अभिव्यक्ति की आजादी का हरण

इंदिरा गांधी अपने विरोध में उठने वाली सभी आवाजों को दबाने के लिए योजना तैयार कर चुकी थीं। केवल राजनीतिक आवाज ही नहीं, बल्कि मीडिया, कला, फिल्म एवं साहित्य आदि कहीं से भी उन्हें अपने खिलाफ कुछ सुनना बर्दाश्त नहीं था। सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को भी यातनाएं सहनी पड़ीं।

जब आपातकाल के दिनों को याद करता हूं तो बहुत-सी स्मृतियां मानस पटल पर आकर खड़ी हो जाती हैं। जेपी की एक हुंकार से हजारों हाथ उनके समर्थन में हवा में खड़े होते थे। उनमें एक हाथ मेरा भी था। 1975 में 26 जून के दिन इंदिरा गांधी ने सुबह-सुबह आपातकाल की घोषणा की थी। दरअसल, वह घोषणा लोकतंत्र को कब्जे में लेने की थी। मौलिक कर्तव्यों को बंदी बनाने की थी। कांग्रेस की इस काली करतूत को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। भारतीय लोकतंत्र का सबसे दु:खद व काला अध्याय आपातकाल है। आपातकाल के दौरान मैं भी बक्सर व आरा की जेल में बंद रहा था। वह संघर्ष और यातना का दौर था। सत्ता, सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग की सारी मर्यादाओं को ध्वस्त कर चुकी थी। जेल में घोर यातनाएं दी जा रही थीं। उस समय मेरे जैसे लाखों युवा देश की विभिन्न जेलों में बंद थे। रातों रात देश को जेल बना दिया गया था। अभिव्यक्ति की आजादी को कैद कर लिया गया था। विपक्ष के नेताओं को जेल में डाल दिया गया था।

25 जून 1975 को आपातकाल के विरोध में उठा हर स्वर वंदन का अधिकारी है। उन संघर्षों का ही परिणाम है कि देश में लोकतंत्र की बुनियाद इतनी मजबूत हुई है। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर छात्रों ने अनाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया था। छात्र आंदोलन को पूरे देश में व्यापक समर्थन मिल रहा था। इससे कांग्रेस की सरकार बौखला गई थी। जिस बेरहमी से आंदोलन को दबाने का प्रयास किया गया, वह दिल दहलाने वाला था। दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस का रवैया आज भी नहीं बदला है। जहां भी सत्ता में कांग्रेस रहती है, भ्रष्टाचार का बोलबाला रहता है। पार्टी पर एक परिवार का आधिपत्य आज भी कायम है। कांग्रेस उन राजनीतिक दलों की अगुवा है, जो सैनिकों के शौर्य एवं पराक्रम पर सवाल उठाते हैं। भारत के राजनीतिक इतिहास में कुछ ऐसी तारीखें दर्ज हैं, जिनके साथ क्रूरतम यादें जुड़ी हैं।

25 जून 1975 को भारत की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का गला इंदिरा गांधी की सरकार ने घोंटा था। एक झटके में लोकतंत्र को धराशायी कर दिया गया। लोकतंत्र के सभी स्तंभ छिन्न-भिन्न कर दिए गए। रातोंरात राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी होने लगी। जिस अंदाज से गिरफ्तारी हो रही थी, उससे सहजता से यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि इंदिरा गांधी अपने विरोध में उठने वाली सभी आवाजों को दबाने के लिए योजना तैयार कर चुकी थीं। केवल राजनीतिक आवाज ही नहीं, बल्कि मीडिया, कला, फिल्म एवं साहित्य आदि कहीं से भी उन्हें अपने खिलाफ कुछ सुनना बर्दाश्त नहीं था। सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को भी यातनाएं सहनी पड़ीं। ऐसा भी नहीं था कि 25 जून को अचानक से आपातकाल की घोषणा कर दी गई थी। इसके पीछे एक बड़ी रणनीति थी। देश की जनता पर आपातकाल थोपने का मकसद सत्ता में बने रहना तो था ही, इससे भी अधिक खतरनाक मंशा तत्कालीन हुकूमत की थी। हमें उस पक्ष पर भी चर्चा करनी चाहिए, जिसके कारण देश के लोकतंत्र को एक परिवार ने बंदी बना लिया।

दरअसल, लोकतंत्र की हत्या करके ही जो चुनाव जीता हो, उसे लोकतंत्र का भान कैसे रह जाएगा? लोकतंत्र की उच्च मर्यादा की उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती, जो जनमत की  बजाय धनमत और शक्ति का दुरुपयोग करके सत्ता पर काबिज होने की चेष्टा करें। राजनारायण जी द्वारा इलाहबाद हाईकोर्ट में किए गए मुकदमे में अदालत ने अपना निर्णय इंदिरा के खिलाफ सुनाते हुए चुनाव रद्द कर दिया और छह साल तक उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया। अदालत का फैसला यह बता रहा था कि कांग्रेस ने कैसे सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके देश के लोकतंत्र पर आघात किया है। इस बात पर विपक्ष आंदोलन करने लगा था। हम आपातकाल से पहले सड़कों पर थे। यानी यह कहना सही रहेगा कि आपातकाल के लागू होने से पहले ही भ्रष्टाचार के खिलाफ एवं लोकतंत्र को एक परिवार के चंगुल से मुक्त कराने की लड़ाई शुरू हो गई थी।

बिहार और गुजरात के छात्र पहले से आंदोलन कर रहे थे। एक तरफ देश में आपातकाल की पटकथा लिखी जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के रामलीला मैदान में इतिहास की सबसे बड़ी रैली लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में हो रही थी। इसी रैली में जेपी यह अंदेशा जता रहे थे कि इंदिरा गांधी लोकतंत्र की हत्या कर सकती हैं और उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है। जयप्रकाश नारायण की रैली ने कांग्रेस खेमे सहित प्रधानमंत्री तक को हैरत में डाल दिया था। बिजली काट दी गई, ताकि अखबार न छप पाएं और जयप्रकाश नारायण की बात जनता तक नहीं पहुंच पाए। रात दो बजे के आस-पास पुलिस ने जेपी को गिरफ्तार करने के बाद देश में चुन-चुनकर कांग्रेस के विरोध की हर आवाज को दबाना शुरू कर दिया। देश भर में इंदिरा गांधी और आपातकाल का विरोध करने वाले नेताओं की गिरफ्तारी हो चुकी थी।

यह संघर्ष लगभग 21 महीने चला। आखिरकार इस अलोकतांत्रिक कृत्य से त्रस्त जनता ने खुली हवा में सांस ली। 1977 का चुनाव किसी नेता ने नहीं, बल्कि देश की जनता ने कांग्रेस के खिलाफ लड़ा। उसका परिणाम आज भी नजीर के तौर पर जाना जाता है। इंदिरा गांधी हार चुकी थीं। कांग्रेस हार चुकी थी। लोकतंत्र खिलखिला कर उन नेतृत्वकर्ताओं का अभिनंदन कर रहा था, जिनके नेतृत्व में हमने आजादी की इस दूसरी लड़ाई को लड़कर लोकतंत्र को बहाल कराया था। आपातकाल के दौरान सभी प्रमुख विरोधी नेता जेल में थे। मैं भी जेल में लोकतंत्र के सुनहरे दिनों की कल्पना में एक-एक दिन काट रहा था। तब मन में यही विचार आता था कि देश को एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है, जो सभी विचारों का समावेश करके आगे बढ़े। हमने अटल बिहारी वाजपेयी जी का कार्यकाल देखा। सभी के विचारों का स्वागत होता था। आलोचनाओं के बिंदु पर हास्य-विनोद के साथ चर्चा होती थी।

अब आज हमारा लोकतंत्र उच्च मर्यादा और आदर्शों का पालन करने, कठिन परिश्रम को तवज्जो देने वाले नेतृत्व के हाथों में है। ऐसे में, जब मैं उस संघर्ष और यातना काल को याद करता हूं तो मुझे आज कांग्रेस और उसकी तथाकथित बौद्धिक जमात पर दया आती है।

(लेखक पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री हैं।)

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