स्वतंत्र भारत में भूमि सुधार

राकेश सिंह

जमींदारी प्रथा का अंत हो चुका है। इसके साथ ही किसानों को जमीन का हक मिला। किसानों को मिला अधिकार भी काफी कुछ पन्नो पर ही है। वास्तविकता से काफी दूर। इसका लक्ष्य था जमीन पर किसानों को उनका हक दिलाना। लक्ष्य साफ था। जमीन उसकी जो खेती करे, अपनी आजीविका चलाए यानि उस जमीन पर ही निर्भर हो। उस लिहाज से जमींदारी उन्मूलन अपने लक्ष्य से कोसों दूर है।

वैसे संविधान में भूमि सुधार राज्य का विषय है। इसलिए राज्य को सामंती शोषण को समाप्त करने के लिए कानून बनाने की जरूरत थी। ज्यादातर राज्यों को यह प्रक्रिया पूरी करने में चार-पांच साल लग गए। इस लेटलतीफी के कारण जमींदार गलत ढंग से दस्तावेजों को अपने पक्ष में करने में सफल रहे। इस हेराफेरी से बड़े पैमाने पर काश्तकार बेदखल हुए। जमींदार के नाम की जमीन उनके परिवार के अनेक सदस्यों व फर्जी नामों से तैयार की गई। जमींदारी उन्मूलन से जमीन मालिक काश्तकारों से लगान वसूल करना तो गैर कानूनी हो गया। इस कदम से बिचौलियों की समाप्ति तो हो गई, लेकिन जमीन पर खेती करने वालों के मालिकाना हक पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। उदाहरण के लिये ‘सीर’ और ‘खुदकाश्त’ सरीखी भूमि, कानून के तहत सरकार नहीं ले सकती थी। क्योंकि ऐसी जमीन के मामले में जमींदार को बिचौलिया नहीं माना गया था। उसे श्रमिकों के जरिए ऐसी जमीन पर खेती करने की इजाजत थी। इसके अलावा कोई ऐसी सरकारी मशीनरी भी नहीं थी जो जमींदार द्वारा पट्टे पर कराई जा रही खेती पर नजर रख सके।

कुछ राज्यों में जहां काश्तकार को जमीन पर मालिकाना हक प्राप्त था, वहां जमींदार को मुआवजा देने की व्यवस्था थी। यह व्यवस्था विभिन्न राज्यों में अलग-अलग थी। लेकिन फिर भी काश्तकार की स्थिति में कोई प्रत्यक्ष सुधार नजर नहीं आया। जमींदारी उन्मूलन में निर्धन वर्ग विशेषकर सीमांत किसान, बटाईदार और कृषि श्रमिकों के बारे में कोई चिन्ता निहित नहीं थी।

पंचवर्षीय योजनाओं में लगातार भूमि सुधार की आवश्यकता पर बल दिया जाता रहा। पहली तीन पंचवर्षीय योजनाओं में समानता पर जोर देने के बजाय कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी पर अधिक बल दिया गया। इसका नतीजा यह रहा कि जमीन के स्वामित्व पर किसी प्रकार की हदबंदी पर कोई विचार विमर्श नहीं हुआ। कुछ राज्यों ने इस सम्बन्ध में कानून बनाए लेकिन 1961 के जमींदारी उन्मूलन कानून के साथ ही भू-हदबंदी कानून सभी राज्यों में लागू किया गया। भू-हदबंदी का स्तर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग रहा। हालांकि ये कानून व्यवहारिक रूप से पूरी तरह अप्रभावी साबित हुए। कारण साफ था, भूमि का हस्तांतरण वैध और हेराफेरी दोनों तरीकों से बड़े पैमाने पर होता रहा। यह मानते हुए कि जमीन के समान वितरण में बहुत कम प्रगति हुई है। यह मुद्दा 1970 में फिर उठा। साल 1972 में राज्यों के साथ विचार-विमर्श के बाद भू-हदबंदी कानून को फिर से बनाने का निर्णय लिया गया। इसके तहत जोत के आकार को सीमित करने की व्यवस्था थी। कानून के स्वरूप और व्यवस्थाओं को देखते हुए भू-हदबंदी की धारा से बचने के पर्याप्त अवसर मौजूद थे।

एक अनुमान के अनुसार जमींदारी उन्मूलन से लगभग दो करोड़ काश्तकारों को फायदा हुआ। फिर भी, यह समस्या अब भी मौजूद है। विशेषकर उन राज्यों में जहां अनुपस्थित भू-स्वामित्व फल-फूल रहा है। उदाहरण के लिये साल भर सिंचाई की व्यवस्था और दो फसलों का उत्पादन कर सकने वाली जमीन के लिये 10 से 18 एकड़ तक ही सीमा निर्धारित थी।  इस वर्गीकरण में पर्याप्त सिंचाई और भूमि की गुणवत्ता दोनों मामलों में गलत तथ्य दिखाने की गुंजाइश थी। एक फसल वाली जमीन के मामले में भू-हदबंदी की सीमा 27 एकड़ थी। कोई व्यक्ति बता सकता था कि वह एक ही फसल उगाता है। राजनीतिक और सामाजिक दोनों रूप से शक्तिशाली होने के कारण जमींदार भूमि के अवैध हस्तांतरण और पट्टे पर देना जारी रख सकते थे। पांच लोगों से अधिक के परिवार में 18 से अधिक आयु वाले प्रत्येक अतिरिक्त व्यक्ति को अतिरिक्त भूमि रखने की अनुमति थी। जन्म के पंजीकृत न होने की स्थिति में छोटी उम्र का बच्चा भी अपने को 18 वर्ष का होने का दावा करके अधिक जमीन रख सकता था। मुआवजा अदा करना जरूरी था। मुआवजा अदा करने के लिये गरीब को जमींदार अथवा महाजन से पैसा लेना पड़ता था। पैसा अदा न करने की स्थिति में जमीन फिर से जमींदार अथवा महाजन के कब्जे में चली जाती थी। भू-हदबंदी कानून में इन त्रुटियों के कारण भू-स्वामित्व की व्यवस्था में असमानता बनी रही।

आज भी, भूमि सुधार राष्ट्रीय स्तर पर चिन्ता का विषय बना हुआ है। कृषिगत सुधार और खेती के विकास के लिये व्यापक भूमि सुधार नीति एक अनिवार्य शर्त है। काश्तकारी सुधार सम्बन्धी कानून नागालैंड, मेघालय और मिजोरम को छोड़कर सभी राज्यों में लागू है। ये कानून राज्य के जरिए काश्तकारों को मालिकाना हक दिलाने, यथोचित मुआवजे की भरपाई करके काश्तकारों को स्वामित्व दिलाने में, काश्तकारों की सुरक्षा और लगान निर्धारित करने की व्यवस्था करते हैं। फिर भी इन क़ानूनों का क्रियान्वयन समान ढंग से नहीं किया गया है।

प. बंगाल, कर्नाटक और केरल ने इस दिशा में अधिक सफलता अर्जित की है। प. बंगाल में 14 लाख बटाईदारों को ‘ऑपरेशन बर्गा’ के तहत दर्ज किया गया है। कर्नाटक में विशेष रूप से गठित ‘भूमि न्यायाधिकारण’ के जरिए तीन लाख काश्तकारों को 11 लाख एकड़ भूमि उपलब्ध कराई गई। केरल में 24 लाख काश्तकारों को काश्तकार संघ के आवेदनों के जरिए मालिकाना हक प्रदान किया गया। कुल मिलाकर काश्तकारी सुधार-सम्बन्धी अनुभव काफी सीमित हैं, जबकि मौखिक या गुप्त काश्तकारी के उदाहरण काफी अधिक हैं। यह तथ्य व्यावहारिक जोतों के वितरण सन्बन्धी आंकड़ों से उजागर होता है।

साल 1972 के राष्ट्रीय मार्ग दर्शन के अनुसार गोवा और उत्तर-पूर्वी राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों में भू-हदबंदी कानून बनाया गया। हदबंदी कानून के तहत सिर्फ 72.2 लाख एकड़ भूमि को अतिरिक्त घोषित किया गया। इसमें से 46.5 लाख एकड़ भूमि को सातवीं योजना के अंत तक वितरित किया जा चुका था। जहां एक तरफ शेष बची हुई भूमि का वितरण किए जाने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी तरफ यह महसूस किया गया कि मौजूदा हदबंदी कानून के तहत और अधिक अतिरिक्त भूमि प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा, यह हकीकत है कि मौजूदा तकनीकी स्तर में छोटी जोत अधिक व्यावहारिक हैं। अतः ऐसी स्थिति में भू-हदबंदी सीमा को कम करना सम्भव है, ताकि भूमि का और अधिक समानता पर आधारित पुनर्वितरण किया जा सके। यह सत्य है कि भूमि पर जनसंख्या के बढ़ते दबाव की वजह से जोतों का औसत आकार कम होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में हदबंदी सीमा को और अधिक कम करना वांछनीय नहीं है।

जमींदारी प्रथा का उन्मूलन तो किया गया मगर किसानों को उनकी जमीन मिले इसके ठोस काम नहीं हुए। नीति ऐसी बननी चाहिए थी कि किसान को ज़रूरत भर खेती योग्य भूमि मिल जाए। इससे किसान खुशहाल होते। गांव में गरीबी कम होती। गांव बदहाल नहीं होते। इस तरह भूमि पर किसानों को अधिकार दिलाने और भूमि सुधार नीति को लागू कर किसानों को भूमि देने की कवायद अधूरी रह गई।

भूमि सुधार नीति के बारे में 2006 में की गई एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 95.65 प्रतिशत किसान, जो कि छोटे और सीमान्त श्रेणी के हैं, वे 62 प्रतिशत खेती योग्य भूमि के मालिक हैं। जबकि 3.5 प्रतिशत किसान, जो कि मध्यम व बड़ी श्रेणी के हैं, 37.72 प्रतिशत भूमि के मालिक हैं। दरअसल भूमि सुधार नीति को मूर्त रूप देने के लिए भूमि सर्वेक्षण जरूरी था। 1905-06 में जमीन का सर्वेक्षण हुआ था। उसके बाद सौ से अधिक साल गुजर गए, मगर हमारी सरकारों ने भूमि का सही सही रिकार्ड रखने के लिए कोई पहल नहीं की। नतीजा रहा कि भूमि के स्वामित्व को लेकर स्थिति अभी तक बेहद उलझी हुई है। रजिस्ट्री दस्तावेज के माध्यम से जमीनों की खरीद-बिक्री हो तो रही है और स्वामित्व अधिकार बदल रहे हैं, लेकिन किस भूमि का मालिक कौन है, अगर सरकारी दस्तावेज गृह से कोई पता करना चाहे, तो काफी मशक्कत करनी पड़ेगी।

गैर मजरुआ आम और गैर मजरुआ मालिक जमीनों को लेकर तो स्थिति और भी बुरी है। 1905-06 के सर्वे के अनुसार जमीन तीन भागों में विभक्त की गई थी, रैयत जमीन, गैर मजरुआ आम और गैर मजरुआ मालिक। रैयत जमीन तो किसानों के नाम हो गई, मगर गैर मजरुआ मालिक जमीन पर जमींदारों का कब्जा बना रहा। जबकि रास्ते, पोखरे, खत्ते, नदी, तालाब, नहर, पाइन, तटबंध आदि जमीनें, जिनका सार्वजनिक इस्तेमाल होता था, वे जमीनें गैर मजरुआ आम थीं। आजादी के बाद इन जमीनों का सबसे बुरा हाल हुआ। सरकार की अस्पष्ट नीति और गांव की तरफ सरकार की लापरवाही भरे नजरिए की वजह से गैरमजरुआ आम जमीनों पर जिसको जहां मौका मिला, आम-ओ-खास सबने कब्जा कर लिया। इन जमीनों को लेकर चूंकि मालिकाना हक स्पष्ट नहीं है, इसलिए अक्सर गांव के लोग जमीनों की खरीद-बिक्री करते समय ठगे जाते हैं। झगड़े होते हैं।

नदी, तालाब, पोखरा, नहर, पाइन आदि जो पानी के स्रोत थे, ज्यादातर उन्हीं जमीनों पर अराजक कब्जा हुआ है। गांवों में पानी की समस्या बढ़ी है। बरसात में बाढ़ की स्थिति रहती है। बरसात समाप्त होते ही, सूखे की स्थिति बन जाती है। बरसात का पानी बेकार बह जाता है। जलाशयों के समाप्त हो जाने की वजह से पशुओं को पीने का पानी मिलना, खेतों के लिए पटवन का काम आदि के लिए जमीन के नीचे के जल पर निर्भर रहना एकमात्र विकल्प रह गया है। नतीजा है जलस्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है।

खेती योग्य भूमि क्षेत्रों में भूमि सुधार की सरकारी प्रक्रिया अब भी जारी है। लेकिन पिछले एक दशक में भूमि की कीमतों में जिस तरह बेतहाशा बढोत्तरी हुई है, भूमिपतियों से भूमि लेना अब न्यायसंगत भी नहीं है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की भूमि की कीमतों में जिस तरह का आसमान-जमीन का अंतर है, उसमें शहरों के झोपड़ों में रहनेवाले लोगों झोपड़े की कीमत से भी कम है। जिन-जिन गांवों में या उसके आसपास सरकार के विकास के कदम पड़ते हैं, जमीन की कीमत अनाप-शनाप बढ़ने लगती है। ऐसे में भूमि सुधार के नाम पर भूमिपतियों से जमीन वापस लेना सही नहीं होगा। भूमि आज सिर्फ आजीविका का साधन नहीं रह गया है, बल्कि भूमि की खरीद-बिक्री करोड़ों में होने लगी है। मामूली किसान भी नित नए बढ़ते शहरों के पास की जमीन बेचकर करोड़पति बन रहे हैं। 

आदिवासियों के मामले में यह स्थिति और भी शर्मनाक और अन्यायपूर्ण है। किसानों को जमीन के कुछ न कुछ अधिकार तो मिले, मगर उन आदिवासी वंचित रहे। जबकि आदिवासी जंगलों पर निर्भर थे। उनकी आजीविका जंगलों से प्राप्त लकड़ी, पत्ते, फूल-फल और पशु-पक्षी से चलती थी।  उन्हें भूमि के अधिकार से सरकार ने लगभग पूरी तरह वंचित कर दिया। अंग्रेजों ने शहरों पर आधारित सम्पन्न गावों को अपने शोषण का केन्द्र बनाया। दूसरी तरफ अलाभकर जंगलों और आदिवासियों को इससे मुक्त रखा। वहां अंग्रेजी हुकूमत ने खेती योग्य जमीनवाले इलाकों की तरह जमींदारी प्रथा लागू नहीं की। सुदूर जंगलों में आदिवासी अपना जीवन पूर्ववत जीते रहे। जब भारत आजाद हुआ, सरकार ने अंग्रेजों की तरह खेतों पर अपना स्वामित्व नहीं माना। जमींदारों से खेत किसानों को मिले इसके लिए नियम–कानून तो बनाये, मगर जंगलों पर चूकि जमींदारों का कब्जा नहीं था, इसलिए पूरे जंगल पर सरकार ने अपना कब्जा जमा लिया। आदिवासियों को जंगल की जमीन पर कोई अधिकार नहीं मिला। आज उसी अन्याय की वजह से देश के जंगली इलाकों में आग लगी है। आदिवासियों को उनका हक दिलाने के नाम पर एक तरफ नक्सली बंदूकें ताने खड़े हैं तो दूसरी तरफ कानून-व्यवस्था के नाम पर सरकारी सिपाही बंदूकें लिए आदिवासी इलाकों में घूम रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि पूरा जंगल जंगली जानवरों के आतंक से भी ज्यादा खतरनाक आतंक के साये में जी रहा है। सरकार जंगल पर अपना अधिकार मानती है, जबकि माओवादी इस अव्यवस्था को अपना हथियार बना रहे। वो जंगल पर आदिवासियों का हक बता रहें। इसे आधार बनाकर अपनी हुकूमत चलाना चाहते हैं। आदिवासी दोनों तरफ से पिस रहे हैं। इस लड़ाई में लाखों लोग मारे जा चुके हैं। आदिवासियों का हक अब भी हवा में है।

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