धार्मिक स्थलों की मुक्ति का अर्थ

शिवेंद्र सिंहसनातन समाज आंदोलित एवं संघर्षरत है. यह आत्मसम्मान का संघर्ष है. अधिकार का संघर्ष है. राष्ट्र को अक्षुण्ण बनाए रखने का संघर्ष है. एकजुटता का संघर्ष है. अपनी परंपराओं एवं संस्कारों के संरक्षण का संघर्ष है. इसी संघर्ष का महत्वपूर्ण भाग धार्मिक स्थलों का पुनरुद्धार भी है. सनातन समाज के धार्मिक स्थल हमेशा से ही उसके विरोधियों के निशाने पर रहे हैं. प्राचीन काल से आधुनिक युग तक मुसलमानों तथा ईसाइयों ने इनका विध्वंस और इनपर कब्जा किया. वर्तमान में वामपंथी और तथाकथित उदारवादी सरकारें यही करती रही हैं. आज भी भोजशाला (धार), श्रीकृष्ण जन्मभूमि (मथुरा) और काशी-विश्वनाथ से लेकर अटाला मस्जिद (जौनपुर) आदि कितने सनातन धार्मिक स्थल शामी पंथियों के हाथों अपमानित अवस्था में हैं.

वर्तमान में भी तमिलनाडु और आंध्रा में विकास के नाम पर सरकारी संरक्षण में सनातन मंदिरों का ध्वँस हो रहा है. 29 अगस्त, 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की अर्जी पर तमिलनाडु सरकार से जवाब मांगा, जिसमें आरोप है कि राज्य सरकार ने करीब 40,000 मंदिरों और अन्य हिंदू धार्मिक संस्थाओं को मनमाने ढंग से कब्जा में कर लिया है. अर्जी द्वारा राज्य हिंदू धार्मिक और धार्मिक विन्यास कानून 1959 के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है, जिसका इस्तेमाल कथित तौर पर राज्य सरकार द्वारा मंदिरों और हिंदू धार्मिक संस्थाओं के प्रशासन, प्रबंधन और नियंत्रण पर कब्जा करने के लिए किया गया है. इसी दौरान उच्चतम न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा का एक पुराना वीडियो सोशल मीडिया पर सामने आया जिसमें वे वामपंथी सरकारों द्वारा हर जगह हिंदू मंदिरों पर कब्जा की बात कर रहीं हैं.

 भारत में सनातन समाज के धार्मिक स्थलों का ध्वँस एवं उन पर कब्जा मध्यकाल से आधुनिक युग एक सामान्य प्रक्रिया रही है. सनातन समाज यह सब मौन होकर देखता रहा था. किंतु अब वह अपने धार्मिक स्थलों की मुक्ति को लेकर उत्तेजित हैं. ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ भारत में हो रहा है अथवा केवल सनातन समाज इसे लेकर आंदोलित है. दुनिया में कई जगह ऐसी परिस्थितियां हैं. लेकिन मूलभूत प्रश्न है कि अपने धार्मिक स्थलों की मुक्ति या पुनर्प्राप्ति को लेकर विश्व के सभी धर्मों-पंथों या राष्ट्रो में इतनी व्यग्रता क्यों है? इसके गहरे निहितार्थ हैं.

प्राचीन काल से ही धार्मिक स्थल किसी साम्राज्य एवं शासक के शक्ति एवं वैभव का केंद्र होने के साथ ही जनता की आस्थाओं को भी नियंत्रित करते थे. धार्मिक स्थलों का निर्माण कराकर राजवंशों ने जनता पर अपना प्रभाव स्थापित करने के साथ ही अपने लिए लिए श्रद्धा का भाव पैदा किया. धार्मिक स्थल युद्ध-विजय के प्रतीक के तौर भी देखे जाते थे. महान चोल सम्राट राजेंद्र चोल ने गंगा घाटी तक सैन्य अभियान किए. तब इसकी स्मृति में उन्होंने बृहदीश्वर का भव्य और विशाल मंदिर बनवाया. पल्लव सम्राट नरसिंह वर्मन् ने ज़ब चालुक्य साम्राज्य पर हमला किया तब अपनी विजय का प्रभाव स्थापित करने के लिए उसने चालुक्यों की राजधानी बादामी के मल्लिकार्जुन मंदिर के परिसर में पाषाण शिलालेख पर अपनी विजय का संदेश स्थापित कराया. उसी प्रकार इसके प्रतिकार स्वरुप जब चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों पर आक्रमण किया तब उनकी राजधानी कांची के राजसिंहेश्वर मंदिर में उसी प्रकार अपनी विजय की सूचना देता हुआ एक अभिलेख उत्कीर्ण कराया.

सनातन संस्कार धार्मिक स्थलों के ध्वँस के विरुद्ध हैं, इसलिए भारतीय सम्राटों ने कभी भी अपने सामरिक अभियानों के दौरान प्रतिद्वंदी राज्य के धार्मिक स्थलों को अपमानित नहीं किया. किंतु इस्लामिक संस्कार ऐसी उदारता तथा सहिष्णुता को स्वीकार नहीं करते, इसलिए मुसलमान गैर धर्मों के साथ ही अपने सहपंथीयों के प्रति भी क्रूर व्यवहार करते रहे हैं. अभी पेशावर में इस्लामिक आंतकवादियों ने नमाज के दौरान आत्मघाती हमले में मस्जिद उड़ा दी जिसमें पचासों लोग मर गये. वैसे यह इस्लामिक इतिहास में कोई नई या आश्चर्यजनक घटना नहीं है. गोरी (या शसबानी) शासक अलाउद्दीन हुसैन ने 1150 ई. के लगभग ज़ब गजनी पर हमला किया तो पूरे नगर समेत मस्जिदों और कब्रों तक को जलवा दिया. इस्लामिक इतिहास में इसी कारण उसे जहाँसोज (जगदाहक) कहा गया है. इसी प्रकार सिकंदर लोदी ने अंतिम शर्की सुल्तान हुसैन शाह को 1496 में दक्षिण बिहार से खदेड़कर जौनपुर पर अधिकार करने के बाद शर्की सुल्तानों द्वारा बनवाई गई मस्जिदें तुड़वाना शुरू कर दिया. हालांकि बाद में उलेमाओं के कहने पर यह ध्वँस रोक दिया गया. यह आधुनिक काल में भी नहीं रुका. खुद को ‘महदी’ घोषित करने वाले मोहम्मद अबदुल्ला अल कहतानी और जुहेमान अल ओतायबी के नेतृत्व में 1979 में कट्टर सुन्नी इस्लामिक धड़े सलाफी से सम्बंधित सैकड़ों हथियारबंद लोगों ने मक्का के अल हरम मस्जिद पर हमला कर हजारों हाजियों को मार दिया था. 

इस्लाम का तथाकथित उदार सूफ़ी वर्ग की सोच भी इससे भिन्न नहीं रही. कश्मीर में हिन्दू जाति के धर्मान्तरण में सक्रिय रहे कुब्राबिया सिलसिले ने अपने समर्थकों को सनातन मंदिरों

एवं धार्मिक स्थलों को अपवित्र और ध्वस्त करने के लिए प्रोत्साहित किया. मीर सैय्यद अली हमदानी इसी सिलसिले से सम्बंधित था. वही बंगाल में हिन्दुओं के इस्लाम में बलात् धर्मान्तरण कराने के लिए कुख्यात सुहरावर्दी सूफ़ी शेख जमालुद्दीन ने पांडुआ के देवतल्ला में अपना खानकाह (सुफियों का निवास स्थान) बनवाने के लिए एक हिंदू मंदिर को बिना संकोच ध्वस्त करा दिया. अतः इस्लामिक समाज द्वारा सनातन मदिरों के ध्वँस पर आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए क्योंकि इस्लाम स्वयं के अनुयायियों के प्रति भी यथासंभव अनुदार ही रहा है.

धार्मिक स्थलों ने आस्था के साथ ही राजसत्ता के आभामंडल के विस्तार में सहयोग किया है. धार्मिक स्थलों से जुड़कर अक्सर सत्ताएं वैधता प्राप्त कर लेती हैं. इससे जनता का समर्थन और उसकी निष्ठा साम्राज्य और राजा के प्रति निरंतर बनी रहती थीं. चोल साम्राज्य के मंदिरों में सम्राटों की प्रतिमा स्थापित की जाती थी तथा मृत्यु के बाद उनकी देवता के रूप में पूजा की जाती थी. तंजौर के मंदिर में सुंदर चोल (परांतक द्वितीय) तथा राजेंद्र चोल की प्रतिमा स्थापित की गई थी. ऐसा ही रोमन साम्राज्य एवं मिस्र में भी होता था. मिस्र में फिरौन की लंबे समय से पूजा की जाती थी.

फ्रांस में नोटेड्रम चर्च को पेरिस की आत्मा कहा जाता है. मान्यता है कि ईसा मसीह का कांटों वाला ताज, सच्चे क्रॉस का एक टुकड़ा और उसकी एक कील यहां संरक्षित है. यह चर्च फ्रांस में सत्ता एवं आस्था का केंद्र होने के साथ ही क्रांति और युद्धों का गवाह रहा है. 1789 की फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत यही से हुई थी. नेपोलियन बोनापार्ट ने 1804 में यही ताजपोशी कराकर खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित किया था. कई फ्रांसीसी राष्ट्रपतियों यथा थियर्स, कार्नोट, पॉल डौमर, चार्ल्स डी गॉल, जॉर्जेस पोम्पिडो, फ्रांकोइस मिटर्रैंड का अंतिम संस्कार यही हुआ.

 इसके अतिरिक्त धार्मिक स्थल किसी राष्ट्र या समाज के भीतर आत्मसम्मान का भाव भरने के प्रेरक श्रोत होते हैं. इसिलिए इसके दूसरे पक्ष में किसी राष्ट्र को पराभूत-पतित करने एवं उसके आत्मसम्मान और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने के लिए उसके धार्मिक आस्थाओं के केंद्र ही आक्रांताओं के प्राथमिक लक्ष्य होते हैं. उदाहरणस्वरूप गजनवी, गोरी एवं तिमूर लंग जैसे धर्मांध मुस्लिम लुटेरों का सनातन धर्म स्थलों को रौंदना. इस फरवरी माह (2023) में बांग्लादेश के ठाकुरगाँव जिले में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने लगातार हमले करते हुए 14 हिंदू मंदिर तोड़ डाले. यह पिछले 1400 वर्षों से चली आ रही वही मानसिकता है जिसका वर्णन बाबा साहेब आंबेडकर ने गजनवी के कुकृत्यों के संदर्भ में दिया है, ‘उसने मूर्ति वाले मंदिरों का विध्वँस किया और इस्लाम को स्थापित किया. उसने नगरों पर कब्ज़ा किया और मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए मूर्ति-पूजकों को मारा. इसके बाद अपने राज्य में वापस आकर वह अपना यशोगान करता था कि इस्लाम के लिए उसने कितनी जीतें हासिल कीं.’

ईसाई यूरोपियों ने ‘नई दुनिया’ की खोज के पश्चात् वहां के मूल निवासियों के साथ भी यही किया.दक्षिण अमेरिका पहुंचने के पश्चात् यूरोपियों ने वहां की एजटेक, इंका, अरावाक आदि मूल निवासी समुदायों के धार्मिक स्थल नष्ट कर डाले ताकि उनकी राष्ट्रीयताओं के पुरुत्थान की कोई उम्मीद ना बचे. स्पेनियों ने सूर्य उपासक एजटेक जातियों के मंदिरों में जबरन ईसाई प्रतिमाएं स्थापित कराई. सनातन मंदिरों और तीर्थस्थलों का ऐसा ही विध्वंस ईसाईयों ने भारत के गोपकपट्टनम (गोवा) समेत भारत के विभिन्न हिस्सों में किया. इसका विद्रुप उदाहरण विवेकानंद स्मारक स्थल है जिसकी ईसाईयों ने शिलापट्टीका तोड़ डाली थी. कन्याकुमारी में स्थित यह वही शिला थी जिसपर दिसंबर 1892 में दक्षिण भारत के अपने दौरे के समय तीन दिनों तक बैठकर  स्वामी विवेकानंद ने साधना और चिंतन किया था. ईसाई इसपर कब्जा करना चाहते थे. उनका कहना था कि यह सेंट फ्रांसिस जेवियर्स रॉक (सोलहवीं सदी के स्पेन के संत) है और यहाँ उन्हीं का स्मारक बनना चाहिए. लेकिन इस स्थल को एकनाथ रानाडे के पराक्रम ने बचा लिया और उनके छः वर्षों (1964-1970) के अथक परिश्रम से इसे राष्ट्र को समर्पित किया जा सका. इसी सेंट जेवियर के विषय में कहा जाता है कि ज़ब नवीन धर्मान्तरित जन अपने पूर्व के देवी-देवताओं को पैरों से कुचलते थे, मंदिरों को ढ़हाते थे, उस समय वह परम आनंद का अनुभव करता था.

 प्रमुख धार्मिक स्थल का किसी देश या सत्ता के अधिकार क्षेत्र में होना उसे सम्बंधित धर्म या पंथ के अनुयायियों की दृष्टि में प्रमुखता दिलाता है. मक्का-मदीना भी शिया-सुन्नीयों के बीच संघर्ष का एक केंद्र रहा है. सुन्नियों के नेता के रूप में इस्लामिक जगत में सऊदी अरब के वर्चस्व का मूल कारण मक्का-मदीना का उसके अधिकार क्षेत्र में स्थित होना है. इसी कारण आज भी सऊदी किंगडम इस्लामिक जगत में सम्मानित है. तुर्की के हागिया सोफिया मसले में भी यही दृष्टिकोण रहा है.

तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन नए खलीफा बनने, खिलाफत की श्रेष्ठता के दौर के पुनरावर्तन एवं राष्ट्रीय गौरव की पुनर्स्थापना को आतुर हैं. इस्लामिक जगत का नेतृत्व करने की उनकी आकांक्षा किसी से छिपी नहीं है. वर्ष 2020 में हागिया सोफिया को मस्जिद में बदलना उनकी इस्लाम के उन्नायक बनने की आकांक्षा का ही प्रतिफल था. हागिया सोफ़िया वास्तव में एक चर्च था. इसका निर्माण छठी शताब्दी में बाइज़ेंटाइन सम्राट जस्टिनियन ने करवाया था. राष्ट्रपति अर्दोआन ने इसे मस्जिद में रूपांतरित करने के दौरान अपने देश के उदारवादियों, पोप फ़्रांसिस, द वर्ल्ड काउंसिल ऑफ़ चर्चेज़, युनेस्को से लेकर अमेरिका एवं यूरोपीय संघ तक के विरोध को अनदेखा कर दिया. अपने इस क़दम के समर्थन में उनका तर्क था कि, ‘तुर्की ने अपनी संप्रभु शक्तियों का इस्तेमाल किया है.’

धर्म स्थलों का ध्वँस किसी राष्ट्र के गर्व एवं आत्मसम्मान के ध्वँस सरिखा होता है. किंतु इसका प्रतिकार दोतरफ़ा होता है. ज़ब कोई राष्ट्र पुर्नजागरण की प्रक्रिया से गुजरता है तो वह मात्र अपने ध्वस्त अथवा अधिकृत किये गये धर्म स्थलों के जीर्णोद्धार या मुक्ति का ही प्रयास नहीं करता बल्कि अपने प्रतिद्वंदी पंथों अथवा शत्रुराष्ट्र या समाज के धार्मिक स्थलों एवं प्रतीक चिन्हओं को भी ध्वस्त करता है. इसके पीछे अपने पूर्वजों की कमजोरियों एवं पराजयों के इतिहास से उपजी कुंठा का अहम योगदान होता है. इसी परिपेक्ष्य में डॉ. राममनोहर लोहिया अपनी किताब ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लिखते हैं, “अपने पूर्वजों की सतत नपुंसकता के दुख से मैं सदा ही दबा रहा हूँ.” जैसे न्यूजीलैंड के मूल निवासी जनजाति ‘माओरी’ लोगों में कैप्टन कुक की छवि एक खलनायक की है. वे उसे अपने प्रति यूरोपियों द्वारा की गई बर्बरता का प्रतीक मानते हैं. कई बार माओरी लोगों ने न्यूजीलैंड में कैप्टन कुक की प्रतिमाएं ध्वस्त कर डाली. गिसबोर्न में लगी जेम्स कुक की मूर्ति को कई बार बदरंग किया जा चुका है. इस पर माओरी लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति के चित्र उकेर देते हैं. भारत में बाबरी ढांचे के ध्वँस को भी इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए. 

धार्मिक स्थल उसके विश्वासियों के एकत्रण का माध्यम बनते है जिससे उस धर्म के अनुयायियों में एकता की भावना बढ़ती है. धर्म स्थलों का अस्तित्व धर्म के रक्षार्थ संघर्ष की प्रेरणा देता है. दुनिया में इस्लाम ही एक मात्र ऐसा पंथ है जिसके अनुयायियों में अनेक फिरकों और वैचारिक विभाजन के पश्चात् भी मक्का-मदीना उनका दुनियाभर में निर्विवाद सबसे पवित्र स्थल है. दुनियाभर के मुसलमान यहां मिलते हैं और विश्वभर में इस्लाम की समस्याओं, उसके विकास पर चर्चा करते हैं. अपने पंथीय लक्ष्य तय करते हैं. इससे इस्लाम के वैश्विक सुदृढ़ीकरण का आधार तैयार होता है. यह दुनिया के किसी और धर्म या पंथ के साथ नहीं है. यहाँ तक कि ईसाई पंथ भी ग्रीक ऑर्थोडॉक्स, रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स पैट्रियार्केट, फ्रांसिस्कन फ्रायर्स और अर्मेनियाई पैट्रियार्केट, इथियोपियाई, कॉप्टिक, सीरियाई ऑर्थोडॉक्स कांस्टेंटिनोपल आदि संप्रदायों में विभाजित होने के कारण समान रूप से वेटीकन या येरुशलम या मारियामाइट कैथेड्रल, दमिश्क जैसे अपने धार्मिक स्थलों के प्रति वह श्रद्धा भाव नहीं रखते जो मुसलमानों में मक्का-मदीना के लिए है.

धार्मिक स्थल धर्म-संस्कृति के भौतिक स्वरूप का प्राण तत्व होते हैं. ये राष्ट्र के सांस्कृतिक-सैद्धांतिक शक्ति पुंज का केंद्र एवं उसके संवाहक होते हैं. इसीलिए भारत की सनातन परंपरा को भ्रष्ट करने के प्रयासरत मुस्लिम आक्रमणकरियों, बादशाहों तथा ईसाई यूरोपियों पुर्तगाली या अंग्रेजों ने सनातन धार्मिक स्थलों, मठ-मंदिरों आदि को लक्षित कर नष्ट किया.

सनातन धर्म ने पिछले हजार वर्षों से अकथ्य-अकल्पनीय अत्याचार और अपने धार्मिक स्थलों का अपमान झेला है. मूर्तियों के टूटने की पीड़ा को संत नामदेव ने इस प्रकार व्यक्त किया है, “पत्थर का देवता नहीं बोलता. वह चोट खाकर टूट जाता है. पत्थर के देवताओं के पुजारी सब खो बैठते हैं.” किंतु सनातन समाज अब जागरूक है. वह अपने धार्मिक स्थलों पर अधिकारिता वापस पाने के लिए आंदोलित है.

परन्तु यह एक विडंबना है कि देश के तथाकथित पंथनिरपेक्ष एवं उदारवादी इसे फासीवाद एवं कट्टरता का सूचक मानते हैं. आश्चर्यजनक रूप से ऐसा कहने वालों में स्वयं कट्टरता के पर्याय मुसलमान भी शामिल हैं. सनातन आंदोलनों के विरोध में सद्भाव, बंधुत्व या सामाजिक समरसता जैसे मूल्यों का तर्क भी दिया जा रहा है. लेकिन ऐसे तर्क देने वाले संभवत: नहीं समझ पा रहे कि इन आंदोलनों के पीछे भावनात्मक प्रवाह होता है, जिसका संबल धर्म है. धर्म का आधार श्रद्धा एवं समर्पण पर टिका हुआ है और श्रद्धा के सामने तर्कों का कोई महत्व नहीं होता. यह बात मुसलमानों से अधिक कौन समझ सकता है. 

हालांकि लोकतंत्र तो तर्कों को स्वीकार करता हैं. इसलिए लोकतांत्रिक तरीके से इनका हल निकालने का प्रयास होना चाहिए. भारत में ऐसा ही हो रहा है. भारत दुनिया के लिए अनुकरणीय हैं, जिसने राम मंदिर की अधिकारिता के लिए 50 वर्षों से अधिक समय तक संवैधानिक संघर्ष किया. इसका श्रेय सनातन परंपरा को है. किंतु दूसरे पक्ष को भी ये समझना होगा कि दुराग्रह छोड़कर ऐतिहासिक गलतियों को स्वीकार करने से विवाद ख़त्म होते हैं. क्योंकि एक पक्ष का दुराग्रह दूसरे को भी उकसायेगा, जिसमें सबका अहित है.

आज भारत में धार्मिक स्थलों के ध्वँस के इतिहास को ना कुरेदने का ज्ञान देने वाले मुसलमान हागीय सोफिया पर अवैध कब्जा कर मस्जिद घोषित करने पर प्रसन्नता से लहालोट हो रहे थे. यही नहीं यरुशलम पर कब्जे के लिए इस्लामिक समाज निरंतर यहूदियों से संघर्षरत हैं. यरुशलम में डोम ऑफ़ द रॉक और अल अक़्सा मस्जिद स्थित है. इसे मुस्लिम हरम अल शरीफ़ एवं अपना तीसरा प्रमुख धार्मिक स्थल मानते हैं. इसे अपने अधिकार क्षेत्र में लाना इस्लाम का पिछले पचास सालों से भी अधिक पुराना ख्वाब है.

23 अगस्त, 2022 को को ज्ञानवापी-श्रृंगार गौरी मामले में वाराणसी की जिला अदालत में जिरह के दौरान मुस्लिम पक्ष का मानना था कि ज्ञानवापी मस्जिद वक्‍फ की अधिकारिता में है. अतः उससे सबंधित किसी भी सुनवाई का अधिकार सिर्फ वक्‍फ बोर्ड को है. प्रतिउत्तर में हिंदू पक्ष के अधिवक्ता का कहना था कि, ‘मंदिरों को तोड़कर बनायी गयी मस्जिदों को सनातन समाज को लौटा दिया जाना चाहिए.’ यह उत्तर उचित ही है.

 दार्शनिक सिसरो कहते हैं, “इतिहास एक अधिकार-संपन्न अधिकारी है जो सत्य एवं तर्क के आधार पर न्याय प्रदान करता है.” न्याय तो ये कहता है कि जिनसे जो छिना गया हो वो उन्हें लौटा दिये जाए. यूरोपीय देशों ने एशिया एवं अफ्रीका के देशों से उनकी स्वतंत्रता छिनी थी, वो लौटानी पड़ी. अमेरिका ने नीग्रो लोगों से उनका सम्मान छिना था, वो लौटा देना पड़ा. तथाकथित सवर्णों ने अनुसूचित जाति एवं जनजातियों से समानता का हक छिना था, वो लौटना पड़ा. ऐसे ही सनातन समाज के बलपूर्वक अधिकृत धार्मिक स्थलों को उसे सम्मानपूर्वक लौटा देना चाहिए. जिस दिन ऐसा होगा, उसी समय से इस देश में वास्तविक समरसता एवं सद्भावना की शुरुआत हो जाएगी. मीर तक़ी मीर कहते हैं,

“तोड़कर बुतखाना मस्जिद तो बिना की तूने शेख

ब्रह्मन के दिल की भी कुछ फिक्र है तामीर की.”

 प्रश्न धार्मिक टकराव का नहीं भावनाओं के सम्मान का है, वरना संघर्ष का रास्ता तो खुला ही है.

 

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