फलों का राजा आम बड़ा निराला ! खट्टा, तो मीठा भी, मगर रसीला !!

के .विक्रम रावमुंबई में फलों का राजा आम गत सप्ताह ही प्रगट हो गया है। हालांकि माह फरवरी ही है। वह पड़ोसी गोवा से आता है। चेन्नई में तो सागर पार श्रीलंका से आता है। सर्दियों में। दिसंबर-जनवरी तक। मेरे शहर लखनऊ, खासकर मलिहाबाद में, मई-जून तक इसका दीदार हो जाता है। दशहरी, सफेदा आदि किस्मों वाले।
स्थानीय मुंबई बाजार क्राफोर्ड मार्केट में यह प्रचुरता में उपलब्ध है। जायकेदार अल्फांसो आम ढेर सारा दिखा। यह विशिष्ट किस्म का आम है, भले ही नाम परदेशी हो। महाराष्ट्र के कोंकण तट पर सिंधु दुर्ग, रत्नागिरी, रायगढ़ आदि इलाकों में बहुतायत में होता है। वजन भी डेढ़ सौ से तीन सौ ग्राम का।
फिलहाल यहां चर्चा अल्फांसो की हो रही है। बड़ा लजीज तो है ही, खूबसूरत भी बला का। रसेदार, खुशबूदार, महकदार। इसकी चटख आकर्षक है। आखिर यह परदेशी नामधारी आम भारत देश पहुंचा कैसे ? इतिहास का संदर्भ है। भारत के पश्चिमी सागरतट पर पुर्तगाली फौज साम्राज्य बनाने आई थी, 1509 में। हिंद महासागर द्वार से। जनरल अल्फांसो अलबुकर के नाव पर शस्त्र के साथ आम भी पड़े थे। स्थानीय किसानों ने अपना लिया। बो दिया, उग आया। मराठी नाम पड़ा हापुस। गोवा तक फैला। पुर्तगाली केवल यही नेक काम कर गए। आम दे गए। फिर यह पनपा, फैला और पसंद किया गया। इसकी ख्याति में पड़ोसी बीजापुर (अधुना कर्नाटक) के सुल्तान का योगदान है। करीब 1510 में उन्हीं के मार्फत यूरोप से इधर आए थे।
यूं आम पुर्तगालियों से भी ज्यादा प्राचीन है। भारत में आम के उपवन कई सम्राटों ने लगवाए। डी. कैडल (सन् 1844) के अनुसार आम्र प्रजाति (मैंजीफ़ेरा जीनस) संभवत: म्यांमार, थाईलैंड तथा लेशिया में उत्पन्न हुई। परंतु भारत का आम, मैंजीफ़ेरा इंडिका, जो पाकिस्तान में भी जगह जगह स्वयं (जंगली अवस्था में) होता है, बर्मा असम अथवा असम में ही पहले उत्पन्न हुआ होगा। भारत के बाहर लोगों का ध्यान आम की ओर सर्वप्रथम संभवत: बुद्धकालीन प्रसिद्ध यात्री, हुयेनत्सांग (632-45) ने आकर्षित किया।
उद्यानी कृषि में काम आनेवाली भूमि का 70 प्रतिशत भाग आम के उपवन लगाने के काम आता है। इसके अनेक नाम जैसे सौरभ, रसाल, चुवत, टपका, सहकार, आम, पिकवल्लभ आदि। इसे “कल्पवृक्ष” अर्थात् मनोवाछिंत फल देनेवाला भी कहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में आम की चर्चा इसकी वैदिक कालीन तथा अमरकोश में इसकी प्रशंसा इसकी बुद्धकालीन महत्ता के प्रमाण हैं। मुगल सम्राट् अकबर ने “लालबाग” नामक एक लाख पेड़ोंवाला उद्यान दरभंगा के समीप लगवाया था, जिससे आम की उस समय की लोकप्रियता स्पष्ट हैं। भारतवर्ष में आम से संबंधित अनेक लोकगीत, आख्यायिकाएँ आदि प्रचलित हैं और हमारी रीति, व्यवहार, हवन, यज्ञ, पूजा, कथा, त्योहार तथा सभी मंगलकायाँ में उपयोग होता है।
आर्युर्वैदिक मतानुसार आम के पंचांग (पाँच अंग) काम आते हैं। इस वृक्ष की अंतर्छाल का क्वाथ प्रदर, खूनी बवासीर तथा फेफड़ों या आँत से रक्तस्राव होने पर दिया जाता है। छाल, जड़ तथा पत्ते कसैले, मलरोधक, वात, पित्त तथा कफ का नाश करनेवाले होते हैं। पत्ते बिच्छू के काटने में तथा इनका धुआँ गले की कुछ व्याधियों तथा हिचकी में लाभदायक है। फूलों का चूर्ण या क्वाथ आतिसार तथा संग्रहणी में उपयोगी कहा गया है।
निजी पसंद के तौर पर आम्रफल का मेरा चयन राष्ट्रव्यापी है। इसमें भौगोलिक संकीर्णता नहीं होती। हालांकि नाम अलग है। मेरे गृह प्रदेश आंध्र में इसकी खास किस्म होती है। बंगनपल्ली कहलाती है। नई दिल्ली के आंध्र भवन में टोकरियाँ आते ही आधे घंटे में उठ जाती हैं। पर मेरी निजी पसंद मेरे परवरिश वाले राज्य उत्तर प्रदेश से है। जहां लंगड़ा भी है। सफेदा भी, चौसा, दशहरी, आदि। उल्लेख हो लखनऊ जिले के मलिहाबाद का जहां ढेरियाँ सड़कों के किनारे लगते ही, उठ जाते हैं।
मलिहाबाद को मशहूर किया शायरे इंकलाब जनाब शब्बीर हसन खान “जोश” ने। उनकी पंक्ति थी “खेत को जला दो।” मगर जोश के नाम से एक राजनीतिक त्रासदी जुड़ी है।
वे 1947 में पाकिस्तान जाना चाहते थे। जवाहरलाल नेहरू ने अनुरोध किया फिर भी चले गए। कुछ वर्षों बाद मलिहाबादी आम और मिट्टी उन्हें खींच लाई। पर प्रश्न था नागरिकता का। नेहरू तब तक चले गए थे। इंदिरा गांधी ने जोश की इल्तिजा को खारिज कर दिया। वे बोलीं : “मेरे पिता आपसे मिन्नत करते रहे “मत जाइए पाकिस्तान”। आपने उन्हें ठुकरा दिया। अब क्यों ?” जोश फिर इस्लामाबाद (22 फरवरी 1982) में गुजर गए। पद्म भूषण से नवाजे जाने के बाद। एक थे महाराजकुमार विजयनगर (आंध्र प्रदेश) के “विज्जी” जो भारतीय क्रिकेट बोर्ड के एकदा सर्वेसर्वा थे। उनका राजमहल काशी में था। उन्होंने भी आम का प्रयोग राजनीति में किया। बनारसी लंगड़ा बांटकर। चूंकि वे तेलुगुभाषी थे और मेरे पिता संपादक के. रामा राव के साथ संसद में थे अतः हमें लंगड़ा आम खूब मिलता था। और कानपुर टेस्ट मैच के फ्री पास भी।
मगर आम से जुड़ी याद मेरी अहमदाबाद की है। दिसंबर का महीना था। हमारे IFWJ का अधिवेशन गांधीनगर में हुआ। तब नेता प्रतिपक्ष चिमनभाई पटेल थे। उन्होंने देशभर से आए पत्रकारों का प्रतिभोज किया। उसमें आम के रस को जमकर पिलाया। उत्सुक और अचंभित साथियों ने पूछा : “सर्दियों में आम रस ?” चिमनभाई का जवाब था : “मीडिया के लिए मिठास लाना था।” श्रीलंका से आम उन्होंने मंगवाया था। यादगार वाकया था। ठंड में आम !

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