साहित्य की बाजारू अवमानना

शिवेंद्र सिंहद्वितीय विश्वयुद्ध की घोषणा होने पर यूनाइटेड किंगडम के मंत्रिमंडल की बैठक हुई. प्रधानमंत्री चर्चिल ने सभी मंत्रियों से अपने-अपने मंत्रालय का बजट अभ्यर्पण (सरेंडर) करने का निवेदन किया क्योंकि देश अब युद्ध में उतरने वाला था. एक-एक करके सारे मंत्रियों ने दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किये. अंत में संस्कृति मंत्री हस्ताक्षर के लिए उठे. चर्चिल ने तेज आवाज़ में कहा, ‘आप नहीं श्रीमान, क्योंकि ये संघर्ष ही अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की सुरक्षा के लिए है. अपनी संस्कृति को खोकर हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय अस्तित्व को गवाँ देंगे. इसलिए आप अपने मंत्रालय का बजट अभ्यर्पित ना करें. आपको पूर्ववत कार्य करना है.’

  ये संस्कृति एवं साहित्य की महत्ता है.साहित्य संस्कृति के निर्माण के आधारक तत्वों में शामिल है.  साहित्य हर दौर की सभ्यता की आत्मा का चित्र उकेरता है. बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा सृजित साहित्य समाज को दिशा निर्देशित करता है.साहित्य एवं साहित्यकारों का पोषण एवं सम्मान देश की अस्मिता के लिए निहायत की जरूरी है. क्योंकि इसके बिना संस्कृति का प्रसार और समृद्धि दोनों कठिन हैं. इस तर्क की परख उपरोक्त घटना से किया जा सकता है.
 लेकिन आधुनिक भारतीय समाज की स्थिति थोड़ी अलग या संभवतः थोड़ी विद्रुप है.एक राष्ट्रीय स्तर के समाचार चैनल ने अपनी वार्षिक परंपरा के अंतर्गत साहित्य समर्पित कार्यक्रम आयोजित किया है. कार्यक्रम में आमंत्रित तथाकथित  विद्वतजनों, जिन्हें साहित्यकारों के रूप प्रचारित करते हुए अतिथि वक्ता के तौर पर बुलाया गया है उनमें  विक्की कौशल, दिव्येंदु शर्मा, अनुभव  बस्सी, विकास दिव्यकृति आदि शामिल है.
 इस तथाकथित साहित्यकारों की सूची हैरानी भरी है. साहित्य सम्मेलन में अभिनेताओं, कॉमेडियन, कोचिंग संचालक बुलाने का मंतव्य समझना मुश्किल है. ऐसा नहीं है कि यह संस्थान विशेष या क्षेत्र विशेष की समस्या है बल्कि यह गिरावट सम्पूर्ण व्यापकता से प्रकट हुई. भारत के राष्ट्रीय परिदृश्य में साहित्य का जो आभासी आभामण्डल निर्मित हुआ है, वो नितांत खोखला है, क्योंकि वह साहित्य नहीं बल्कि बाजारोन्मुख है. अभी पिछले दिनों नई दिल्ली में वर्ल्ड इकोनॉमी फोरम का आयोजन हुआ जिसमें फ़िल्म निर्माता करण जौहर और अभिनेत्री आलिया भट्ट आमंत्रित किये गये थे. अब क्या देश इनसे आर्थिकी की दिशा पर निर्देशन लेगा?
तो क्या विश्वगुरु बनने की तक़रीरों एवं नवउत्थान के नारों से पैदा हुए शोर बाजारवादी भटकाव का शिकार है? क्या ये अजीब नहीं कि अब राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य की अभिव्यंजना का मुजाहिरा अब ऐसे हो रहा है. और यदि यह सब राष्ट्रीय व्यवहार का हिस्सा बनता जा रहा है तो यकीन मानिये ये स्थिति किसी भी राष्ट्र के नैतिक-वैचारिक दिवालियेपन की सूचक है.ये इस देश की राजनीतिक-सामाजिक या साहित्यिक ही नहीं बल्कि हर व्यवस्था का दोष है कि अमूमन सही कुर्सी पर आपको गलत लोग मिल जायेंगे.
 वास्तविक सम्मान के अधिकारी तो नेपथ्य में पड़े हैं. अब जनसत्ता के सहयोगी संपादक सूर्यनाथ जी का उदाहरण लीजिये. साहित्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर सूर्यनाथ जी को एक साहित्यकार के रूप  आज भी राष्ट्रीय पटल पर गुमनाम चेहरा है जिनकी श्रेष्ठ रचनाधार्मिता आज भी प्रचारात्मक मंचों पर अपने कद के अनुरूप सम्मान नहीं पा पाई. आज तक किसी भी बड़े ‘तथाकथित’ साहित्य मंच पर उनकी उपस्थिती दर्ज हुई हो, ऐसा याद नहीं आता. जबकि उन्हें प्रेमचंद पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का यशपाल पुरस्कार, प्रसारण विभाग का भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार और हिंदी अकादमी दिल्ली के बाल एवं किशोर पुरस्कार, निकट ही उन्हें बाल उपन्यास ‘कौतुक ऐप’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. सूर्यनाथ जी के अतिरिक्त एक अन्य सुप्रसिद्ध रंगकर्मी एवं रचनाकार सच्चिदानंद जोशी हैं. इनकी किताब ‘पुत्रिकामेष्टि’ किस्सागोई का उम्दा प्रयास है लेकिन अभी तक किसी बड़े साहित्यिक मंच पर इस पुस्तक पर चर्चा आयोजित नहीं की गईं.
इन क्रोनी कैपीटल के मुरीदों को ऐसे साहित्यकारों का सम्मान करना सीखना है हालांकि ये कठिन है, क्योंकि पूँजीवाद की सबसे बड़ी समस्या मानव जीवन के हर पहलू में अर्थ यानि लाभ तलाशना होता है चाहे उसके लिए सभ्यता, संस्कृति या साहित्य को ही बाजार में बैठाना पड़े.उसके बदले आपको गाली गलौज में माहिर यूट्यूबर, भड़ेती करने वाले सिनेमाई लोग थोक के भाव से ऐसे मंचों पर राष्ट्रीय स्तर का ज्ञान देते दिख जायेंगे.ऐसे आयोजकों को क्या लगता है कि साहित्यिक मंचों पर भड़ेत्तों को आमंत्रित करके वो साहित्य की नई धारा स्थापित कर रहें हैं. हो सकता है कि ऐसा हो भी, लेकिन ये धारा भड़ेती की ही मानी जाएगी साहित्य की नहीं.
तो क्या वाग्देवी के उपासकों को कह देना चाहिए कि वे किसी और सभ्य समाज के साथ जाये क्योंकि नैतिक पतनशीलता की ओर अग्रसर ये समाज उनकी रचनाधार्मिता को सम्मान देने की योग्यता धारण नहीं करता. वैसे भी जिस समाज में साहित्य के मंच द्विअर्थी संवादों, फूहड़ यौनिकता, ओछे हास्य का मैदान बन गये हो उनसे साहित्यकारों और उनकी रचनाधार्मिता के प्रति सम्मान की उम्मीद रखना स्वयं में मूर्खता है.
हालांकि साहित्य की ये बाजार उन्मुख संस्थाएं ये कह सकती हैं कि वे अपने मंच का यथायोग्य प्रयोग को स्वतंत्र हैं. ये एक पक्ष हो सकता है. किन्तु एक दूसरा पक्ष भी है. समाज के ज़ब आप कुछ कहते या करते हैं तो कमोबेश वह आम लोगों के प्रभावित करता है. अतः ज़ब आप राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिता, साहित्य या राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्वकर्ता की भूमिका में है तब तो आपको अधिक सचेत रहने की जरुरत है.
हालांकि प्रश्न तो राष्ट्रीय समाज को स्वयं से करना है कि उसे किसी स्तर के बुद्धिजीवियों या यूँ कहें कि भांड और साहित्यकारों में से किसका नेतृत्व ग्रहण करना है. हो सकता है कि कोई प्रो. अमर्त्य सेन या सुब्रमण्यम स्वामी का वैचारिक विरोधी हो या उनके राजनीतिक पूर्वाग्रह से असहमति रखता हो किन्तु इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि इनके विकल्प के रूप में आप राखी सावंत एवं एलविश यादव से अर्थशास्त्र का ज्ञान लेना शुरू कर दें.
 राष्ट्रीय जीवन का यथार्थ यह है कि नई पीढ़ी अपनी ज़बान बोलने में शर्माती है. जो बोलते हैं उनके तलफ़्फ़ुज़ ठीक नहीं है. बल्कि दिनोंदिन भाषाई मर्यादा अपने निम्नतम स्तर की ओर अग्रसर है. देशीय भाषाओं के प्रति अनभिज्ञता और आंग्ल भाषा का प्रयोग सामाजिक रूप से गौरवान्वित होने का बायस बन चुका है.लिखने में रोमन तरीकों का इस्तेमाल होता है. क्यों, क्योंकि हमने साहित्य का स्तर गिराया है. रचनाकारों की बेहूरमती करते जा रहें हैं और फिर उम्मीद करते हैं हमारा समाज सुसभ्य-सुसंस्कृत हो.
इसलिए वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर पर चिंतन एवं विमर्श के निम्नतम स्तर पर बहुत आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो अशोभनीय बयान बिहार विधानसभा में दिया वह उनके उसी अवचेतन मन में पल रहा विचार होगा जो वर्तमान वैचारिक स्तर का हिस्सा है. इस भाषाई असंवेदनशीलता का प्रसार इतना व्यापक है कि राष्ट्रीय राजनीति में कोई किसी को ‘पप्पू’ बुला रहा है तो कोई ‘पनौती’. परोक्षतः इसे साहित्य जगत में पैठी अव्यवस्था का प्रसार माना जाना चाहिए.
आज यदि राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर भाषाई मर्यादा ढही है, समाज का नैतिक पतन हुआ तो उसके मूल में यही साहित्य गिरावट और साहित्यकारों के प्रति बरती गईं समाज का असंतुलित रवैया है.ज़ब वेद-वेदांग एवं नैतिक शास्त्र के स्थान पर कामुकता को साहित्य श्रेष्ठता मिलने लगे तब आप कैसे राष्ट्रीय चरित्र के नैतिक उन्नयन की उम्मीद करेंगे बल्कि आप चारित्रिक पतनशीलता के लिए तैयार रहना चाहिए.
 इसका परोक्ष नकारात्मक प्रभाव यह पड़ता है  समाज में रचनाकारों की रचनाधार्मिता मरने लगती है. रचनाशीलता एक  नैसर्गिक गुण है. अभ्यास द्वारा लेखन का प्रयास तो किया जाता है लेकिन उत्कृष्ट किस्मत की रचनाएं नैसर्गिक प्रकृति प्रदत्त गन वाले रचनाकारों की कलम से ही उपजती है.. किंतु यदि  ऐसे रचनाकारों का समाज यतो यथेष्ट सम्मान नहीं करता तो कहीं ना कहीं अपनी बहुत मूलभूत आवश्यकताओं भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु रचनाकारों का झुकाव ऑर्थोपार्जन पर लगता है बल्कि अपनी रचनाओं का सम्मान न मिलने से उनके मन में कहीं ना कहीं एक क्षॉभ पैदा होता है. नतीजतन उनकी कलम की धार कमजोर होने लगती है
ज़ब भी किसी समाज में कलम अपमानित हो, मर्दित हो, उपेक्षा व प्रताड़ना का शिकार हो तो यह केवल उस कलमकार का नहीं बल्कि पूरे समाज का अपमान है. एक राष्ट्रीय समाज के रूप साहित्य के नाम पर भौंडेपन का प्रदर्शन और वास्तविक रचनाशील वर्ग की उपेक्षा करके हम यही तो कर रहें हैं.सच कहें तो अपमान एवं उपेक्षा से अभ्यान्त देश का वास्तविक साहित्यकार वर्ग रचनाधार्मिता से विरक्त हो रहा है. यदि भविष्य श्रेष्ठ साहित्य की रचना से अकालग्रस्त होता है तो इसकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय समाज को उठानी ही पड़ेगी क्योंकि इस दुरावस्था का निमित्त भी तो वही है. 
और बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है. मात्र मंचीय तालियों एवं खोखले तमगों से पेट की शुधा शांत नहीं होती. उसके लिए अर्थ का समर्पण भी जरूरी है. सरस्वती एवं लक्ष्मी की समन्वित आराधना ही मानव जीवन को संतुलित रखती है. हर लोकतान्त्रिक राष्ट्र की तरह भारत सरकार भी साहित्य संरक्षण के मद में धन खर्च कर रहीं है लेकिन वो वास्तविक लाभार्थियों तक कितना पहुंच रहा है या पहुंच भी रहा है कि ये जानना जरूरी है.ऊपर से नौकरशाही के असाधारण प्रसार ने साहित्यिक संस्थाओं के लिए और मुसीबत पैदा कर दी है. इनकी हर जगह पैर पसारने एवं घुसपैठ की षड़यंत्री कुत्सित मानसिकता ने साहित्यिक संस्थाओं को अकर्मन्यता एवं लालफीताशाही का गढ़ बना दिया है.ख़ैर इस विषय पर अलग से बहस आयोजित हो सकती है.
 हालांकि इन सबके बावजूद क्या साहित्यकार वर्ग को नकारात्मक प्रतिक्रिया दर्शाते हुए अपने कर्तव्य से पीछे हट जाना चाहिए? नहीं! महान अमेरिकी कवि वाल्ट व्हिटमन लिखते हैं,
”मैं नहीं, न ही कोई और, तय कर सकता है यह रास्ता तुम्हारे लिए
तुम्हें खुद ही इसे तय करना होगा
यह बहुत दूर नहीं है। यह पहुँच के भीतर है
शायद तभी से तुम तय कर रहे हो ये दूरियाँ जब तुमने जन्म लिया था, पर पता नहीं था तुम्हें।”
 यही वह संदेश है जो वर्तमान में इन साहित्य के वास्तविक साधकों को ग्रहण करना है. अपने वजूद की लड़ाई यह उन्हें खुद ही लड़नी और जितनी है. ताकि समाज को सकारात्मक दिशा में मार्गदेशित कर सकें. और उन्हें ये ध्यान रहे कि साहित्य की आवाज़ इस चकाचौंध और नाटकीय चीख-चिल्लाहट में धीमी जरूर पड़ी है पर उस धीमी आवाज़ में भी वाग्देवी के इन वरद सन्तानों के पक्ष में ही आवाज़ लगा रही है जिसे भावी पीढ़ियाँ अवश्य सुनेगी. पर आवश्यक है कि वे इस अँधेरे से संघर्ष में पीछे नहीं हटेंगे.

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