मैं आपसे कह रहा था इस संविधान में अच्छी बातें क्या हैं? संविधान का जो मौलिक अधिकार है वह आजादी के आंदोलन की मांग के अनुरूप है। इसीलिए हम इसे अपनी ताकत के रूप में देखते हैं। 1997 की बात है। अटल बिहारी ने एक व्याख्यान दिया। जिन लोगों ने उसे पढ़ा होगा वे जानते हैं कि उन्होंने क्या कहा। वे संविधान सभा की कार्रवाई के आधार पर कहते हैं कि हमने संविधान सभा में इस बात की तो चर्चा ही नहीं की कि हम किस शासन प्रणाली को अपनाएंगे। बोलचाल में हमने यह बात मान ली है कि हम संसदीय प्रणाली में रहते हैं। संसदीय प्रणाली एक भ्रम है।
मैं इस भ्रम के बारे में दूसरे ढंग से आपसे कहता हूं कि अगर 1950 में इसी संविधान के एक शब्द को बगैर बदले हुए राष्ट्रपति के पद पर जवाहरलाल नेहरू होते और प्रधानमंत्री के पद पर डाॅ. राजेंद्र प्रसाद होते तो यही संविधान राष्ट्रपति प्रणाली वाला माना जाता। जब मैं यह कहता हूं तो इसकी एक ठोस वजह है। वह आधार आप सुनें और समझें। आप जानते हैं कि संविधान की रक्षा की शपथ कौर लेता है? सिर्फ एक व्यक्ति संविधान की रक्षा की शपथ लेता है। उसका पद है भारत का राष्ट्रपति। दूसरे जितने लोग हैं प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री या गवर्नन तक, सभी संविधान के अनुपालन की शपथ लेते हैं। दोनों में बड़ा फर्क है। राष्ट्रपति संविधान की रक्षा की शपथ लेता है।
राजेंद्र बाबू से लेकर प्रणब मुखर्जी तक हर राष्ट्रपति ने संविधान की रक्षा नहीं की, प्रधानमंत्री की रक्षा की। हर राष्ट्रपति संविधान की जो अवहेलना होती है उस पर पर्दा डालता है। संविधान की रक्षा का काम नहीं करता। अगर राष्ट्रपति को अपनी शपथ याद होती तो इस देश में आपातकाल लागू नहीं होता। लोकतंत्र का गला नहीं घोटा जाता। हजारों लोग जेल में यातना नहीं सकते। संजय गांधी संविधान से ऊपर की शक्ति के रूप में नहीं उभरते। यह सिलसिला रुका नहीं है। उसका रूप बदल गया है। इसे तमाम उदाहरणों से बताया जा सकता है।
अध्यादेश की संस्कृति इसी का एक प्रतिफलन है। कितने अफसोस की बात है कि जिस संविधान में नागरिक को सर्वशक्तिमान माना गया है, व्यवहार में वह नितांत लाचार है। नागरिक में ही संप्रभुता है। यह सिद्धांत है। जिसका अंत सिद्ध नहीं होता। संविधान में संप्रभुता राष्ट्रपति में नहीं है। उसे नागरिक की संप्रभुता की रक्षा करनी है। क्या हमारे राष्ट्रपति यह दायित्व निभा पाए हैं? इस अर्थ में भी यह संविधान औपनिवेशिक है। उसी तरह का है जैसा कि कभी गवर्नर जनरल के समय में होता था।
हिंदुस्तान की संप्रभुता राष्ट्रपति में नहीं है, प्रधानमंत्री में नहीं है बल्कि एक गरीब किसान में है। वहीं किसान इस संविधान में बहुत लाचार है। क्योंकि पिरामिड उल्टा है। गांव, गरीब और किसान को ऊपर से सत्ता का स्वाद टपकाया जाता है। उसे अपने बारे में फैसला करने का अधिकार नहीं है। उसका फैसला कहीं और होता है। उसे फैसला सुनाया जाता है। यही इस संविधान की सबसे बड़ी बिडंबना है। उसी का इस लोकतंत्र में विस्तार हो रहा है। जिसे हम संसदीय लोकतंत्र समझते हैं वह वैसा है नहीं।
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप इस भ्रम को दूर करते हैं और हमें बताते हैं कि यह मानना बहुत बड़ा भ्रम है कि हमने ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली अपनाई है। वे कहते हैं कि ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली के एक भी लक्षण हमारी संसदीय प्रणाली में नहीं हैं। फिर यह प्रणाली है क्या? यहां भी संविधान पर हमारी निगाह अटक जाती है। आप जानते हैं कि सन् 1985 से पहले संविधान में दल या दल प्रणाली का उल्लेख तक नहीं था। चार सौ से ज्यादा सीटें जीतकर राजीव गांधी आ गए, पर उन्हें एक भय सता रहा था कि कहीं संसदीय पार्टी में बगावत न हो जाए। इसलिए दल बदल रोकने के लिए जो कानून आया उसमें पार्टी का उल्लेख हुआ। संविधान के मूल पाठ में नहीं, अनुसूची में उसे डाला गया। यह है हमारे संविधान से निकली संसदीय प्रणाली की एक हकीकत।
इस संविधान में शक्तियों के विभाजन की व्यवस्था है। यह एक आदर्श व्यवस्था है। कागज पर वह लुभावनी दिखती है। हकीकत में कुछ और है। इसका संबंध संविधान के मूल स्वरूप से है। हमें यह जांचना चाहिए कि क्या यह व्यवस्था उसी रूप में काम कर रही है जैसा कि सोचा गया था। पहले शक्तियों के विभाजन का स्वरूप समझ लें। संविधान की व्यवस्था में कार्यपालिका यानी शासन, न्यायपालिका और संसद अपने में स्वायत्त है। क्या यह संवैधानिक स्वायत्तता बनी हुई है? क्या एक दूसरे में दखल देने की प्रवृत्तियां कम हुई हैं? अनुभव से कहाजा सकता है कि स्वायत्तता का पहले भी और आज भी क्षरण हो रहाहै। इससे उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती जिसके लिए यह व्यवस्था बनाई गई है। इसे एक उदाहरण से समझना चाहिए।
हालांकि यह उदाहरण सिर्फ संसद का है। कह सकते हैं कि यह एक नमूना है। ऐसे उदाहरण अनेक हैं। संविधान की धारा है, 98. इसमें एक उपबंध यह है कि लोकसभा और राज्यसभा के लिए अपना सचिवालय होगा। उसके लिए एक कानून होगा। यहां यह जानना रोचक है कि 13 मई, 1952 को पहली लोकसभा गठित हुई। तब से अब तक करीब 64 सालों में वह कानून नहीं बना। लोकसभा में अध्यक्ष और राज्यसभा में सभापति का यह दायित्व है। मेरा आरोप है और इसमें पूरी सच्चाई भी है कि लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति अपनी मनमानी बनाए रखने के लिए कानून बनवाने के प्रयास नहीं करते। इससे संसद पर उस अफसरशाही की जकड़ और पकड़ बढ़ती चली जा रही है जिससे उसको स्वतंत्र होना चाहिए। सवाल यह है कि यह संविधान का दोष है? क्या यहउनका दोष है जो संविधान को लागू करते हैं? इससे अलग दोष दृष्टि को हटा दें तो कहना होगा कि संविधान की ऐसी व्यवस्थाओं के प्रति जागरूकता जरूरी है। जिससे सुधार का रास्ता खुले।