जो अहिंसक है, वही मानव है : महावीर जयंती ( 4 अप्रैल) पर विशेष

भारत की आध्यात्मिक धरती पर समय-समय पर अनेक अवतारी सत्ताओं, संतों और महापुरुषों ने जन्म लेकर देशकाल की तदयुगीन परिस्थितियों के अनुरूप समाज में व्याप्त कुरीतियों का निराकरण कर एक स्वस्थ समाज की संरचना की थी। भारत भूमि की ऐसी ही एक दिव्य विभूति थे जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी। मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने वाले इस महापुरुष का जन्म आज से करीब ढ़ाई हजार साल पहले (599 ई.पूर्व ) चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को बिहार के लिच्छिवी वंश में महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशिला के पुत्र रूप में हुआ था। राजभवन के राजसी वैभव में पलने के बावजूद राजकुमार वर्धमान के हृदय में मानवीयता, सहृदयता व सम्वेदना के अंकुर बाल्यावस्था से फूटने लगे थे। होश संभालते ही उन्होंने खुद को विषम परिस्थितियों से घिरा पाया। उनके युग में धर्म का मानवीय स्वरूप अत्यंत विद्रूप था। यह देख कर राजपुत्र वर्धमान का भावनाशील मन कराह उठा। मगर जीवन लक्ष्य की साधना का सुअवसर उन्हें पिता की मृत्यु के उपरान्त 30 वर्ष की आयु में मिल सका। गृह त्यागकर बारह वर्षों तक कठोर तप साधना के बाद कैवल्य (परम ज्ञान) की प्राप्ति के बाद राजकुमार वर्धमान जैन धर्म के 24 वें तीर्थकर महावीर स्वामी के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
  ’जियो और जीने दो‘’ जैन धर्म का मूलमंत्र है। तीर्थकर महावीर का जीवन दर्शन है-संसार के प्रत्येक जीव एक ही आत्मा निवास करती है। इसलिए हमें दूसरों के प्रति वही विचार व व्यवहार रखना चाहिए जो हम खुद के प्रति चाहते हैं। उनका यह मंत्र वर्तमान परिस्थितियों में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। ‘इस एक मंत्र से, विश्व की सभी समस्याओं का निराकरण हो सकता है और सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक भेदभाव और शोषण से मुक्ति मिल सकती है। जैन धर्म के जाने माने विद्वान अनिल कुमार जैन के अनुसार महावीर द्वारा बतायी तप, त्याग एवं साधनामय जीवन-शैली ही आज की समस्याओं का समाधान है। महावीर स्वामी के सूत्रों में एक महत्वपूर्ण सूत्र ब्रह्मचर्य है। आज के भोगवादी पाश्चात्य युग में इससे बढ़कर कोई त्याग नहीं। इससे बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण के साथ निर्धनता, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति, आवास, निवास, अपराध, बाल अपराध आदि समस्याओं और एड्स जैसी महामारी का निराकरण हो सकता है। महावीर के सिद्धांत न केवल सामाजिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में, वरन राजनीति क्षेत्र में भी अत्यधिक सार्थक एवं प्रासंगिक है। महावीर का ‘’अहिंसा‘’ का दिव्य संदेश, स्वार्थ प्रवृति एवं संकीर्ण मनोवृति को विराम दे सकता है, चुनावी हिंसा और आंतक के तांडव नृत्य को रोक सकता है। महावीर के ’’अचौर्य’’ के सिद्धान्त का अनुकरण किया जाए तो आज विश्व में व्याप्त भ्रष्टाचार व काले धन पर अंकुश लगाया जा सकता है। ‘’सत्य‘’ का आचरण घोटालों में लिप्त राजनेताओं एवं नौकरशाहों को राष्ट्रहित की प्रेरणा दे सकता है। ‘’अपरिगृह‘’ का संदेश, भ्रष्टाचार एवं कालाबाजारी को रोककर सामाजिक विषमता को कम कर सकता है।
    जीव हत्या को जैन धर्म में पाप माना गया है। गौरतलब हो कि इंसानी लालच और स्वार्थ के कारण जीव जंतुओं की हजारों प्रजातियां आज लुप्त हो चुकी हैं और अनेक पर संकट गहरा रहा है। यदि मानव इसी तरह जीव-जंतुओं और वृक्ष-वनस्पतियों का विनाश करता रहेगा तो एक दिन न दुनिया मचेगी और न मानव समाज। मांसाहारी तर्क देते हैं कि यदि मांस नहीं खाएंगे तो धरती पर दूसरे प्राणियों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि वे मानव के लिए ही खतरा बन जाएंगे। लेकिन क्या उन्होंने कभी यह सोचा है कि मानव के कारण आज कितनी प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं! धरती पर सबसे बड़ा खतरा तो मानव ही है; जो शेर, सियार, बाज, चील जैसे सभी विशुद्ध मांसाहारी जीवों के हिस्से का मांस खा जाता है जबकि उसके लिए तो भोजन के और भी साधन हैं जबकि इसी कारण जंगल के जानवर भूखे मर रहे हैं।
दूसरी बात यह कि आज पर्यावरण प्रदूषण का खतरा जिस तरह गहराता जा रहा है, उसका मूल में है प्राकृतिक ताने-बाने का विनाश। कारण यह है कि हम पहाड़ों एवं वृक्षों को काटकर करते जा रहे हैं। यदि जल्द ही न चेते तो वह दिन दूर नहीं जब मानव को कंक्रीट के जंगलों का विस्तार में और रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में प्यासा मरना होगा। जंगलों से हमारा मौसम नियंत्रित और संचालित होता है। जंगल की ठंडी आबोहवा नहीं होगी तो सोचो धरती किस तरह आग की तरह जलने लगेगी? चिंता की बात है कि आज महानगरों के कई लोग जंगलों को नहीं जानते, इसीलिए उनकी आत्माएं सूखी हुई हैं।
जैन धर्म की मान्यता है कि यह संपूर्ण जगत आत्मा का ही खेल है। वृक्षों में भी महसूस करने और समझने की क्षमता होती है। यह बात आज पर्यावरण और जीव विज्ञानियों की शोधों से भी हो चुकी है। जैन धर्म में वृक्षों को काटना अर्थात उसकी हत्या करना महापाप माना गया है। महावीर कहते थे कि वृक्ष से हमें असीम शांति और स्वास्थ्य मिलता है। वट, पीपल, अशोक, नीम, तुलसी आदि वृक्ष वनस्पतियों की पर्यावरणीय महत्ता हम सब जानते हैं। वृक्षों की बहुआयामी उपयोगिता के चलते जैन धर्म में वृक्षों के आस-पास चबूतरा बनाकर उन्हें सुरक्षित करने की परम्परा डाली गयी थी ताकि वहां बैठकर व्यक्ति शांति का अनुभव कर सके। जैन धर्म प्रत्येक शुभ मौके पर पौधे रोपने का संदेश देता है। आज पर्यावरण विज्ञान भी कहता है कि ये वृक्ष भरपूर ऑक्सीजन देकर व्यक्ति की चेतना को जाग्रत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    भगवान महावीर का दूसरा प्रमुख संदेश प्राणी मात्र के कल्याण के लिए बराबरी व भाईचारा। उन्होंने मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्वस्त कर जन्मना वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। उनकी मान्यता थी कि इस विश्व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्य के महत्व का प्रतिपादन किया। भगवान महवीर कहते थे कि ऊँच-नीच, उन्नति-अवनति, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं, सभी समान हैं न कोई छोटा, न कोई बड़ा। उनकी दृष्टि समभाव की थी। वे सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने वाले तथा समतामूलक समाज के स्वप्नदृष्टा थे।
   काबिलेगौर हो कि महावीर स्वामी के सत्य और अहिंसा के सशक्त जीवन सूत्रों के बल पर भारत को सैकड़ों वर्षों की विदेशी दासता मुक्त कराने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जीवन जैन धर्म के संस्कारों से गहराई प्रभावित था। अपनी आत्मकथा ‘’सत्य के प्रयोग’’ के पृष्ठ 32 पर उन्होंने लिखा है,’’ जब उन्होंने अपनी माता पुतलीबाई से विदेश जाने की अनुमति माँगी थी तब उनकी माँ ने अनुमति प्रदान नहीं की, क्योंकि माँ को शंका थी कि विदेश जाकर कहीं वे माँस आदि का भक्षण करने न लग जाएं। उस समय एक जैन मुनि बेचरजी स्वामी के समक्ष उनके द्वारा तीन प्रतिज्ञाएं (माँस, मदिरा व परस्त्री सेवन का त्याग) लेने पर ही माँ ने उनको विदेश जाने की अनुमति दी थी।
  अहिंसा के उत्कृष्ट दर्शन से जुड़ा महावीर के जीवन का एक वाकया अत्यन्त प्रेरक है। एक बार एक मनुष्य यह जिज्ञासा लेकर महावीर के पास गया कि जो आत्मा आंखों से नहीं दिखाई देती तो क्या इस आधार पर उसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती? भगवान ने बहुत सुंदर उत्तर दिया, भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियां बन्द करने के बाद भी जब भवन के अन्दर संगीत की मधुर ध्वनि होती है तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। किन्तु आंखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की वह मधुर ध्वनि बाहर खड़े श्रोताओं को सुनायी पड़ती है। इसी तरह आंखें भले ही आत्मा को नहीं देख सकतीं, पर उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। प्रत्येक जीव की आत्मा में परम ज्योति समाहित है। प्रत्येक चेतन में परम चेतन समाहित है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में स्वतंत्र, मुक्त, निर्लेप एवं निर्विकार है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। मनुष्य अपने सत्कर्म से उन्नत होता है। भगवान महावीर ने प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होने का अधिकार प्रदान किया। मुक्ति दया का दान नहीं है, यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। जो आत्मा बंधन का कर्ता है, वही आत्मा बंधन से मुक्ति प्रदाता भी है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है; मनुष्य अपने भाग्य का नियंता है; मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। मगर, भगवान महावीर का कर्मवाद भाग्यवाद नहीं है, भाग्य का निर्माता है।
   महावीर स्वामी का सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या व अहिंसा का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं किया। पूरी दुनिया में पंचशील (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अत्सेय व क्षमा) के सिद्धांत देने वाले स्वामी महावीर ने न सिर्फ मानव अपितु सम्पूर्ण प्राणी समुदाय के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। आज जिस तरह समाज में हिंसा, अत्याचार, चोरी, लूटपाट जैसे अपराधों की बाढ़ सी आती जा रही है। लालच व क्रोध के दानव ने सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया है। खून के रिश्ते तक स्याह हो गये हैं। मानवता व आत्मीयता व संवेदना जैसे मनोभाव विरले ही दिखते हैं। ऐसे अशांत, भ्रष्ट व हिंसक समाज में महावीर की अहिंसा का पथ ही मानव मन को सच्ची शांति प्रदान कर सकता है। जब से मानव ने अहिंसा को भुलाया तभी से वह दानव होता जा रहा है और उसकी दानवी वृत्ति का अभिशाप आज समस्त विश्व भोगने को विवश है। संसार के प्रत्येक जीव को अपना जीवन अति प्रिय है जो उसको नष्ट करने को उसको क्षति पहुंचाने को उद्यत रहता वह हिंसक है, दानव है। इसके विपरीत जो इसकी रक्षा करता है वह अहिंसक है और वही मानव है।

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