महात्मा गांधी दो बड़े प्रश्न

 

रामबहादुर राय

हात्मा गांधी के सामने दो बड़े प्रश्न उपस्थित थे। एक कि अंग्रेजों से पहल पुन: कैसे छीन लें? दो कि ‘कांग्रेस को लकवा मार गया है,’ उसे इस हालात से बाहर कैसे निकालें? इस सोच-विचार की मानसिक दशा में वे साल भर से थे। उसी समय वलंगैमान शंकरनारायण श्रीनिवास शास्त्री ने उन्हें 11 अगस्त, 1933 को एक लंबा पत्र भेजा। जिसमें उन्होंने सलाह दी कि ‘आप पहले से भिन्न भूमिका अपनाएं। कांग्रेस को नया मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र कर दें।’ गांधीजी ने उनकी सलाह पर गंभीरता से विचार करने का उन्हें वचन दिया। वलंगैमान शंकरनारायण श्रीनिवास शास्त्री को वे बड़ा भाई मानते थे क्योंकि 1905 से ही वे गोपाल कृष्ण गोखले की बनाई संस्था ‘सवेंट्स आफ इंडिया सोसायटी’ के सदस्य थे। इस तरह उनका संबंध परस्पर गुरू भाई का था। महात्मा गांधी भी इस नतीजे पर पहुंच गए थे कि 1920 से वे कांग्रेस को जिस सभ्यतामूलक समाज का एक राष्ट्रीय संगठन बनाना चाहते थे वह लोभ, गुटबंदी और भ्रष्टाचार का शिकार हो गया है। इसीलिए उन्होंने श्रीनिवास शास्त्री के पत्र को बहुत महत्व दिया।

यह भी एक बड़ा कारण था, जिससे उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का विचार बनाया। इस बारे में उन्होंने सबसे पहले सरदार पटेल को ताबड़तोड़ दो पत्र लिखे। पहला पत्र 19 अगस्त का है। जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘मैं अपने मन की व्याकुलता आपको बताता रहता हूं। आप सब जाने नहीं देंगे तब तक कैसे जाऊंगा? परंतु मुझे तो महसूस होता ही रहता है कि मेरे सामने इसके सिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं है।’ अगले दिन दूसरा पत्र लिखा। वह 20 अगस्त, 1934 का है। छोटा पत्र है। उसमें वे एक गुजराती कहावत का प्रयोग कर रहे हैं। जिसका अर्थ है-अपने कष्टों को चुपचाप सहना। इसके लिए वे तैयार नहीं थे। कांग्रेस के रंगढंÞग से उनका कष्ट बढ़ गया था। जिसे वे चुपचाप सहन करने के बजाए खुली बहस कराना चाहते थे। इसलिए अपने पत्र में लिखा कि ‘फिर मैं मसविदा तैयार करके भेजूंगा।’ गांधीजी ने अपने मित्रों से परामर्श प्रारंभ किया।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को वर्धा बुलाया। यह सब वे व्यक्तिगत स्तर पर कर रहे थे। लेकिन अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ को खबर लग गई और उसने एक मनगढ़ंत कहानी छाप दी। जिसमें बताया गया था कि गांधीजी कांग्रेस से अलग हो रहे हैं क्योंकि पंडित मदनमोहन मालवीय और एम.एस. अणे से उनका सांप्रदायिक निर्णय पर गंभीर मतभेद है। इस पर महात्मा गांधी ने एक बयान जारी कर हिन्दू अखबार की खबर का खंडन किया। उसमें उन्होंने यह बताया कि ‘इस (कांग्रेस छोड़ने) विषय में हिन्दू जैसे एक जिम्मेदार समाचारपत्र का, मुझसे पूछे बिना, मेरे द्वारा लिए गए एक कथित गंभीर निर्णय के बारें में अनधिकृत समाचार छाप देना कैसे उचित ठहराया जा सकता है। निश्चय ही वर्धा का संवाददाता समाचार की पुष्टि अथवा खंडन करा सकता था।

गोपनीय बातचीत के बारे में अधूरी और अनधिकृत रिपोर्ट प्रकाशित करना गलत हुआ।’ ‘मैं कह सकता हूं कि इस विषय में साथियों के साथ बातचीत हुई; लेकिन कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है। अपनी प्रकृति के अनुसार मैं उन मित्रों से जो वर्धा आते हैं, अपने उन विचारों पर चर्चा करता हूं जो मेरे मन में सर्वाधिक प्रबल होते हैं। कोई निश्चित विचार बनाते समय किए गए विचारों के आदान-प्रदान यदि प्रकाशित किए जाते हैं, खासकर इस रूप में मानो वे निर्णय हों, तो सार्वजनिक जीवन कठिन हो जाएगा। निर्णय चाहे जो भी लिया जाए, उसका मालवीय जी और श्री अणे से न तो कोई संबंध है, न होगा।’गांधीजी ने सरदार पटेल को तीसरा पत्र 5 सितंबर को लिखा। यह पत्र लंबा है। जिसमें उन्होंने जिक्र तो नाम लेकर नहीं किया, लेकिन लिखा कि ‘जो मित्र हाल ही में वर्धा आए उनके साथ काफी विचार-विमर्र्श और बातचीत के बाद मैं इस निष्कर्र्ष पर पहुंचा हूं कि कांग्रेस से अपने सभी तरह के पद-संबंध और शारीरिक, यहां तक कि मूल सदस्यता के संबंध भी सर्वथा तोड़ देने से कांग्रेस और राष्ट्र का सबसे अधिक हित होगा।

गांधी जी ने चेतावनी भी दी कि आप इस आशा से इस पर विचार न करिए कि मैं प्रस्ताव के पास हो जाने पर अपने रिटायर होने के निश्चय पर पुन: विचार करूंगा। अगर मैंने कांग्रेस का नेतृत्व एक ऐसे संविधान से आरंभ किया था, जिसके लिए मुख्य रूप से मैं ही जिम्मेदार हूं तो आज विदा होते हुए मैं आपको यह संशोधित संविधान भेंट करना चाहता हूं।

इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं उस संस्था में दिलचस्पी लेना छोड़ रहा हूं, जिसके साथ 1920 से मेरा घनिष्ठ संबंध रहा और जिसे मैं अपने यौवनकाल से आदर देता रहा हूं। संस्था में जो भ्रष्टाचार प्रविष्ट हो गया है, उसके बारे में मैंने हाल में जो-कुछ कहा है, उस सबके बावजूद मेरी राय में वह अब भी देश की सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक प्रतिनिधि राष्ट्रीय संस्था है।’ इस पत्र से उन्होंने कांग्रेस में एक खुली और बड़ी बहस छेड़ दी। जैसा कि उन्होंने संकेत दिया था कि वे एक मसविदा तैयार कर रहे हैं, उसे उन्होंने 17 सितंबर को समाचार पत्रों में छपने के लिए भेज दिया। उससे पहले सरदार पटेल से उन्होंने परामर्श किया। लेकिन कांग्रेस के दूसरे नेताओं के लिए उनका बयान एक बड़ा झटका था। उनका बयान बहुत लंबा है। जो शब्दश: पूरा ‘बांबे क्रानिकल’ में 18 सितंबर को छपा। वह बयान इस तरह शुरू होता है-‘यह अफवाह कि मैं कांग्रेस से सारे संबंध तोड़ लेने का विचार कर रहा हूं, सच थी।’

उस बयान की खास-खास बातों में एक यह भी है कि ‘सरदार वल्लभ भाई पटेल मुझ से इस बात पर सहमत हैं कि मेरे कांग्रेस से अलग होने का समय आ गया है।’ दूसरी बात यह कि कांग्रेस गांधीजी के रास्ते से भटक रही थी। नेताओं की एक तरफ गांधीजी के प्रति निष्ठा थी तो दूसरी तरफ नीतिगत विरोध था। कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से उनका मौलिक मतभेद था। इसे उन्होंने उस बयान में इस तरह लिखा कि ‘यदि वे (समाजवादी) कांग्रेस में प्रबल हो जाते हैं, जैसा कि वे हो भी सकते हैं, तो मैं कांग्रेस में नहीं रह सकता।’ उन्होंने अपने बयान में यह दर्ज किया कि ‘मुझे इस बात पर संदेह होने लगा है कि क्या सारे कांग्रेसी स्वाधीनता का वही अर्थ करते हैं जो मैं करता हूं।’ आशय स्पष्ट है। वह यह कि गांधीजी की स्वाधीनता के बारे में जो कल्पना थी, उसे कांग्रेस ने पूरी तरह अपनाया नहीं था। महात्मा गांधी के उस बयान में इस अंश को सर्वाधिक महत्वपूर्ण कह सकते हैं-‘पश्चिमी लोकतंत्र को, यदि वह अभी तक विफल नहीं हो चुका है तो, कसौटी पर कसा जा रहा है। क्या भारत लोकतंत्र की अपनी स्पष्ट योग्यता के प्रदर्शन के द्वारा लोकतंत्र के सच्चे सिद्धांत का विकास करने का श्रेय प्राप्त नहीं कर सकता? भ्रष्टाचार और दंभ लोकतंत्र के अनिवार्य परिणाम नहीं होने चाहिए जैसे कि वे आज असंदिग्ध रूप से हैं; और न ही लोगों की संख्या लोकतंत्र की खरी कसौटी होनी चाहिए।

बहुत थोड़े-से लोग भी यदि जनता की भावनाओं, आशाओं और महत्वाकांक्षाओं का सही प्रतिनिधित्व करते हैं तो यह भी सच्चा लोकतंत्र ही है। मेरी धारणा यह है कि लोकतंत्र का विकास जोर-जबरदस्ती करके नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र की भावना को बाहर से नहीं लादा जा सकता, यह तो हृदय से स्फूर्त होनी चाहिए। यहां मैंने केवल उन प्रस्तावों का जिक्र किया है जो मैं (कांग्रेस) के संविधान में पेश करना चाहूंगा।’ इस बयान के अंत में उनकी अपील थी कि ‘कांग्रेसियों को चाहिए कि वे अनाशक्त भाव से इसके गुण-दोषों की चर्चा करें।’ इससे वे कांग्रेस को पश्चिमी लोकतंत्र के बारे में सतर्क कर रहे थे। इसके साथ ही फरेब से कांग्रेस संगठन पर कब्जा करने की धोखाधड़ी को लोकतांत्रिक समझने वालों को आइना दिखा रहे थे। दरअसल, 1933 की जुलाई में गांधीजी ने कांग्रेसजनों का एक सम्मेलन बुलाया था। वहां उन्होंने पाया कि कांग्रेसी संघर्ष के लिए तैयार नहीं हैं।

वे संसदीय राजनीति में अपनी मुक्ति देख रहे हैं। इस अनुभव के बाद उन्होंने कांग्रेस को उस रास्ते पर बढ़ाने का फैसला किया। हालांकि उन्होंने डा. मुख्तार अंसारी को लिखे एक पत्र में यह स्वीकार किया कि संसदीय राजनीति की ‘उपयोगिता के बारे में मेरे विचार वही हैं, जो सन 1920 में थे।’ स्पष्ट है कि संसदीय राजनीति यानी उस समय के 1934 के चुनावों में शामिल होने के कार्यक्रम को उन्होंने आपदधर्म के रूप में अपनाया था। लेकिन उन्हें सबसे बड़ा सदमा लगा, जब देखा और पाया कि अगस्त 1934 में कांग्रेस संगठन के चुनावों में सत्ताकांक्षी कांग्रेसजनों ने अपनी जेब से खर्च कर नकली सदस्य बनाए। उन्हें खद्दर के कपड़े पहनाकर कांग्रेसी बना दिया। यह इसलिए किया गया क्योंकि खादी पहनने वाला ही उस समय कांग्रेस का सदस्य हो सकता था। इसका रहस्य कांग्रेस कार्य समिति के एक प्रस्ताव से खुला। तब गांधीजी ने कांग्रेसजनों के इस पतन पर सात दिनों का उपवास भी किया। उसी समय कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने गांधीजी को एक पत्र भेजा कि कांग्रेस में सत्ता के लिए जो छल-फरेब, गंदगी और झगड़े हो रहे हैं, उन्हें देखकर मेरे जैसा व्यक्ति भी लंबे समय से यह सोचता रहा है कि इस स्थिति को बर्दाश्त क्यों किया जा रहा है। उन्होंने लिखा कि कांग्रेस के समूचे ढांचे को घुन लग गया है और इसे आमूलचूल बदले बिना कुछ भला नहीं होगा।

इन कारणों से ही मुंबई के अधिवेशन में गांधीजी ने 28 अक्टूबर, 1934 को कांग्रेस के संविधान को बदलने का प्रस्ताव रखा। वह कांग्रेस का 48वां अधिवेशन था। जिसकी अध्यक्षता डा. राजेंद्र प्रसाद ने की थी। कांग्रेस के संविधान में संशोधन प्रस्ताव पर वे उस अधिवेशन में बोले। एक चेतावनी भी दी कि ‘आप इस आशा से इस पर विचार न करिए कि मैं प्रस्ताव के पास हो जाने पर अपने रिटायर होने के निश्चय पर पुन: विचार करूंगा। अगर मैंने कांग्रेस का नेतृत्व एक ऐसे संविधान से आरंभ किया था, जिसके लिए मुख्य रूप से मैं ही जिम्मेदार हूं तो आज विदा होते हुए मैं आपको यह संशोधित संविधान भेंट करना चाहता हूं। जिससे कि आप उस व्यक्ति के अनुभव से लाभ उठा सकें, जिसने कि इस संविधान को आपके साथ रह कर कार्य में परिणत करने का यत्न किया और उसमें कुछ दोष पाएं हैं।’ इसके बाद उन्होंने प्रतिनिधियों से अपील की कि ‘आप इन संशोधनों को पास कर दें।’ वे पुन: नया संविधान बनाकर कांग्रेस को उसका पुराना आत्म त्याग लौटाना चाहते थे।

यहां याद रखना चाहिए कि 1920 में गांधीजी ने ही कांग्रेस को नया संविधान दिया था। जिसे अपनाकर वह राष्ट्रीय स्तर पर जन-जन का एक राजनीतिक मंच बन गया था। इसीलिए उन्होंने कहा कि ‘यह प्रस्ताव बहुत ही दूरगामी महत्व का है। यह कांग्रेस से आत्म त्याग के इतिहास की पुनरावृत्ति चाहता है।’ उनके समविचारी कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी ने प्रस्ताव का अनुमोदन किया और वह भारी बहुमत से पारित हुआ। उसी शाम गांधीजी ने एसोसिएटेड प्रेस के प्रतिनिधि के जरिए संदेश दिया कि ‘मैं अधिवेशन के परिणाम से पूर्णत: संतुष्ट हूं।’

 

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