चक्रव्यूह के सातवें द्वार को कैसे तोड़ा कल्याण सिंह ने ?

इतिहास पुरूष सदैव चुनौतियों और खतरो से घिरा रहता है। चुनौतियां, खतरे, संकट, घटनाएं, दुर्घटनाएं, उत्थान-पतन और मुश्किलें ही उसे इतिहास पुरूष बनाती हैं। इक्कीस अक्टूबर, 1997 को हिंसा के ताण्डव के मध्य कल्याण सिंह ने जिन परिस्थितियों में बहुमत सिद्ध किया वह पूरी दुनियां ने देखा। बहुमत सिद्ध होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में राज्यपाल रोमेश भंडारी ने राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने की संस्तुति की जिसे आदरणीय राष्ट्रपति के हस्तक्षेप करने पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने अपने फैसले पर पुनर्विचार कर उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय सरकार बहाल की।

सत्ता अपहरण करने वालों की गिद्ध-दृष्टि उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार पर टिकी हुई थी,क्योंकि कल्याण सिंह जी द्वारा उत्तर प्रदेश में व्याप्त भ्रष्ट्राचार, अपराधियों और माफियाओं के विरूद्ध छेड़ी गई मुहिम ने भ्रष्ट और अपराधी मानसिकता वाले नेताओं की नींद हराम कर दी थी। उन्हें लगने लगा की देर-सबेर कल्याण सिंह का शिकंजा उन्हें धर दबोचेगा। विधान परिषद के चुनाव में भाजपा की भारी विजय ने विपक्षियों के पैरों तले जमीन ही खिशका दी थी। अंदर ही अंदर यह षड़यंत्र रचा जाने लगा कि कल्याण सिंह की सरकार कैसे बर्खास्त करवाई जाय। संसदीय चुनाव का प्रचार अभियान पूरे शबाब पर था। कल्याण सिंह के समर्थक दलों में कोई मतभेद भी नहीं थे, किन्तु कहते हैं कि षड़यंत्र और प्रलोभन से तो असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं और वही हुआ।

सत्ता की राजनीति किस हद तक कुरूप और राजव्यवस्था किस हद तक असहाय हो सकती है, इसका स्पष्ट नजरिया उत्तर प्रदेश में 21 फरवरी 26 फरवरी 1998 तक के घटनाक्रम में देखने को मिला। पूरे एक सप्ताह के लिए देश एवं प्रदेश हिल गया। लोकतंत्र की चूलें हिल गई, इसीलिए तो कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश में भारत का दिल धड़कता है। सत्तालोलुप राजनेताओं और उनके गलीज इरादों ने राजनीति के मूल्यों और मर्यादाओं को इतना आहत किया कि लोकतंत्र की आत्मा बिलख उठी। कुर्सी हथियाने के फेर में राजनेता जिस तरह पेश आ रहे हैं उससे जनता का लोकतंत्र और सरकार में विश्वास उठ रहा है।

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान कल्याण सिंह जी अपने व्यक्तित्व और स्वभाव के अनुरूप जिस धैर्य, मर्यादा, कुशलता और सूझबूझ से पेश आए उसी का परिणाम है कि लोकतंत्र एक बार फिर कलंकित होने से बच गया और जनास्था लोकप्रिय सरकार में पुनर्स्थापित हो सकी। अगर चुनी हुई लोकप्रिय सरकारों का इस तरह अपहरण होने लगेगा तो चुनाव, वोट का अधिकार जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और सैवैधानिक मर्यादाओं के आखिर क्या मायने हैं? संविधान तो साफ कहता है कि हम जीतें तो सरकार बनाये और हारे तो धैर्य से विपक्ष में बैठकर जनहित संरक्षण की भूमिका निभाये। लोकतंत्र में विपक्ष की सत्तापक्ष से कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है। इसीलिए डा. राममनोहर लोहिया ने आजीवन विपक्ष की राजनीति करने का दृढ़ संकल्प किया था। राजनीतिक दलों में सत्ता के लिए इस तरह की व्याकुलता और भूख ने ही राजनैतिक अराजकतता को जन्म दिया है। जिसके परिणामस्वरूप व्यापक जनकल्याण की राजनीति धुरी से हटकर हाशिये पर आ गयी है। सत्ता और धनार्जन, राजनीतिक दलों का मुख्य शगल हो गया है। यही वजह है कि जनता की राजनीति और राजनेताओं में धीरे-धीरे विश्वास और आस्था घट रही है जो मौजूदा भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा संकट है।

इस पूरे घटनाक्रम की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि कल्याण सिंह जी को इसकी भनक तक नहीं लगने पायी। सरकारी खुफियातंत्र तो विफल हुआ ही भारतीय जनता पार्टी संगठनात्मक मोर्चे पर भी पूरी तरह विफल रही। कल्याण सिंह जी स्वयं पूरे घटनाक्रम पर हतप्रभ थे। गत पांच-छह महीने में कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश में विकास और कानून व्यवस्था को जिस तरह से स्ट्रीम लाइन किया, भ्रष्ट्राचार, माफियाओं और अपराधियों पर जिस तरह हमले किए उससे राजनीतिक क्षेत्र का अराजक तबका तिलमिला उठा।

21 अक्टूबर को विधानसभा में मारपीट करवा कर सरकार गिराने में असफल रहने वाली राजनीतिक शक्तियों को भला नींद कहां आ रही थी। उनका तो रात-दिन यही सोचना था कि कल्याण सिंह सरकार का खात्मा कैसे किया जाय ताकि भ्रष्ट्राचारियों की तरफ बढ़ रहा कल्याण सिंह का खूनी पंजा उनकी गर्दन न दबोच सके। गत दिनों मायावती सरकार में भ्रष्ट्राचार और सरकारी धन को नाबदान में बहाने का जो नंगा नृत्य प्रदेश में हुआ उसके विरूद्ध कल्याण सिंह ने भ्रष्ट्राचार विरोधी मुहिम छेड़ी। जिसके तहत दर्जनों बड़े बड़े अधिकारी और राजनैतिक व्यक्ति लपेट में आ गए। उन सबने उसी मानसिकता के अन्य राजनैतिक खेमों से सांठ गांठ करके उत्तर प्रदेश की सत्ता अपहरण का यह घिनौना नाटक रचा। अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए इन अराजक और भ्रष्ट सत्तालोलुपों ने लोकतंत्र को धधकती आग में झोंक दिया।

कल्याण सिंह महज अपनी कुर्सी के लिए नहीं बल्कि प्रदेश की जनता के विश्वास और लोकतंत्र के साथ हो रहे भोंड़े मजाक और खिड़वाड़ से उद्वेलित हो उठे। उनका संवेदनशील हृदय और उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति को एकबार फिर संकट की घड़ी की परीक्षा दौर से गुजरना पड़ा। मूल्यों, आदर्शों और मर्यादाओं के संवाहक कल्याण सिंह के लिए यह कभी उचित नहीं हो सकता कि ऐसी परिस्थितियों में आवेग में आकर कोई अराजक कदम उठाये जैसा कि 2 जू 1995 को श्री मुलायम सिंह यादव ने गेस्ट हाउस कांड रचकर किया था। उनका दृढ़ निश्चय था कि सरकार जाने का गम नही हैं किन्तु जिस तरह सरकार का अपहरण किया गया उसके विरूद्ध वाजिब और मर्यादित लड़ाई लड़ेगें। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका न्यायपालिका ने निभाई जिसके जरिए जनता के लोकतंत्र में विश्वास को उटने से बचाया जा सका। मामले की गम्भीरता और संवेदनशीलता को देखते हुए बिना बिलम्ब किये माननीय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने  दूध का दूध और पानी का पानी साफ-साफ कर दिया। कल्याण सिंह चार-पांच माह में ही दूसरी बार विधानसभा में बहुमत सिद्ध कर लोकप्रिय और न्यायप्रिय राजनेता के रूप में नये उत्साह और जोश के साथ उभर कर सामने आये हैं। उन्होंने आपद-धर्म निभाने की भी कुशलता बखूबी हासिल कर ली है।

पिछले एक दशक में विशेषकर नब्बे के दशक के दूसरे चरण में राजनैतिक मूल्यों का जिस तरह क्षरण हुआ है उससे देश की राजनीति तो कलंकित हुई ही है साथ ही भारत के संसदीय लोकतंत्र पर सवालिया निशान भी लग गया है। जब चुनी हुई सरकारों के इस तरह से अपरहण होने लगेंगे और जन इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिथि जब सुबह शाम सत्ता के लिए पाला बदलने लगेंगें तब लोकतंत्र की मर्यादाएं कैसे सुरक्षित रह पायेंगी। यह एक बृहद सवाल पूरे राष्ट्र के समक्ष यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने आने वाले समय में राजनैतिक व्यक्तियों के इस हद तक चारित्रिक गिरावट और नैतिक पतन की ल्पना ही नहीं की थी वरना हो सकता था भ्रष्ट प्रवृत्ति, आपराधिक चरित्र और सत्तालोलुपों के राजनीति में प्रवेश पा सकने में कड़े संवैधानिक बन्दोबस्त शुरूआती दौर में संविधान में कर लिये गये होते।

आज समय आ गया है जब राजनैतिक दलों की कानूनी जवाबदेही निर्धारित करने की जरूरत है। यह सामूहिक जिम्मेदारियों का दौर है। अब पक्ष-विपक्ष की जगह जरूरत है सहमति की राजनीति की। देश की तरक्की तथा जनकल्याण से भला असहमति किसकी हो सकती है। किन्तु सत्ता शिखर तक पहुंचने के लिए अपने-अपने ढंग का समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और विकास का एजेंडा अपनाते हैं जो न सिर्फ छद्म होता है बल्कि देश के साथ निरा धोखा होता है। आज पक्ष-विपक्ष दोनो ही मोर्चों का गठन कर यह साबित कर रहे हैं कि स्वस्थय संसदीय लोकतंत्र के लिए दो दलीय प्रणाली ही सबसे कारगर सिद्ध हो सकती है। क्योंकि सत्ता पक्ष पर अंकुश रखने के लिए मजबूत और जागरूक विपक्ष भी निहायत जरूरी है।

आज दलीय राजनीति अपनी स्वार्थपरिता के चरमसीमा पर है। आज इसी दलीय भेदभाव के कारण लोगों के हृदय छोटे और दृष्टि संकुचित हो गयी है। सभी दलों में ईर्ष्या, जलन,द्वेष,घृणा और अविश्वास की भावना व्याप्त है। केवल दलों के आधार पर लोकतंत्र नहीं चल सकता। लोकतंत्र के लिए जरूरी है समाज में निष्पक्ष लोगों और नैतिकशक्ति की। वरना लोकतंत्र में इसी तरह सत्ता अपहरण की घटनाएं घटेंगी और देश के ही लोक देश को लूटने में नहीं हिचकेंगे।

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