स्वाधीनता आंदोलन में मुसलमान….भाग ५

रामबहादुर राय

स्वाधीनता संग्राम के उस चरण में मुसलमानों में एक अजीब वैचारिक परिवर्तन हुआ। 19वीं सदी के प्रारंभ में जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ थे, वे उनके सहयोगी बन गए। जो उनके सहयोगी थे, वे विरोधियों में बदल गए। ऐसी जमात का नेतृत्व  परंपरावादी मुसलमानों ने की। उसे देवबंदी आंदोलन भी कहते हैं। सहारनपुर के एक छोटे से कस्बे देवबंद में दारूल उलूम (ज्ञान का घर) की स्थापना हुई। इसके संस्थापक मौलाना कासिम नानौवती थे। उसी जिले के नानौवती गांव के वे थे। उन्होंने अपने मित्र रसीद अहमद गंगोही के साथ मिलकर एक फौजी दस्ता तैयार किया था। शामली और कैराना इलाके में ब्रिटिश सेना से लड़ाइयां भी लड़ी। कई अंग्रेजों को मारा। उसकी प्रतिक्रिया में अंग्रेजों ने इस इलाके में बड़ी तबाही मचाई और 44 लोगों को फांसी दे दी। वस्तुतः शामली और देवबंद एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं, फर्क सिर्फ हथियारों में है। देवबंद ने तलवार की जगह कलम पकड़ ली और भाले की जगह जबान ने ले ली। दारूल उलूम ने मुसलमानों को उनकी इस्लामी पहचान के प्रति सचेत करने का प्रयास किया। दारूल उलूम की शिक्षा की जड़ें कुरान और हदीस में थी। वह इस्लामीकरण का केंद्र बना। उसकी ख्याति जब बढ़ी, तो अफगानिस्तान, इराक, ईरान, तुर्की और सउदी अरब तक फैली। दारूल उलूम के दो छात्र मौलाना हुसैन अहमद मदनी और उबेदुल्ला सिंधी स्वाधीनता आंदोलन के बड़े नायक बने। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध इनका लक्ष्य था।

दारूल उलूम की सबसे बड़ी देन यह है कि उस संस्था ने अंग्रेजी सत्ता को समाप्त करने के लिए हिन्दुओं के साथ सहयोग की नीति अपनाई। इसका गहरा प्रभाव तमाम राष्ट्रवादी मुसलमानों पर पड़ा। उसी धारा से शिबली नोमानी, अबुल कलाम आजाद आदि निकले। यह भी याद करना चाहिए कि ‘1914 में जब अफगानिस्तान में  पहली स्वतंत्र भारतीय सरकार कायम हुई तो उसके राष्ट्रपति राजा महेंद्र प्रताप और विदेश मंत्री उबेदुल्ला सिंधी बने। उसी सरकार ने एक गुप्त योजना बनाई, जिसे अंग्रेजों ने ‘रेशमी रूमाल आंदोलन’ का नाम दिया। स्वाधीनता आंदोलन का एक नया और राजनीतिक कांग्रेस के जन्म से शुरू होता है। उसे अनेक नाम दिए गए हैं। लेकिन इस लेख में जो प्रासंगिक है, वह बदरूद्दीन तैयबजी और रहमतुल्ला सियानी के नाम हैं। इन्होंने कांग्रेस को अपनाया। उस समय नेतृत्व दिया, जबकि अलीगढ़ आंदोलन इस बात पर अमादा था कि मुसलमान कांग्रेस की तरफ न जाएं। तीसरा नाम मौलाना शिबली नोमानी का है, जो कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़े रहे।

इन नेताओं ने संदेश दिया कि कट्टरपंथी और अंग्रेजपरस्त मुसलमान अपने समुदाय का अहित कर रहे हैं। लेकिन अंग्रेज अपनी चाल से बाज नहीं आए। पहले बंगाल विभाजन किया। फिर मुस्लिम लीग बनवाई। यहीं यह बताना उचित होगा कि बंगाल के कई मुसलमान नेताओं ने पूरे उत्साह से विभाजन विरोधी आंदोलन में हिस्सेदारी की। इसका विवरण ‘आजादी का आंदोलन और भारतीय मुसलमान’ में शांतिमय रे ने विस्तार से दिया है। यह तो सब जानते हैं कि बंगाल विभाजन से राष्ट्रीयता  की देशव्यापी लहर पैदा हुई। यह जानकारी अल्पज्ञात है कि ‘7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के टाउन हाल में विभाजन के विरोध में जो विशाल बैठक हुई उसमें मुख्य प्रस्ताव का अनुमोदन मौलवी हसीबुद्दीन ने किया।

वह राष्ट्रवादी उभार का दौर था। जिसमें ब्रिटिश शासन के क्रूर दमन ने सशस्त्र संघर्ष को जन्म दिया। वह संघर्ष में साझा था। मुसलमानों के मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा बंगाल,महाराष्ट्र, पंजाब और तमिलनाडु में उस संघर्ष में शामिल हो गया था। ‘मौलवी इस्माइल सिराजी ने अंगारे बरसाने वाले भाषणों  से लोगों को ब्रिटिश  राज के विरोध में खड़ा किया। इस तरह के व्यापक प्रतिरोध से ‘आतंकित ब्रिटिश  सरकार ने 1909 का संवैधानिक सुधार कानून इसलिए लाया कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के आधार को कमजोर किया जा सके। वही दौर है, जब गोपनीय क्रांतिकारी समितियों के गठन का क्रम प्रारंभ हुआ। उसी समय आगा खां ब्रिटिश राज के प्रति अपनी स्वामीभक्ति का प्रदर्शन  कर रहे थे, तो दूसरी तरफ खुदीराम बोस ने फांसी के फंदे का रास्ता चुना। गिरफ्तारी से पहले उन्हें एक अनाम मुस्लिम महिला ने शरण दी थी। वे थीं, मौलवी वहीद की बहन।

यह अज्ञात-सा तथ्य है कि ‘दूसरे मांडले षड़यंत्र केस में 1917 में तीन विद्रोही सैनिकों को सजा-ए-मौत दी गई। वे थे, जयपुर के मुस्तफा हुसैन, लुधियाना के अमर सिंह और फैजाबाद के अली अहमद। ऐसे उदाहरणों की भरमार है। जिन्हें इतिहास के पन्नों में खोजा जा सका है। शायद ही कोई होगा, जो मौलाना मुहम्मद अली से अपरिचित हो! लेकिन कितने लोग हैं, जो बेगम अब्दी बानो से परिचित है? वे कौन थी? अगर हम खुद से पूछें और जानने की कोशिश करें, तो खोजना मुश्किल ही होगा, पर असंभव नहीं है। पहले उस स्वाधीनता सेनानी महिला को जानें और फिर अनुभव करें कि स्वाधीनता आंदोलन में मुसलमान नामक नमक भी मिला था। वे अली बंधुओं की माता थी। अमरोहा की रहने वाली थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय उनकी उम्र पांच साल रही होगी। भरी जवानी में वे विधवा हो गई थीं। उस समय उन्हें सलाह दी गई कि फिर से घर बसा लो। उन्होंने घर तो बसाया, परिवार भी बनाया, लेकिन वह निजी नहीं, भारतव्यापी था। पूरे स्वाधीनता आंदोलन को ही उन्होंने अपना घर-परिवार  मान लिया। वे पूरे देश में बी. अम्मा के नाम से मषहूर हुई।

अली बंधु छिंदवाणा में कैद थे। वे वही जाकर रहने लगी। उस समय होमरूल आंदोलन चल पड़ा था। एनी बेसेंट नजर बंद कर दी गई थी। देश में विरोधस्वरूप जनसभाएं हो रही थी। ‘ऐसी ही एक जनसभा की अध्यक्षता कर रहे सुब्रह्मणियम अय्यर के नाम आया उनका एक पत्र उस सभा में पढ़ा गया। आखिर  उस पत्र में ऐसा क्या था कि उसे सार्वजनिक महत्व मिला? वह पत्र खास था। बी. अम्मा ने एनी बेसेंट के लिए लिखा था, ‘यह इज्जत सिर्फ उन्हीं लोगों को मयस्सर होती है जिनको खुदा मुल्क और मजहब की खातिर तकलीफ बर्दाश्त  करने के लिए चुनता है। यह पत्र 4 अगस्त, 1917 का है। इस पत्र में वे लिखती हैं कि वे न सिर्फ मुसलमान औरत हैं, बल्कि उनकी परवरिश भी पुरानी रीति से हुई है। जिसमें किसी औरत का गैर-मर्द से पत्र व्यवहार मुनासिब नहीं समझा जाता।

इसके बावजूद बी. अम्मा ने अपने पत्र में लिखा, ‘जमाना इतनी तेजी से बदल रहा है और उसकी रफ्तार अजीब है कि अगर मुझ जैसी पुराने विचार की जईफ औरत इस प्राचीन रीति को भुलाकर एक ऐसे प्रतिष्ठित एवं सम्मानित व्यक्ति को पत्र लिखे जिनका हर कोई प्रशंसक है और फिर पत्र का विषय भी वह हो जो आज सबके दिलों में छाया हुआ है तो कोई आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं है। यद्यपि मैं वृद्ध हूं किंतु उन परिवर्तनों का स्वागत करती हूं जो आज हमारे आसपास उजागर हो रहे हैं।’ याद करना चाहिए कि अली बंधु की माता ने एनी बेसेंट की नजरबंदी का अपने पत्र से विरोध किया। यह प्रेरणा दो बातों के लिए असाधारण है। पहली बात यह कि उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन को मजहब से उपर माना। दूसरी बात, उनके पत्र में बहुत साफ है कि परंपरा कौन सी है, जिसे छोड़ देना चाहिए। यह विवेक उनमें था।

उनके ऐसे पत्र बहुत हैं, जिनमें उनकी भावनाएं प्रकट हुई हैं। एक पत्र में वे ‘वंदे मातरम्’ के लिए बलिदान होने वाले नौजवानों की प्रसंशा करती हैं। उन्हें 30 दिसंबर, 1921 को अहमदाबाद में आयोजित ‘अखिल भारतीय महिला काफ्रेंस’ की अध्यक्षता करने का भी सम्मान मिला। उस मंच पर कस्तूरबा गांधी और सरोजिनी नायडू जैसी ऊंची हस्तियां भी थीं। उन्होंने उस अवसर पर कहा, ‘जिस वक्त तक हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और पारसियों में कामिल इत्तिहाद और इत्तिफाक न हो हम मुल्क को आजाद नहीं करा सकते और न पूरे अमन व बाइज्जत जिंदगी बसर कर सकते हैं।वे अधिक दिनों  तक दुनिया में नहीं रह सकी। वह दौर हिन्दू-मुस्लिम एकता का था। उनका निधन 1924 में हुआ। उनके निधन पर महात्मा गांधी ने लिखा, ‘वे हमेशा यही कहती रहती थीं कि मैं हिन्दुस्तान में स्वराज्य और हिन्दू-मुस्लिम एकता को देखना चाहती हूं। जब तक हिन्दू-मुसलमान एक होकर भाइयों की तरह नहीं रह सकते, आजादी नामुमकिन है। हम को अपने मजहब पर कायम रहते हुए एकता करनी चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा हम गुलाम रहेंगे। क्रमशः

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