्ठ न्यायधीशों का एक पैनल अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति और तबादले की सिफारिश करता है. इसमें लोकतान्त्रिक सरकार की भूमिका इतनी सीमित है कि सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के प्रस्तावित नाम पर मुख्य न्यायाधीश को केवल पुनर्विचार का निवेदन कर सकता है. किन्तु यदि कॉलेजियम अपने स्वप्रस्तावित नाम पर अड़ जाता है, तब सरकार और राष्ट्रपति उस व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के लिए विवश है. दुर्भाग्य से इसी प्रक्रिया के कारण कई संदिग्ध चरित्र के लोग न्यायपालिका का हिस्सा बनने और न्यायमूर्ति के पद तक पहुंचने में सफल रहे.
 यह पिछले दो दशकों से न्यायिक सुधार का सबसे ज्वलंत विमर्श रहा है जिसके परिपेक्ष्य में सरकार द्वारा संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति  आयोग अधिनियम, 2014 को लागू किया था. इसके अंतर्गत उच्च एवं उच्चतम न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में एक स्वतंत्र-समावेशी निकाय के रूप में परिकल्पित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित किया जाना था जिसके अध्यक्ष भारत के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त सदस्यों के रूप में दो अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री तथा दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों को शामिल किया जाना था जिनके नाम एक समिति द्वारा निर्धारित होंगे जिसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता सम्मिलित थे.पुनश्च इसे संसद समेत सोलह राज्य विधानसभाओं अनुमोदित किया गया था. इसके बावजूद न्यायपालिका को इसमें न्यायिक स्वतंत्रता के लिए खतरा नजर आया और 2015 में सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने इसे निरस्त कर दिया तथा कॉलोजियम व्यवस्था को बनाये रखा. अब  इसे भारतीय न्यायपालिका पर काबिज विशेष वर्ग की स्वेच्छाचारिता क्यों ना माना जाये? 
पुनः, उसकी हठधार्मिता जाति आधारित नकारात्मक राजनीति करने वालों को इस आरोप का आधार उपलब्ध करवाती है कि देश की न्यायिक व्यवस्था पर सवर्ण एवं संभ्रांत वर्ग का एकाधिकार है. पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने 2017 में कहा था कि ‘मौजूदा व्यवस्था में सिर्फ कुछ खास घरानों के लोग ही हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जज बन पाते हैं.किसी भी सामान्य परिवार के व्यक्ति के लिए दरवाजे बंद हैं. दलित वर्ग के लोग तो क्या अगर कोई सामान्य जाति का योग्य व्यक्ति भी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जज बनना चाहे तो वह नहीं बन सकता. सामान्य लोगों के लिए दरवाजा बंद है। इस दरवाजे को खोलना होगा.’ अब  राजनीतिक जमात द्वारा ऐसे निरंतर लगने वाले आरोप को न्यायपालिका कैसे झूठला पायेगी?
माननीय न्यायधीशों की न्यायशीलता एवं न्यायप्रियता की धार खुद अपनी संस्था अर्थात् न्यायपालिका को न्याय देने में कुंद हो जा रही है.आखिर देश की 80 फीसदी आबादी यदि ये उलाहना दे रही है कि उनकी जाति का समुचित प्रतिनिधित्व न्यायिक व्यवस्था में नहीं है तो क्यों न्यायपालिका ये आरोप झेलने को अभिशप्त है? क्यों वह न्याययिक सुधार की राह रोके खड़ा है?असल में राजनीतिक-व्यावसायिक वर्ग तो बेकार ही बदनाम और आलोचनाओं के केन्द्र में है. इस देश में परिवार-वंशवाद का सबसे सघन केंद्र तो न्यायपालिका है.
ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सुधार और उसकी मजबूती को लेकर तत्पर नहीं है.कुछ माह पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए केंद्र सरकार को आदेशित किया कि इनकी नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश की समिति की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा हो. उक्त आदेश के समय माननीय न्यायालय ने कहा कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी एवं निष्पक्ष होनी चाहिए ताकि भारत का चुनाव आयोग ‘वास्तव में स्वतंत्र’ हो जाये.
लेकिन न्यायापालिका को कब कुछ  ‘एलीट’ परिवारों के ‘पैदाइशी न्यायधीशों’ से स्वतंत्रता मिलेगी, इसे सुनिश्चित करने में माननीय न्यायालय को विशेष रूचि नहीं है. लोकतंत्र मजबूत हो, व्यवस्था में सुधार हो, लेकिन अपनी संस्था को छोड़कर. सही है, वो कहते हैं ना ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’. पता नहीं इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ऐसा कौन सा भाव है जिससे प्रेरित होकर हर कोई सुधारक, नैतिक सलाहकार बनना चाहता है, बस खुद को छोड़कर.हर छोटी-बड़ी घटना पर राजनीतिक वर्ग से लेकर लोकतान्त्रिक सरकारों को सलाह देने वाली न्यायपालिका स्वसुधार के वक्त सारे नैतिकता के प्रतिमान ध्वस्त कर देती है. कह सकते हैं कि परिवारवाद के सम्बन्ध में न्यायपालिका की हठधार्मिता एवं दुराग्रह इतना तीव्र है कि उसे लोकतान्त्रिक मर्यादाओं के उल्लंघन से भी गुरेज नहीं है.
हालांकि एनजेएसी के सम्बन्ध में सरकार द्वारा नामित सदस्यों के वीटो पावर प्रावधान जैसी न्यायपालिका की आशंकाओं की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. लेकिन जो रवैया उसका न्यायिक नियुक्ति आयोग के सम्बन्ध में रहा है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका ने एक अलग सत्ता कायम कर ली है जिसे देश के संसद की भी परवाह नहीं है जो डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है.सरकार एवं न्यायपालिका के मध्य अधिकारिता के इस टकराव को भारतीय न्यायिक प्रणाली और संबद्ध जनता भुगतती है. सरकार जिन नामों को संदिग्ध मानती है उसके विरुद्ध पुनर्विचार का अनुरोध करती है और सर्वोच्च न्यायालय स्व चयनित नामों को ही पुन: भेजता है. इसका प्रत्यक्ष परिणाम होता है, बड़ी संख्या में न्यायिक रिक्तियाँ एवं वर्षों से लंबित मामलों के निस्तारण की अनियमितता.
दूसरा मुद्दा, केन्द्र सरकार के धारा-370 के निरस्तीकरण एवं जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन के निर्णय की समीक्षा का मामला था.कायदे से यह लोकतान्त्रिक सरकार के अधिकार क्षेत्र का मसला था जिसमें न्यायपालिका को अपना समय बर्बाद करने की जरुरत नहीं था. राजनीतिक निर्णयों की समीक्षा के झंझावत में उलझकर न्यायपालिका अपनी अधिकारिता एवं उपयोगिता दोनों चुनौती दोनों देती है.
आज भी देश के करोड़ों हत्या-बलात्कार, जमीनी-पारिवारिक विवाद और दूसरों अदालती मामलों के मारे-पीड़ित भारतीय न्याय की उम्मीद से न्यायपालिका के दर पर एड़िया रगड़ रहें हैं.लेकिन न्यायपालिका को उन संसदीय निर्णयों की समीक्षा में बड़ी रूचि है जो देश की सबसे बड़ी पंचायत हेतु जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि द्वारा भारत सरकार के नेतृत्व में किया जाता है.
 लेकिन असल समस्या लोकतान्त्रिक संस्थाओं में जनता के विश्वास का बल है. स्वतंत्रता काल से ही इस देश में न्यायपालिका एवं भारतीय सेना, दो ही ऐसी संस्थाएं हैं जिनके प्रति जनता में असीम श्रद्धा बनी रहीं है और आज भी है. और यही जनश्रद्धा न्यायपालिका को लोकतान्त्रिक सरकार की अवहेलना को प्रेरित कर रहा है. किन्तु उसे याद रखना चाहिए कि पिछले सात दशकों से अधिक की लोकतंत्र की यात्रा में न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर लंबित करोड़ों वादों और उनके निस्तारण की जटिलताओं, खर्चीले प्रक्रम ने आम भारतीय के मन में न्यायपालिका के प्रति अरुचि और अविश्वास पैदा कर दिया है. न्याय के जिस मंदिर को आम आदमी ने कभी अपने आश्रय का सबसे बड़ा केन्द्र माना था आज वही उसे अंतहीन प्रतीक्षा, न्याय की अप्राप्त उम्मीद ही नहीं स्वयं न्यायपालिका द्वारा पीड़ित-दंडित मानने लगा है.
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्र-निष्पक्ष न्यायपालिका किसी जनतंत्र की सफलता का एक वृहत एवं महत्त्वपूर्ण आयाम है किन्तु इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि संविधान के इस मूलभूत सिद्धांत की आड़ में एक समानानंतर सत्ता कायम कर ली जाये. वर्तमान में चलायमान कालेजियम प्रणाली की आड़ में न्यायपालिका द्वारा अर्जित जवाबदेह रहित एकांगी शक्तियां भारत के आईंन में व्याख्यायित शक्ति पृथ्ककरण एवं नियंत्रण-संतुलन के सिद्धांत के सर्वथा प्रतिकूल है.
जम्हुरियत की ततहीर चीरस्थायी बनी रहे इसके लिए निश्चित् ही हर सियासी संस्थान को आईंन के हवाले से मिली शक्ति के बूते बखूबी अपनी फ़र्ज अदायगी करनी चाहिए लेकिन उसे भी यह ख्याल रहे कि इसी आईंन ने उसके कार्यक्षेत्र और शक्तियों पर कुछ पाबंदियाँ भी लागू की है जिनकी बेहुरमती लोकतंत्र के साथ ही उसके खुद के सम्मान के अनुचित है. और न्यायपालिका जैसी संस्था जो स्वयं संविधान की  व्याख्याकार है, उसके लिए ऐसे तोहमत लेना जेब नहीं देता. मी लार्ड! क्या आप सुन रहे हैं?

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