स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास बहुत लंबा है। लेकिन इस लेख में वह कालखंड है, जिसे ब्रिटिश शासन का समय कहते हैं। फिर भी इसका दौर और दायरा बड़ा है। इसके अनेक चरण हैं। उसमें तीन तत्व की बातें हर चरण में दिखती हैं, बलिदान, तप और सत्याग्रह। बलिदान की राह क्रांतिकारियों ने चुनी। तप, उनका मार्ग है, जो कहते हैं, हम कोशिश करके पा लेंगे। इसमें संकल्प का तत्व है। समाज के अग्रणी व्यक्तियों ने स्वाधीनता पाने के लिए तप का मार्ग चुना। लेकिन स्वाधीनता आंदोलन में पुराण कथा घटित न हो, ऐसा कैसे हो सकता है! आकाश से मेनका उतरी और अपना कमाल दिखाया। कुछ के तप भंग हुए। उसके रूप-रंग अलग-अलग हैं। स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में वह त्रासदी का अध्याय है। तीसरा तत्व सत्याग्रह का है। वह आदि से अंत तक जनता के कंधों पर न होता, तो स्वाधीनता की मंजिल देश नहीं पा सकता था।
उस आंदोलन को नए और सम्यक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। ऐसा अगर होता है, तो इतिहास में अतीत बोध के तर्क की स्थापना हो सकेगी। यह समय की मांग भी है। इसीलिए इस विषय पर ‘मंथन’ के संपादक ने यह अंक बनाया है। प्रश्न यह है कि इतिहास के अतीत बोध का तर्क क्या है? क्या यह कोई दार्शनिक विचारधारा है? अगर ऐसा कुछ है, तो वह जानने में जटिल होगा और साधारण नागरिक के लिए प्रयोजनहीन होगा। लेकिन बुद्धि के साधकों के लिए वह बड़ी चीज होगी। जहां तक मैं समझता हूं, इस अंक से मंथन जिस तर्क की स्थापना करना चाहता है, उसका संबंध इतिहास की सिद्ध मान्यताओं को अपनाने से है। उन मान्यताओं को इतिहास की समझ में शामिल कर देने के प्रयोजन का यह प्रयास है।
तर्क व्यवहार की वे सिद्ध मान्यताएं क्या हैं? भारत एक देश है। यह एक राष्ट्र भी है। लेकिन सारे देश एक राष्ट्र नहीं हैं। भारत देश को स्वतंत्र और स्वाधीन बनाने के लिए स्वाधीनता आंदोलन था। उसे साम्राज्य के शोषण और अत्याचार से मुक्ति पानी थी। अपने लक्ष्य को पाने के लिए स्वाधीनता आंदोलन को एक ऐतिहासिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। जिसके उतार-चढ़ाव में एक चरण ऐसा आया, जब हिन्दू-मुस्लिम संबंध में दूरी बनाने की ताकतें अपने कुचक्र में सफल हो गई। जिससे स्वाधीनता आंदोलन को समझने और समझाने के लिए परस्पर विरोधी पैमाने अपनाए जाने लगे। इतिहासकार भी इसके शिकार हुए। स्पष्ट है कि एक असंतुलन उत्पन्न हुआ। उस इतिहास को जानना और उसमें मुसलमानों की भूमिका को समग्रता में पहचानने का यह उचित समय है। क्योंकि भारत अपने आत्मबोध से साक्षात्कार करने की दिशा में तेजी से अग्रसर है।
इतिहास वृतांत नहीं होता। फिर होता क्या है? वह कार्य-कारण के विश्लेषण की मांग करता है। इतिहास में एक लय भी होती है। लय में आरोह और अवरोह बहुत स्वाभाविक है। लेकिन प्रश्न तब पैदा होता है, जब मंजिल अलग-अलग हो जाती है। निश्चित ही हमें मुड़कर अपने इतिहास को यह जानने के लिए देखना होगा कि क्या-क्या गलतियॉं हुई हैं। लय कहां टूटी? क्यों टूटी? यह भी याद करना होगा कि अतीत में हमारी क्या उपलब्धियां रही हैं। ऐसा कर वर्तमान और भविश्य को सुधारा-संवारा जा सकता है। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि स्वतंत्र भारत के जन्म में इतिहास की घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। इतिहास के प्रति बुद्धिसंगत दृष्टिकोण अपना कर वृहत्तर राजनीतिक- सांस्कृतिक परंपरा को समझा जा सकता है। इसके सम्यक अध्ययन के लिए यह जरूरी है कि स्वाधीनता आंदोलन का यथार्थपरक अध्ययन हो। ऐसे अध्ययन से गुण-दोष का अंतर स्पष्ट होगा।
स्वाधीनता आंदोलन में पवन चक्की जहां है, वहीं तलवारबाजी भी है। इसे समझने-जानने के लिए इतिहास की घटनाओं को पुनः नए तथ्यों के आलोक में देखना जरूरी है। इसलिए क्योंकि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 150 साल पर स्वाधीनता आंदोलन के बारे में अनेक प्रामाणिक बातें सामने आई। एक प्रश्न अनुत्तरित रहा है कि स्वाधीनता संग्राम का प्रारंभ कब से माना जाए। कुछ इतिहासकार तो इसे कांग्रेस के जन्म से जोड़ते रहे हैं। ऐसा करना एकांगीपन है। अब इतिहासकार आधुनिक भारत का प्रारंभ बक्सर के युद्ध से मानने लगे हैं। इसलिए यह भी स्थापित हो गया है कि सन् 1765 से स्वाधीनता आंदोलन प्रारंभ हो गया था। एक साल पहले ही बक्सर में अंग्रेज जीते थे। उस जीत से बंगाल, बिहार और उड़ीसा में ब्रिटिश शासन (ईस्ट इंडिया कंपनी) स्थापित हो गया। जिसकी शुरूआत 1757 में प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों की जीत से हो गई थी। इस तरह इन जीतों ने अंग्रेजों के लिए निर्मम लूट-खसोट का रास्ता खोल दिया। उस क्रूरता और लूट-खसोट के खिलाफ ‘विद्रोह का पहला झंडा फकीरों के नेता मजनू शाह और सन्यासियों के नेता भवानी पाठक ने उठाया। यह क्रम 1800 तक चला।’ इसमें हिन्दू-मुसलमान एक थे। इसकी पूरी कहानी के लिए एक पोथा भी छोटा पड़ेगा।
अंग्रेजी राज को खत्म करने के लिए 1765 से 1800 के बीच सन्यासी और फकीर विद्रोह की घटनाएं हुई। ये उदाहरण साझा प्रयास के हैं। इनमें चर्चित घटनाएं त्रिपुरा के शमशेरगाजी, चटगांव के दिलावर खान से लेकर अवध के वजीर अली के संगठित विद्रोह की हैं। ये कुछ उदाहरण हैं, सभी नहीं। इसी तरह ये घटनाएं इतिहास की किताबों में छिटपुट दिखाई गई हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। इनमें एक कार्य-कारण संबंध दिखता है क्योंकि इनमें किसान और शिल्पकार संगठित होकर लड़े। दूसरी तरफ अंग्रेजों की क्रूरता और अन्याय का उस समय सबसे बड़ा उदाहरण सामने आया जब महाराजा नंद कुमार को 5 अगस्त, 1775 के दिन एक चौराहे पर लोगों की भीड़ में फांसी पर लटका दिया गया। ये बातें नए शोध से सामने आई हैं। अंग्रेजों की क्रूरता के शिकार हिन्दू और मुसलमान समान रूप से हैं।………क्रमशः