”स्वराज्य’ एक पवित्र शब्द है; वह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्म शासन और आत्म-संयम है। अंग्रेजी शब्द ‘इंडिपेंडेंस’ अकसर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी का या स्वच्छंदता का अर्थ देता है; वह अर्थ ‘स्वराज्य’ शब्द में नहीं है।
जिस प्रकार हर देश खाने-पीने और साँस लेने के लायक है, उसी प्रकार हर राष्ट्र को अपना कारोबार चलाने का पूरा अधिकार है- फिर वह कितनी ही बुरी तरह क्यों न चलाए !
स्वराज्य से मेरा अभिप्राय है लोक-सम्मति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन। लोक-सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी से बड़ी तादाद के मत के द्वारा हो, फिर वे चाहे स्त्रियाँ हों या पुरुष, इसी देश के हों या इस देश में आकर बस गए हों। ये लोग ऐसे हों, जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम लिखवा लिया हो। “सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता ह तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, स्वराज्य जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर अधिकार करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें है ।
राजनीतिक स्वतंत्रता से मेरा यह मतलब नहीं कि हम ब्रिटेन की लोकसभा की, या रूस के सोवियत शासन की, या इटली के फासिस्ट शासन की अथवा जर्मनी के नाजी शासन की नकल करें। उन देशों की शासन पद्धतियाँ उनकी अपनी प्रकृति के अनुरूप हैं । हमारी शासन-पद्धति हमारी प्रजा की प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए। वह पद्धति क्या हो सकती है, यह कहना मेरे लिए कठिन है। मैंने उसे ‘रामराज्य’ कहा है। रामराज्य का अर्थ है – शुद्ध नैतिक सत्ता के आधार पर स्थापित जनता की सार्वभौम सत्ता ।
आखिर स्वराज्य निर्भर करता है हमारी आंतरिक शक्ति पर, बड़ी-से- बड़ी कठिनाइयों से जूझने की हमारी ताकत पर । सच पूछो तो वह स्वराज्य, जिसे पाने के लिए अनवरत प्रयत्न और सुरक्षित रखने के लिए सतत जागृति नहीं चाहिए, स्वराज्य कहलाने के लायक ही नहीं है। जैसाकि आपको मालूम है, मैंने वचन और कार्य से यह दिखलाने की कोशिश की है कि स्त्री-पुरुषों के विशाल समूह का राजनीतिक स्वराज्य एक-एक व्यक्ति के अलग-अलग स्वराज्य से कोई ज्यादा अच्छी चीज नहीं है और इसलिए उसे पाने का तरीका वही है, जो एक- एक आदमी के आत्म – स्वराज्य या आत्म-संयम का हैI
स्वराज्य का अर्थ है- सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना, फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का ! यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें तो वह स्वराज्य – सरकार किसी काम की नहीं होगी ।
मेरा स्वराज्य तो हमारी सभ्यता की आत्मा को अक्षुण्ण रखना है । मैं बहुत सी नई चीजें लिखना चाहता हूँ, पर वे तमाम हिंदुस्तान की स्लेट पर लिखी जानी चाहिए। हाँ, मैं पश्चिम से भी खुशी से उधार लूँगा, पर तभी जबकि मैं उसे अच्छे सूद के साथ वापस कर सकूँ।
स्वराज्य की रक्षा केवल वहीं हो सकती है, जहाँ देशवासियों की ज्यादा बड़ी संख्या ऐसे देशभक्तों की हो, जिनके लिए दूसरी सब चीजों से, अपने निजी लाभ से भी, देश की भलाई का ज्यादा महत्त्व हो । स्वराज्य का अर्थ है – देश की बहुसंख्यक जनता का शासन। जाहिर है कि जहाँ बहुसंख्यक जनता नीतिभ्रष्ट हो या स्वार्थी हो, वहाँ उसकी सरकार अराजकता की ही स्थिति पैदा कर सकती है, दूसरा कुछ नहीं ।
मेरे “हमारे “सपनों के स्वराज्य में जाति (रेस) या धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा । वह स्वराज्य सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किंतु लूले, लँगड़े, अंधे और भूख से मरनेवाले लाखों-करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं।
कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि भारतीय स्वराज्य तो ज्यादा संख्या वाले समाज का यानी हिंदुओं का ही राज्य होगा। इस मान्यता से ज्यादा बड़ी कोई दूसरी गलती नहीं हो सकती। अगर यह सही सिद्ध हो तो अपने लिए मैं ऐसा कह सकता हूँ कि मैं उसे स्वराज्य मानने से इनकार कर दूँगा और अपनी सारी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूँगा। मेरे लिए हिंद स्वराज्य का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है ।
अगर स्वराज्य का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध तथा मजबूत बनाना न हो तो वह किसी कीमत का नहीं होगा । हमारी सभ्यता का मूल तत्त्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, वे निजी हों या सार्वजनिक, नीति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं ।
पूर्ण स्वराज्य- ‘पूर्ण’ कहने में आशय यह है कि वह जितना किसी राजा के लिए होगा, उतना ही किसान के लिए; जितना किसी धनवान जमींदार के लिए होगा, उतना ही भूमिहीन खेतिहर के लिए; जितना हिंदुओं के लिए होगा, उतना ही मुसलमानों के लिए; जितना जैन, यहूदी और सिख लोगों के लिए होगा; उतना ही पारसियों और ईसाइयों के लिए । उसमें जाति-पाँति, धर्म या दर्जे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा ।
‘स्वराज्य’ शब्द का अर्थ स्वयं उसकी प्राप्ति के साधन अर्थात् सत्य और अहिंसा । जिनका पालन करने के लिए हम प्रतिज्ञाबद्ध हैं- ऐसी किसी संभावना को असंभव सिद्ध करते हैं कि हमारा स्वराज्य किसी के लिए तो अधिक होगा और किसी के लिए कम, किसी के लिए लाभकारी होगा और किसी के लिए हानिकारी या कम लाभकारी ।
मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही आपको भी सुलभ होनी चाहिए; इसमें किसी फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमारे पास उनके जैसे महल होने चाहिए। सुखी जीवन के लिए महलों की कोई आवश्यकता नहीं । हमें महलों में रख दिया जाए तो हम घबड़ा जाएँगे। लेकिन आपको जीवन की वे सामान्य सुविधाएँ अवश्य मिलनी चाहिए, जिनका उपभोग अमीर आदमी करता है । मुझे इस बात में बिलकुल संदेह नहीं है कि हमारा स्वराज्य तब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा जब तक वह आपको ये सारी सुविधाएँ देने की पूरी व्यवस्था नहीं कर देता। पूर्ण स्वराज्य का अर्थ है भारत के नर कंकालों का उद्धार । पूर्ण स्वराज्य ऐसी स्थिति का द्योतक है, जिसमें गूँगे बोलने लगते हैं और लँगड़े चलने लगते हैं।
सत्य और अहिंसा के जरिए संपूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति का मतलब है – जात-पाँत, वर्ण या धर्म के भेद से रहित राष्ट्र के प्रत्येक घटक की और उसमें भी उसके गरीब से गरीब व्यक्ति की स्वतंत्रता की सिद्धि । इस स्वतंत्रता से किसी को भी दूर या अलग नहीं रखा जा सकता। इसलिए अपने राष्ट्र से बाहर के दूसरे राष्ट्रों के साथ और राष्ट्र की जनता के भीतर उसके अलग-अलग वर्गों के परस्परावलंबन के साथ इस स्वतंत्रता का पूरा मेल रहेगा। अलबत्ता, जिस तरह हमारी खींची हुई कोई भी लकीर युक्लिड की शास्त्रीय व्याख्या की लकीर की तुलना में अधूरी रहेगी, उसी तरह तात्त्विक सिद्धांत की अपेक्षा उसका व्यावहारिक अमल अधूरा रहता है। इसलिए जिस हद तक हम सत्य और अहिंसा का अपने दैनिक जीवन में अमल करेंगे, उसी हद तक हमारी प्राप्त की हुई संपूर्ण स्वतंत्रता भी पूर्ण होगी ।
यह सब इस बात पर निर्भर है कि पूर्ण स्वराज्य से हमारा आशय क्या है और उसके द्वारा हम पाना क्या चाहते हैं ! अगर हमारा आशय यह है कि जनता में जागृति होनी चाहिए, उन्हें अपने सच्चे हित का ज्ञान होना चाहिए और सारी दुनिया के विरोध का सामना करके भी उस हित की सिद्धि के लिए कोशिश करने की योग्यता होनी चाहिए; और यदि पूर्ण स्वराज्य के द्वारा हम सुमेल, भीतरी या बाहरी आक्रमण से रक्षा और जनता की आर्थिक स्थिति में उत्तरोत्तर सुधार चाहते हों तो हम अपना उद्देश्य राजनीतिक सत्ता के बिना ही, सत्ता जिनके हाथ में हो, उन पर अपना सीधा प्रभाव डालकर सिद्ध कर सकते हैं।
स्वराज्य की मेरी कल्पना के विषय में किसी को कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। उसका अर्थ विदेशी नियंत्रण से पूरी मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता है। उसके दो दूसरे उद्देश्य भी हैं। एक छोर पर है नैतिक और सामाजिक उद्देश्य और दूसरे छोर पर इसी कक्षा का दूसरा उद्देश्य है धर्म । यहाँ ‘धर्म’ शब्द का सर्वोच्च अर्थ अभीष्ट है। उसमें हिंदू धर्म, इसलाम धर्म, ईसाई धर्म आदि सबका समावेश होता है, यदि लेकिन वह इन सबसे ऊँचा है। इसे हम स्वराज्य का समचतुर्भुज कह सकते हैं; उसका एक भी कोण विषम हुआ तो उसका रूप विकृत हो जाएगा ।
मेरी कल्पना का स्वराज्य तभी आएगा जब हमारे मन में यह बात अच्छी तरह जम जाए कि हमें अपना स्वराज्य सत्य और अहिंसा के शुद्ध साधनों द्वारा ही प्राप्त करना है, उन्हीं के द्वारा हमें उसका संचालन करना है और उन्हीं के द्वारा हमें उसे कायम रखना है। सच्ची लोकसत्ता या जनता का स्वराज्य कभी भी असत्यमय और हिंसक साधनों से नहीं आ सकता । कारण स्पष्ट और सीधा है – यदि असत्यमय और हिंसक उपायों का प्रयोग किया गया, तो उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सारा विरोध या तो विरोधियों को दबाकर या उनका नाश करके खत्म कर दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा नहीं हो सकती। वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रकट होने का पूरा अवकाश केवल विशुद्ध अहिंसा पर आधारित शासन में ही मिल सकता है।
अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में लोगों को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो तो कोई बात नहीं, लेकिन उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। हर एक कर्तव्य के साथ उसकी तौल का अधिकार जुड़ा हुआ होता ही है और सच्चे अधिकार तो वे ही हैं जो अपने कर्तव्यों का योग्य पालन करके प्राप्त किए गए हों। इसलिए नागरिकता के अधिकार सिर्फ उन्हीं को मिल सकते हैं, जो जिस राज्य में रहते हों, उसकी सेवा करते हों। और सिर्फ वे ही इन अधिकारों के साथ पूरा न्याय कर सकते हैं। हर एक आदमी को झूठ बोलने और गुंडागिरी करने का अधिकार है; किंतु इस अधिकार का प्रयोग उस आदमी और समाज, दोनों के लिए हानिकर है । लेकिन जो व्यक्ति सत्य और अहिंसा का पालन करता है, उसे प्रतिष्ठा मिलती है और इस प्रतिष्ठा के फलस्वरूप उसे अधिकार मिल जाते हैं । और जिन लोगों को अधिकार अपने कर्तव्यों के पालन के फलस्वरूप मिलते हैं, वे उनका उपयोग समाज की सेवा के लिए ही करते हैं, अपने लिए कभी नहीं। किसी राष्ट्रीय समाज के स्वराज्य का अर्थ उस समाज के विभिन्न व्यक्तियों के स्वराज्य (अर्थात् आत्म सम्मान) का योग ही है । और ऐसा स्वराज्य व्यक्तियों द्वारा नागरिकों के रूप में अपने कर्तव्य के पालन से ही आता है, उसमें कोई अपने अधिकारों की बात नहीं सोचता । धन उनकी आवश्यकता होती है, तब वे उन्हें अपने आप मिल जाते है और इसलिए मिलते हैं कि वे अपने कर्तव्य का संपादन ज्यादा अच्छी तरह कर सकें ।
अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में कोई किसी का शत्रु नहीं होता। सारी जनता की भलाई का सामान्य उद्देश्य सिद्ध करने में हर एक अपना अभीष्ट योग देता है । सब लिख-पढ़ सकते हैं और उनका ज्ञान दिन-प्रतिदिन बढ़ता रहता है। बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएँ, ऐसा व्यवस्था की जाती है। कोई कंगाल नहीं होता और मजदूरी करना चाहनेवाले को काम अवश्य मिल जाता है । ऐसी शासन- व्यवस्था में जुआ, शराबखोरी और दुराचार का या वर्ग-विद्वेष का कोई स्थान नहीं होता। अमीर लोग अपने… धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे; अपनी शान-शौकत बढ़ाने में या शारीरिक सुखों की वृद्धि में उसका अपव्यय नहीं करेंगे। उसमें ऐसा नहीं हो सकता, होना नहीं चाहिए, कि चंद अमीर तो रत्न-जटित महलों में रहें और लाखों-करोड़ों ऐसी मनहूस झोंपड़ियों में, जिनमें हवा और प्रकाश का भी प्रवेश न हो। अहिंसक स्वराज्य में न्यायपूर्ण अधिकारों का किसी के भी द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं हो सकता और इसी तरह किसी के कोई अन्यायपूर्ण अधिकार नहीं हो सकते । सुसंघटित राज्य में किसी के न्यायपूर्ण अधिकार का किसी दूसरे के द्वारा अन्यायपूर्वक छीना जाना असंभव होना चाहिए और कभी ऐसा हो जाए तो अपहर्ता को अपदस्थ करने के लिए हिंसा का आश्रय लेने की जरूरत नहीं होनी चाहिए ।