विवाह सम्बन्ध -विच्छेद में अवसर की तलाश

शिवेंद्र सिंहहरिशंकर परसाई लिखते हैं, ‘दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस. कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता.’ इस अर्द्धसत्य से सहमत होना कठिन है. में इस कथन यदि परसाई आज जीवित होते तो वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल पुरुष दिवस की बात करते और आधुनिक नारियों को कमजोर लिखने से पहले कई दफ़े मनन करते. 
 आधुनिक यथार्थ यह है कि सार्वभौमिक रूप से ना सही पर पर आधुनिक नारियों से कम से कम पुरुष समाज प्रताड़ित-पीड़ित तो है ही और इस प्रताड़ना के नित नये स्वरुप परिलक्षित हो रहे हैं. इनमें से ही एक है विवाह सम्बन्ध विच्छेद. जैसे पिछले दिनों देश के बड़े उद्योगपतियों में शुमार रेमंड ग्रुप के चेयरमैन गौतम सिंघानिया के तलाक की खबर आई.इनकी बीवी ने तलाक के निपटान के लिए इनके नेटवर्थ का 75% यानि तक़रीबन करीब 11,660 करोड़ रुपएकी मांग की है. प्रतीत होता है कि तलाक का इस्तेमाल अब आर्थिक लाभ अर्जित करने एवं पुरुषों से प्रतिशोध का साधन हो गया है.
कभी मार्क्स ने पुरुष को दुनिया का सबसे पहला शोषक एवं नारी को पहली शोषित माना था. अब परिस्थितियाँ उलट हैं.तलाक के मुकदमे शामिल गुजारा भत्ता पुरुषों के शोषण का सबसे बड़ा अस्त्र बन गया है. विवाह को महिला-पुरुष का सामाजिक बंधन मानने वाले, नारी-पुरुष के बीच समान योग्यता और लैंगिक समानता की तक़रीरे करने वाले महिला गुजारा भत्ते के पुरुष विरोधी दुराचार पर मौन क्यों हो जाते है?
यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत दाण्डिक व्यवस्था और क़ानून लैंगिक भेदभाव पर आधारित है.यदि न्यायालय पुरुष को महिला की आर्थिक जिम्मेदारी उठाने के लिए बाध्य कर सकता है तो वही अदालतें महिलाओं को पुरुषों के प्रति सामाजिक कर्तव्यों के पालन के लिए क्यों नहीं बाध्य करती हैं? कहने को तो संविधान का अनु.14 लैंगिक समानता का दावा करता है लेकिन क्या वास्तविकता में ऐसा ही है? जैसे Sec-9 RCR में पति के पक्ष ने निर्णय आने के बाद भी यदि महिला ससुराल ना जाये तो न्यायालय बेबस हो जाता है किन्तु Crpc 125 के तहत वसूली के मामले न्यायालय असीमित शक्तियां प्रदर्शित करता है.
रही बात संतान की तो वह दोनों यानि महिला-पुरुष की साझी जिम्मेदारी है और इसे जाने भी दें तो पुरुष अपने बच्चों की जिम्मेदारी उठाने से पीछे नहीं हटते. बल्कि समस्या तब होती है जब पढ़ी-लिखी सक्षम महिलाएं भी बच्चों की परवरिश के नाम पुरुषों का आर्थिक शोषण या धन उगाही पर उतारू हो जाती हैं. साथ ही यदि महिला बच्चे की परवरिश करने में असमर्थ है तो उसकी कस्टडी पिता को दे देनी चाहिए. वास्तव में यह एक सामाजिक-क़ानूनी परंपरा सी बन गईं है कि पारिवारिक विवादों में सक्षम, सुशिक्षित एवं संसाधनयुक्त महिलाएँ भी सदैव बेचारी और पीड़ित समझी जाती है और कितना भी सुसभ्य, संसाधनहीन, भावनात्मक रूप से प्रताड़ित पुरुष दोषी एवं अक्षम परिवार माना जाता है.
 रही बात तलाक की तो आजकल आधुनिक ‘कूल’ नारियों के लिए यह भविष्य के उत्सवपूर्ण जीवन व्यतीत करने का अवसर बन चुका है. बस पुरुष को घरेलू हिंसा, दहेज़ के मुक़दमे में परिवार सहित निपटने की धमकी दीजिये और फिर सामाजिक अपमान से आक्रांत ससुरालियों पर दबाव बनाते हुए अधिक से अधिक रकम निर्वाह-व्यय (एलिमनी) के रूप में प्राप्त कीजिये और फिर स्वच्छंन्द जीवन जीने का मार्ग खुला ही है. ध्यात्वय है कि लगभग मामलों में इस तलाक की कमोबेश वजहें समान ही होती है यानि ‘प्रोग्रेसिव’, ‘माई बॉडी माई चॉइस’ वाली नारियों की रिश्तों को त्यागकर स्वकेन्द्रण, सामाजिक प्रतिबन्ध रहित स्वच्छंद जीवन और भौतिक सुखों की अतिरेक पूर्ण चाह.
आधुनिक, शिक्षित कन्याओं के साथ ये अजीब विडंबना है कि उन्हें जेंटलमैन लड़के चाहिए, न्यूनतम छः अंकों में लड़के की तनख्वाह हो, बड़े शहर में  अपना घर, बैंक बैलेंस, गाड़ी सब  चाहिए लेकिन उसके माँ-बाप नहीं चाहिए. पति अपने भाई-बहन की जिम्मेदारी ना ले और जल्द से जल्द परिवार का त्याग कर अपना पृथक जीवन जीये.अपनी आय का इस्तेमाल केवल पत्नी के सुख भोग में करे. लेकिन ज़ब पति ये मानसिक संकीर्णता स्वीकार नहीं करता तो इसका नतीजा होता है घरेलू कलह, लड़ाई-झगड़े, मारपीट, थाना, पुलिस, दहेज़ और घरेलू हिंसा के मुक़दमे, कोर्ट-कचहरी, परिवार समेत कारावास, सामाजिक-आर्थिक-मानसिक प्रताड़ना,  पत्नी को गुजारा भत्ता समेत ‘सेटलमेंट’ हेतु भारी-भरकम रकम जो चाहे अपनी या माँ-बाप की किडनी बेचकर ही जुटानी पड़े और अततः तलाक के साथ एक पराजित-अपमानित शेष जीवन.  
हालांकि सितम्बर, 2023 में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक निर्णय ने परंपरागत न्याय-निर्णयन को नवदिशा दिखाई. कोर्ट ने एक सुशिक्षित नौकरीपेशा महिला द्वारा 35 हजार रुपये प्रति माह के भरण-पोषण खर्च के अतिरिक्त 55 हजार रुपये के मुकदमेबाजी खर्च की मांग वाली याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा कि जीवनसाथी को भरण-पोषण प्रदान करने का कानून अलग हुए साथी द्वारा खैरात की प्रतीक्षा कर रहे बेकार लोगों की फ़ौज बनाने के लिए नहीं है.
 यकीन मानिये यहाँ विचार का मुद्दा नारीवादियों चरित्र हनन नहीं है बल्कि उस विद्रुप स्थिति का विश्लेषण है जहाँ चारित्रिक अतिवाद की वज़ह से परिवार नामक संस्था नष्टप्राय अवस्था को प्राप्त होने के कगार पर है.वैसे भी कुँवर नारायण ठीक ही लिखते हैं, ‘कोई भी बहस जब चरित्रों पर उतर आती है तो उसमें केवल चरित्रों का हनन होता है, विषयों पर मनन नहीं.’ यहाँ मुख्य तर्क पारिवारिक कलह और तलाक आदि में पुरुष प्रताड़ना का है.
 यह यथार्थ है कि नारीवाद की मौजूदा ‘रूपांतरित अवधारणा’ पुरुषों के दमन पर केंद्रित है. विशेषकर आधुनिक वैवाहिक सम्बन्धों की नियति में हमेशा पुरुष ही हाशिए पर होता है. हॉलीवुड अभिनेता जॉनी डेप तथा भारतीय क्रिकेटर शिखर धवन के अदालती मामलों ने दिखाया कि आम तो छोड़िये सशक्त पुरुष भी किस कदर महिलाओं द्वारा शोषित एवं प्रताड़ित हैं.याद करिये ज़ब पारिवारिक कलह से त्रस्त होकर बक्सर के डीएम ने ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी और एक आईपीएस ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली. जरा सोचिये की ऐसे उच्च शिक्षित एवं विशिष्ट प्रशिक्षित लोग यदि आत्मघातक बन जाये तो उनके मानसिक प्रताड़ना एवं आतंरिक पीड़ा का स्तर क्या होगा?
असल में शुरुआत में लिखित परसाई के कथन में एक प्रचलित वैचारिक विसंगति है कि जिसके अनुसार पुरुष सदैव ताकतवर ही होता है. लेकिन वास्तविकता में ‘मैस्कूलीन फीचर’,  जेंटलमैन, ‘बी रियल मैन’ और ‘दर्द नहीं होता वाले मर्दों’ के पीछे समाज यह देखने की फुर्सत ही नहीं पा रहा कि पुरुष किस सामाजिक प्रताड़ना और मानसिक पीड़ा से गुजर रहें हैं.चूंकि हमारे समाज ने मर्दों के आंसू को उनकी कायरता का प्रतीक बना दिया है इसलिए पत्नी एवं घरेलू कलह से प्रताड़ित पुरुष ना बाहर अपना दुःख कह सकते हैं और ना ही किसी संस्था, चाहे सरकारी या स्वयंसेवी से सहायता मांग सकते हैं. 
पर अभी भी इस तथ्य को सरकार एवं अन्य सत्ता प्रतिष्ठान स्वीकार करने को तैयार नहीं है. तभी तो सरकारों द्वारा पुरुष आयोग गठन ना किये जाने के बाद महेश कुमार तिवारी बनाम भारत संघ (2023) मामले में दायर याचिका में विवाहित पुरुषों के बीच आत्महत्या के मुद्दे पर शोध हेतु विधि आयोग को निर्देश देने तथा इस मुद्दे से निपटने के लिए “राष्ट्रीय पुरुष आयोग” की स्थापना का सुझाव दिया गया था. परन्तु  इस ‘मौलिक’ माँग को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एकतरफा बताते हुए अस्वीकृत कर दिया गया. लेकिन उक्त याचिका में प्रस्तुत अपनी मांग का यथार्थ प्रकट कर रहे थे. याचिका के मुताबिक 2021 में प्रकाशित एनसीआरबी डेटा का हवाला देते हुए कहा गया है कि वर्ष 2021 में लगभग 33.2 प्रतिशत पुरुषों ने पारिवारिक समस्याओं के कारण और 4.8 प्रतिशत ने विवाह संबंधी मुद्दों के कारण अपना जीवन समाप्त कर लिया. याचिका के अनुसार 18,979 पुरुषों यानि लगभग 72 प्रतिशत ने आत्महत्या की.
कुछ अन्य आंकड़े देखिये.नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 18 से 30 साल की उम्र के 56,543 लोगों ने सुसाइड की, जिनमें से 67 फीसदी पुरुष, 30 से 45 साल की उम्र के 52,054 लोगों ने आत्महत्या की थी. इनमें से लगभग 78 फीसदी पुरुष तथा 45 से 60 साल की उम्र के आत्महत्या करने वाले 30,163 लोगों में से 81 फीसदी से ज्यादा पुरुष शामिल थे. रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या करने वाले में अधिकतर शादीशुदा होते थे. कुछ पीछे लौटते हैं. एनसीआरबी के 2015 की रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों के कुल आत्महत्या के केस में विवाहितों की संख्या सबसे अधिक 66 फीसदी जबकि विधुर-तलाकशुदा की संख्या 3% है. वही 2014 में पारिवारिक कलह और झगड़ों के कारण 18 हजार पुरुषों ने जान गंवाई. राज्यवार आंकड़ो का एक उदाहरण देखिये. छत्तीसगढ़ में पिछले दो वर्षों 2020 तथा 2021 में 15 हजार से अधिक लोगों ने पारिवारिक विवाद, प्रताड़ना और मानसिक पीड़ा के कारण आत्महत्या की हैं जिसमें 11 हजार से अधिक पुरुष हैं.
 इन आंकड़ों का क्या अर्थ निकाला जाये? कहने को  विवाह संस्था प्रेमाश्रय है और साथी प्रेम का स्रोत. ओशो कहते हैं, ‘जिससे मिलने के बाद जीने की उम्मीद बढ़ जायेगी, समझना वो ही प्रेम है.’ लेकिन ये कैसा प्रेम है जहाँ पुरुष जीवन के बजाय मृत्यु को चुनने को बाध्य हो रहें हैं.
 एक समय दहेज़ के विरोध में बारात लौटाकर रातोरात चर्चा में आई निशा शर्मा के पूरे प्रकरण को न्यायालय ने खारिज कर दिया. करीब नौ साल तक सुनवाई करने के बाद जिला न्यायालय ने  2012 को फैसला सुनाते हुए इस पूरे प्रकरण को सुनियोजित षड़यंत्र करार देते हुए एक लड़के और भरे पूरे परिवार की जिंदगी बर्बाद करने पर निशा शर्मा के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां की थीं. लेकिन क्या इससे आरोपी बनाये गये मुनीष दलाल और उनके परिवार को इंसाफ मिला? उस लंबे समय तक झेले गये सामाजिक अपमान और आर्थिक संकटों का क्या? लेकिन ये जानने में ना उसे खलनायक बनाने वाले मिडिया को रूचि है और ना समाज को, क्योंकि वे एक पुरुष है इसलिए उसके मान-सम्मान की फ़िक्र करने की जरुरत नहीं है.
 यह इकलौता मामला नहीं है बल्कि देशभर में ऐसे फर्जी मामलों की श्रृंखला सी बन गईं है. उदाहरणस्वरुप वैवाहिक विवादों के सम्बन्ध में कुछ समय पूर्व एक दैनिक पत्र में हरियाणा के पानीपत के आंकड़ों को देखिये. यहाँ पिछले तीन सालों में झूठे मामले दर्ज कराने वाली औरतों के खिलाफ 50 से ज्यादा केस दर्ज हुए हैं. 2021 में जहां महिलाओं द्वारा दर्ज कराये गए 220 मुक़दमों में 87 को जाँच में झूठा पाकर निरस्त किया गया. वही 2022 में दर्ज 178 मामलों में से 67 को फर्जी पाकर रद्द किया गया. यह मात्र एक उदाहरण भर है वरना सर्वविदित है कि वैवाहिक विवाद में दर्ज कराये जाने वाले दहेज़ प्रताड़ना के अधिकांश मामले फर्जी और प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होते हैं.
 हालांकि कुछ सवाल मौजू हैं जैसे सुधारवाद के वो ठेकेदार जो दहेज को सामाजिक दृष्टि से भीख मानते हैं उनमें से किसी को भी सरकारी नौकरी, बिना सास ससुर के परिवार, अच्छा बैंक-बैलेंस, जमीन-जायदाद वाले लड़कों से ही अपनी बेटी ब्याहने की जिद ‘वैचारिक नीचता’ तथा ‘घटिया स्वार्थ’ क्यों नहीं प्रतीत होता?दहेज पीड़िताओं के लिए बड़ी-बड़ी रैलीयाँ निकालने वाले ऐसे ही फर्जी मुक़दमों में जीवन बरबाद करने वाले लड़कों और उनके परिवार पर कोई रुदाली क्यों नहीं करते?
लेकिन समाज को क्या हो गया है. अकसर देखा गया है कि महिलाओं को रिश्तों की मर्यादा समझाकर घर जोड़ने के बजाय उन्हें ससुराल पक्ष को प्रताड़ित करने जैसे कुकृत्यों के लिए भड़काने हेतु करीबी रिश्तेदारों और मित्रों के अतिरिक्त कभी-कभी माँ-बाप भी तत्पर होते हैं. लेकिन स्वयं की कुंठा और स्वार्थ से प्रेरित ये वर्ग है जो यह नहीं समझता कि किसी परिवार का विघटन अंततः समाज को चोट पहुँचाता है. जैसा कि रघुवीर सहाय कहते हैं, ‘जब समाज टूट रहा होगा तो कुछ लोग उसे बचाने नहीं उसमें अपना हिस्सा लेने आएँगे.’
 सामाजिक दृष्टि से एक लंबे समय तक पुरुषवादी मानसिकता का अतिवाद रहा है आज परिस्थितियाँ उल्टी किन्तु उसी परिवेश में हैं यानि अब नारीवादी अतिवाद चरम की ओर है. साहित्यकारों ने नारी की वेदना और पीड़ा पर जाने कितने महाकाव्य और ग्रन्थ रच डाले हैं. लेकिन किसी रचनाकार ने अब तक पुरुष के अंतर्मन की वेदना को कागज पर उकेरने का प्रयास नहीं किया.पुरुषों के वर्तमान हालात कुछ ऐसे हैं जैसे कि जिगर मुरादाबादी लिखते हैं,
 ‘हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है’
वैसे ये कोई फ़साना नहीं कठोर यथार्थ है. तो क्या कोई, संस्था, कोई सरकार है जो पुरुषों के इस मौन रुदन, मौन दुःखाभिव्यक्ति को सुन-समझ सके?
शिवेन्द्र राणा
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