प्राचीन संस्कृति का अभिप्राय

आज शाम, भेंट किए गए आपके सुंदर मानपत्र के लिए, मैं आपका आभारी हूं। आपने कहा है, और ठीक ही कहा है कि इस सुंदर द्वीप में मुझे ले आने का श्रेय आपको ही है। पर आपको यह भी याद रखना चाहिए कि किसी काम का श्रेय लेने वालों को, कोई गड़बड़ी होने की हालत में, बदनामी भी, अपने ही सिर लेनी पड़ती है।

आज शाम यहां आपको कोई संदेश देना मेरे लिए थोड़ा कठिन है। इसलिए कि मुझे न तो आपकी कांग्रेस के बारे में पर्याप्त जानकारी है और न ही मुझे यह पता है कि यहां इस सभा में किन-किन वर्गां के लोग उपस्थित है; हां, आपके सुयोग्य अध्यक्ष ने, आपकी कांग्रेस के उद्देश्य, मुझे अवश्य बतला दिए हैं। इन उद्देश्यों के बारे में ही, मैं अपने कुछ विचार आपके सामने रखता हूं।

आपके अध्यक्ष की बात यदि मैंने ठीक-ठीक समझी है तो आपका प्रथम उद्देश्य प्राचीन संस्कृति का पुनरूद्धार करना है। तब फिर आपको समझना चाहिए कि प्राचीन संस्कृति आखिर है क्या? और फिर निश्चय ही, वही संस्कृति ऐसी होनी चाहिए, जिसका पुनरूद्धार करने के इच्छुक हिन्दू, ईसाई, बौद्ध या कहिए, हर धर्म और विश्वास के विद्यार्थी हों। यह इसलिए कि यहां मैं यह मानकर चलता हूं कि आप जब प्राचीन संस्कृति की आत कहते हैं तो आप केवल हिन्दू विद्यार्थियों तक ही अपने को सीमित नहीं रखते। मैं यह मानकर चलता हूं कि इस छात्र संघ में हिन्दू, ईसाई, मुसलमान और बौद्ध आदि सभी धर्मों के विद्यार्थी नहीं हैं, पर मेरे तर्क पर इस बात का कोई प्रभाव इसलिए नहीं पड़ता कि आपका चरम लक्ष्य तो सभी के लिए स्वराज हासिल करना है, जफना के हिन्दुओं और ईसाईयों भर के लिए नहीं। आप तो इस द्वीप में बसने वाली समस्त जनता के लिए स्वराज चाहते हैं और जफना इसका एक हिस्सा ही है। इसलिए मैंने इस विभिन्न घर्मों के विद्यार्थियों को संघ में शामिल करने के बारे में जो बात कही है वह इस पर खरी उतरती है। अब इस स्थिति में हम अपना प्रश्न लें हम जिसका पुनरूद्धार करना चाहते हैं, वह प्राचीन संस्कृति आखिर है क्या? इससे सपष्ट है कि वह एक ऐसी संस्कृति होनी चाहिए, जो इन सभी धर्मावलंबियों की समान संस्कृति हो और जिसे ये सभी लोग स्वीकार करते हों। इसलिए निःसंदेह ही वह संस्कृति प्रधानता तो हिन्दू संस्कृति ही होगी, लेकिन वह मात्र हिन्दू संस्कृति या विशुद्ध हिन्दू संस्कृति कदापि नहीं हो सकती। वह प्रधानतया हिन्दू संस्कृति होगी, ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि प्राचीन संस्कृति का पुनरूद्धार करने के इच्छुक आप लोग प्रमुखतया हिन्दू ही हैं, और आपको सदा ही उस देश का ध्यान रहता है, जिसे आप गर्व के साथ अपनी मातृभूमि कहने में हर्ष महसूस करते हैं, और जो सर्वथा उचित है।

मैं यह कहने की धृष्टता करता हूं कि हिन्दू संस्कृति में बौद्ध संस्कृति भी आवश्यक रूप से सम्मिलित है। इसका सीधा-सा कारण यह है कि स्वयं बुद्ध एक भारतीय थे और भारतीय ही नहीं, वे हिन्दुओं में एक श्रेष्ठतम हिन्दू थे। गौतम के जीवन में मुझे ऐसी कोई बात नहीं मिली, जिसके आधार पर कहा जा सके कि उन्होंने हिन्दू-धर्म त्यागकर कोई अन्य धर्म अपना लिया था। मेरा काम और भी आसान हो जाता है, जब मैं सोचता हूं कि स्वयं ईसा भी तो एक एशियाई ही थे। इसलिए अब हमारे विचार के लिए प्रश्न यह होना चाहिए कि एशियाई संस्कृति या प्राचीन एशियाई संस्कृति क्या है। और इस तरह देखा जाए तो मुहम्मद भी तो एशियाई ही थे। चूंकि आप प्राचीन संस्कृति के उन सभी तत्वों या उपादानों का ही तो पुनरूद्धार करना चाहेंगे, जो उच्चादर्शपूर्ण हैं और जिनका स्थाई महत्व है; इसलिए आप किसी भी ऐसे उपादान का पुनरूद्धार तो कर ही नहीं सकते, जो इनमें से किसी भी धर्म के विरूद्ध पड़ता हो। अब प्रश्न यह बनता हैः पता लगाया जाए कि वह कौन-सा तत्व या उपादान है जो इन सभी महान घर्मों में सर्वाधिक रूप से समान पाया जाता है। और इस प्रकार सभी उच्चादर्शपूर्ण उपादानों की विवेचना करने पर, आपको जो सर्वाधिक सहज और स्पष्ट उपादान मिलेगा, वह है सत्यवादिता और अहिंसा; इसलिए कि सत्य, निष्ठा और अहिंसा ही इन सभी महान धर्मों में समान रूप से मौजूद रही हैं।

जाहिर है कि आप उन अनेक रीति-रिवाजों का पुनरूद्धार तो नहीं ही चाहेंगे जिनको आप और हम अब कभी के भूल चुके हैं और जो कभी किसी समय में हिन्दू-धर्म में शामिल थे। मुझे याद पड़ता है कि न्यायमूर्ति स्वर्गीय रानाडे ने प्राचीन संस्कृति के बारे में बोलते हुए एक अत्यंत ही मूल्यवान विचार व्यक्त किया था। उन्होंने श्रोताओं से कहा था कि उनमें से किसी भी एक व्यक्ति के लिए यह बतलाना कठिन होगा कि प्राचीन संस्कृति का ठीक-ठीक रूप वास्तव में क्या था; और वह संस्कृति कब से प्राचीन न रहकर आधुनिक बनने लगी थी। उन्होंने यह भी कहा था कि कोई भी विवकेशील व्यक्ति किसी भी चीज को केवल इसलिए प्रमाण नहीं मान लेगा कि वह प्राचीन है। संस्कृति प्राचीन हो या आधुनिक, उसे तर्क और अनुभव की कसौटी पर खरा तो उतरना ही चाहिए। मैं इस छात्र संघ के विद्यार्थियों को यह चेतावनी इसलिए दे रहा हूं क्योंकि वे देश के भाग्य-विधाता हैं और आज हमारे इस देश में ही नहीं बल्कि सारे संसार में, अनेक प्रतिक्रियावादी शक्तियां, हमारे चारों ओर सिर उठा रही है। भारत के अपने अनुभव से मैं कह सकता हूं कि प्राचीन संस्कृति के पुनरूद्धार की दुहाई देने वाले, अनेक व्यक्ति पुनरूद्धार की आड़ में, प्राचीन अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों को पुनः जीवित करने में भी कोई संकोच नहीं करते।

मैं आपको अपने अनुभव की बात बतला रहा था। मैं बतला रहा था कि हमारी मातृभूमि में ही कुछ प्रतिक्रियावादी शाक्तियां सक्रिय हो गई हैं। प्राचीन परंपरओं और प्राचीन नियमों के गड़े मुर्दे उखाड़कर, अस्पृश्यता की घृणित प्रथा का, औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है। आपको शायद मालूम हो कि ऐसा ही एक प्रयास अब देवदासियों की प्रथा का औचित्य ठहराने के लिए किया जा रहा है। मैंने आपको जो चेतावनी दी है कि प्राचीन संस्कृति के पुनरूद्धार के नाम पर, बहकावे में आकर आप गलत काम न करें, उससे आप ऐसा न समझे कि मैंने यों ही इतना लंबा भाषण दे डाला है। अब आप शायद समझ गए होंगे कि यह चेतावनी कितनी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चेतावनी आपको एक ऐसा व्यक्ति दे रहा है, जो प्राचीन संस्कृति का मात्र प्रेमी ही नहीं, वह जीवन-भर इसी कोशिश में भरसक लगा रहा है कि प्राचीन संस्कृति के सभी उच्चादर्शपूर्ण और स्थाई महत्व के उपादानों को नया जीवन दिया जाए।

प्राचीन संस्कृति के छिपे हुए खजाने की खोज करते-करते ही, मुझे यह अनमोल रत्न, हाथ लगा है कि प्राचीन हिन्दू संस्कृति में जितना भी कुछ स्थाई महत्व का है, वह हमें ईसा, बुद्ध, मुहम्मद और जरथ्रुश्त के उपदेशों में भी समान रूप से मिलता है। इसीलिए मैंने अपने यह तरीका निकाल लिया है कि जब मुझे हिन्दू-धर्म में कोई ऐसी बात दिखाई पड़ती है, जिसके बारे में प्राचीन शास्त्रकार सहमत हैं, किंतु जो मेरे ईसाई बंधु या मेरे मुसलमान भाई को स्वीकार्य नहीं है, तब मुझे तत्काल उसकी प्राचीनता पर संदेह होने लगता है। इस प्रकार के विवेचन के फलस्वरूप ही मैं इस अनिवार्य निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हमारे इस विश्व में सबसे अधिक प्राचीन यदि कुछ है तो यही दो तत्व हैं-सत्य और अहिंसा।

मैंने सत्य और अहिंसा पर विचार करते-करते ही यह अनुभूति की है कि मुझे किसी भी उस प्राचीन प्रथा या रीति-रिवाज का पुनरूद्धार करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, जो हमारे वर्तमान आप चाहें तो कहिए आधुनिक जीवन से मेल न खाता हो। प्रचीन प्रथाएं या रीति-रिवाज अपने उस काल में सर्वथा उपयोगी और शायद नितांत आवश्यक भी रहे हों, जब उनको अपनाया गया था, परंतु हो सकता है कि आधुनिक युग की आवश्यकताओं से उनकी पटरी पूरी तरह न बैठती हो, भले ही वे सत्य और अहिंसा के प्रतिकूल न हों। अब आप खुद देख सकते हैं कि हम जिसे करूणानिधि, दयामय, क्षमाशील आदि नाम देते हैं, उसी ईश्वर के नाम पर बरकारार रखी जाने वाली अस्पृश्ता, देवदासी-प्रथा, शराबखोरी, पशु-बलि इत्यादि को जब हम एक ही झटके में निर्ममता के साथ एक तरफ हटा देते हैं तो हमारे सामने का मार्ग कितनी प्रशस्त, कितना निरापद बन जाता है। ये प्रथाएं हमारी नैतिकता की भावना को ठेस पहुंचाती है, इसलिए हम बिना हिचकिचाए तुरंत इनका परित्याग कर सकते हैं। इसका निषेधात्मक पहलू आपने देखा। इसका एक रचनात्मक पहलू भी है, जो उतना ही महत्व रखता है।

इसका रचनात्मक पहलू आपके सामने रखने के सिलसिले में, मैं अहिंसा के सिद्धांत के एक नितांत आवश्यक, सहज निष्कर्ष की ओर आपका ध्यान आकर्षित करता हूं। मैंने इसे अपने अत्यंत ही प्रिय मित्रों, चेट्टिनाड के चंद बड़े ही कर्मठ समाज-सुधारकों, के सामने पेश किया था। वह निष्कर्ष या तर्क यह है यदि हम अहिंसा का वरण करते हैं तो फिर हमको संसार की किसी भी ऐसी वस्तु की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए जो निम्न-से-निम्न या हीन-से-हीन मनुष्य के सुलभ न हो। यदि यह प्रस्ताव तर्क-सम्मत है और मैं दावे के साथ कहता हूं कि यह अहिंसा के सिद्धांत का एक बिल्कुल सीधा सहज निष्कर्ष है और यदि आप इसे स्वीकार करते हैं और यह पूरे तौर पर तर्कसम्मत भी है, तो इससे एक यही सहज परिणाम निकलता है कि हमें संसार की किसी भी वस्तु के बदले अपनी प्राचीन काल की सरलता, अपनी सादगी को त्यागने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए। अब आप शायद समझ गए होंगे कि आधुनिकता की होड़ का मैं इतना डटकर विरोध क्यों करता हूं।

पाश्चात्य देशों से आधुनिकता की मोहक चकाचौंध ऐसी तड़ित-गति से कौंध कर आ रही है, लगता है, जैसे हम उसमें डूब जाएंगे, उसी के रंग में रंग जाएंगे। मैंने अपने लेखों में और अपने भाषणों में भी इस बात का हर जगह पूरा ध्यान रखा है कि पाश्चात्य देशों में अपनाए जाने वाले आधुनिक तरीकों, उनकी आवश्यकताओं और भौतिक सुख-सुविधाओं की बहुलता के तौर-तरीके में तथा गिरि-शिखर पर दिए गए, ईसा के उपदेश की सारभूत शिक्षाओं में, भेद किया जाए और इन दोनों को एक ही समझने की गलती न की जाए। मैंने इसलिए अपने भाषण के आरंभ में ही आपको इसका संकेत दे दिया था कि मैं आगे क्या कहने जा रहा हूं। आरंभ में ही मैंने आपसे कहा कि आखिर ईसा और मुहम्मद भी एशियाई ही थे। अमेरिका और इंग्लैंड तथा संसार के अन्य भागों में, आज जो कुछ भी हो रहा है, हमें ईसा के उपदेशों और उनके संदेश को उससे अलग समझना चाहिए और दोनों में स्पष्ट भेद करना चाहिए। मैं स्वयं भी दक्षिण अफ्रीका में अपने हजारों-लाखों ईसाई मित्रों के साथ रह चुका हूं और अब तो संपर्क का दायरा बढ़ जाने के कारण संसार-भर के ईसाइयों के साथ रह रहा हूं, (पर मैंने अपने आपको उस पाश्चात्य चकाचौंध से अछूता रखा है) तो आप हिन्दू और मुट्ठी भर बौद्ध लोग, अगर इतने भी बौद्ध यहां हैं भी अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति सच्चे बने रहने का संकल्प करें और तथाकथित ईसाइयत के देश में आपके पास पहुंचने वाली इस मोहक चकाचौंध से कोई सरोकार न रखें। यदि आप में अडिग आस्था हो; यदि आप अपनी आस्था को किसी भी तरह मंद न पड़ने देने के लिए प्रयत्नशील रहें, तो आप देखेंगे कि आपके ईसाई मित्र अपनी पाश्चात्य चकाचौंध लेकर भले ही आप के पास आएं, पर वे उसे त्याग देंगे और आपके सादगी के सिद्धांत के भक्त बन जाएंगे; क्योंकि इसी से उस निष्कर्ष की सच्चाई सिद्ध होगी, जो मैंने आप सबके सामने रखी है।

यदि आप मेरे सभी तर्कों को भलीभांति समझते गए हैं तो आपको मेरा संदेश, चरखे का अमिट संदेश, समझने में जरा भी कठिनाई नहीं होगी। इसलिए कि मुझे तो चरखे के पीछे ईश्वर का वरद्हस्त दिखाई देता है, मुझे तो उसमें एक ऐसे त्राणकर्त्ता के दर्शन होते हैं, जो दीन-से-दीन जनों की आवश्यकताओं की हर समय पूर्ति कर सकता है। इसीलिए मैं केवल चरखे की बात सोचता हूं और इसी के बारे में भाषण देता घूमता हूं। और यदि आप मुझे दूसरी कोई ऐसी चीज बतला सकें जो हमें संसार के भूख-नंगों के निकट पहुंचा दे, हमें एकदम भंगियों के स्तर पर ले जा सके, तो मैं अपना चरखा वापस ले लूंगा और आपकी बतलाई उस चीज या उस साधन को शिरोधार्य कर लूंगा। आप शायद अब अच्छी तरह समझ गए होंगे कि मैं क्यों इतनी बेशर्मी से, हर दिन भिक्षा पात्र लेकर, दर-दर भटकता फिरता हूं और हर आदमी से कहता हूं कि खुशी से जितना बन सके इसमें डाल दो। अब मैंने आपका काफी समय ले लिया है। अब आप ऊबने लगे होंगे। इसलिए मुझे अपना भाषण समाप्त करना चाहिए और इसकी त्रुटियों को ठीक करने का काम आप पर ही छोड़ देना चाहिए। मैं छात्रों के साथ कई अन्य विषयों पर भी बात करना चाहता हूं, क्योंकि उनको मुझ पर भरोसा है, लेकिन आज मुझे अधिक कुछ नहीं करना चाहिए।

आपने जितना कुछ किया है और आप जो कर रहे हैं, उस सबके लिए, मैं समूचे हृदय से आपका आभारी हूं। मैं जब कोलंबो में था आपने मेरे पास एक मसविदा भेजा था; यदि आप सब उसी का पालन करें, उसी के अनुसार चलें तो वह सचमुच आपकी बहादुरी होगी। हां, उस मसविदे में एक अशुद्धि थी, जिसे मैं शुद्ध कर देना चाहता था, लेकिन यह अब किसी अन्य अवसर पर करूंगा। आपने जिस धैर्य के साथ मेरी सारी बातें सुनीं हैं, उसके लिए मैं आपका आभरी हूं।

(अंग्रेजी से) हिन्दू, 1.12.1927, विद गांधीजी इन सीलोन

(छात्र-कांग्रेस की सभा, जफना में 26 नवंबर, 1927 का भाषण)

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