शान-शौकत और गरीबी – जे.वी. कृपलानी

लोकसभा में सदस्यों को अपनी बातों को स्पष्ट रूप से रखने में जो असुविधाएं होती हैं, उनका ध्यान रखकर अपने विचारों की व्याख्या आवश्यक प्रतीत होती है। वे दिन नहीं रहे जबकि स्वर्गीय मदनमोहन मालवीय जैसे व्यक्ति केंद्रीय विधानसभा में रौलट-बिल पर छः घंटे तक भाषण करते रह गए। ऐसा अब कोई भारतीय संयुक्त राष्ट्रसंघ में ही कर सकता है। आजकल यदि कोई सदस्य मिनिस्टर नहीं है तो किसी भी महत्वपूर्ण बिल पर ज्यादा से ज्यादा पैंतालीस मिनट तक लोकसभा में भाषण कर सकता है। उस पर भी यदि वह किसी मिनिस्टर का भाषण नहीं है तो अखबार वाले उस आधे काॅलम में ही इधर-उधर करके समाप्त कर देते हैं। अधिकतर साधारण सदस्यों के भाषण को दो चार पंक्तियों में अखबार वाले निकाल देते हैं। इसीलिए कभी-कभी यह अत्यंत आवश्यक प्रतीत होता है कि अपने विचारों को सरल और साफ तौर से जनता के सामने रखा जाय।

गरीबों के रुपये को शान-शौकत, आडम्बर और बाहरी तड़क-भड़क के पीछे पानी की तरह बहाने वाली साम्राज्यवादी विदेशी सरकार की मैंने बराबर भत्र्सना की है। सभा में अपनी बात रखी है। अक्सर मैंने अनावश्यक अधिक खर्चीले महलों के निर्माण की शिकायत की है। मैंने बराबर इस बात पर जोर दिया है कि हमारे सामाजिक-आर्थिक जीवन के पुनर्निर्माण में आम जनता के पैसे को खर्च किया जाए। मिनिस्ट्री में या सेक्रेटरियेट में दिन दूने और रात चैगुने बढ़ते हुए शासकीय अफसरों की मैंने आलोचना की है। इसके आगे भी, मैंने शासन के प्रत्येक स्तर पर की कार्य-अक्षमता और भ्रष्टाचार, बेईमानी आदि के संबंध में आम जनता के विचारों को सामने रखा है। ऐसा मैंने तब भी किया था जबकि मैं विरोधियों में नहीं बल्कि कांग्रेस में था। कितनी बार मुझे अनुशासन की कार्रवाई की धमकी भी दी गई थी। परंतु बुद्धिमानी से वे बातें आपस में बहस कर लेने पर आप ही आप खतम कर दी जाती थीं। एक समय की बात है, मैंने बड़े पैमाने पर शासन में फैले हुए भ्रष्टाचार को शिकायत की तो बड़े-बड़े अधिकारियों ने मुझे बताया कि भ्रष्टाचार के जन्मदाता वे ही हैं जो हमेशा भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाते रहते हैं। मेरा उत्तर था कि हम तो -‘इस तरह की मनगढंंत कथा’ के युग में नहीं रहा करते जहां कि गड़ेरिये के ‘भेड़िया, भेड़िया’ चिल्लाने से भेड़िया सचमुच ही आ गया था। कहानी में वह इसलिए आ गया चूंकि वह जंगल में था। यहां बेईमानों की चिल्लाहट जादू-मंतर का दृश्य उपस्थित करती है।

इन विषयों पर आलोचना करने वाले मेरे दो भाषणों ने साधारण जनता का ध्यान अधिक खींचा है। इस पर कुछ दैनिक अखबार वालों ने अपने संपादकीय विचार-विश्लेषण भी प्रस्तुत किए हैं। इसके कारण भी हैं। पहला कारण यह है कि साधारण जनता बजट में नए-नए टैक्सों के लगाने के प्रस्तावों से एकदम ऊब-सी गई है। वह इस बात को पूरे तौर से अनुभव करती है कि जब उस पर बोझ पर बोझ डाले जा रहे हैं, तब उसके रुपये का खर्च शान-शौकत और बाहरी दिखावे पर थोड़ा कम हो, शंकालु और काल्पनिक मनोरंजक कामों में कम हो, शासन में कम भ्रष्टाचार हो और काम ठीक से हो, कुशलता से हो, खर्च कम हो, लोग मितव्ययी हों। कुछ ज्यादा बचाया जाय। दूसरा कारण यह है कि दिन-रात आम जनता को सादा जीवन, आत्म-संयम और कम भोजन का पवित्र उपदेश दिया जाता है। उन्हें पेट बांधकर रहने को कहा जाता है। ऐसा वे लोग कहते हैं जिन्होंने अपनी शान-शौकत को बढ़ा लिया है, उपभोग को बढ़ा लिया है, जो न तो हमारे भारतीय लोगों की परंपरा के अनुकूूल है और न ही गांधी जी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई के इतिहास से मेल खाता है। ऐसी बातों पर वे क्रोध प्रकट करते हैं क्योंकि यह उन्हीं महानुभावों पर लागू होता है जो गांधीजी का नाम लेते नहीं थकते और अपने को गांधीजी का पक्का अनुयायी भी मानते हैं।

साधारण जनता के ध्यान आकृष्ट किए जाने का तीसरा कारण था- बजट-भाषण में प्रधानमंत्री का हस्तक्षेप। जब कि मिनिस्टर के कामों को कोई कांग्रेसी सदस्य समझने और मूल्यांकन करने में असमर्थ पाकर कुछ कहना चाहता है तो, प्रधानमंत्री इसमें हस्तक्षेप करते हैं। यह समझने लायक बात है। सर्वोपरि सरकार में जो कुछ होता है उसका उत्तरदायित्व प्रधानमंत्री पर ही होता है। अच्छे कामों के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी हुआ करती है। फिर यह भी स्वाभाविक ही है कि जब कभी काम गलत ढंग से हो तो उन्हें अपना दोष स्वीकार करना चाहिए। इस बार उन्होंने वित्त मंत्री का पक्ष लेने के लिए और कांग्रेसी सदस्यों के भाषण को सही नेतृत्व देने के लिए बहस में हस्तक्षेप किया। नए कर लगाने वाले सिद्धांतों को उन्होंने न्यायोचित कहा। उन्होंने इसे केवल आवश्यक ही नहीं बताया बल्कि समय के अनुकूल, परिमित और न्यायसंगत भी कहा। उन्होंने कहा- धनी देशों में थोड़ी-थोड़ी आमदनी पर कर लगाए जाते हैं। उन्होंने शासन के लिए शान-शौकत, आडंबर और बाहरी तड़क-भड़क को भी सही बताया। उन्होंने यह भी कहा, ‘मैं छत्रपति का छत्र धारण नहीं करता हूं’, परंतु उन्होंने रथ और छः घोड़े को जनजीवन की सुंदरता और मर्यादा-रक्षा के लिए परमावश्यक समझा। इस प्रकार उन्होंने भ्रष्टाचार की खामियों को थोड़ा कम कर दिया।

मर्यादा, सुंदरता और शिष्टाचार के नाम पर पनपने वाले इस विचार की मैंने आलोचना की है। मैंने इस विलक्षण और विदेशी स्वांग की आलोचना की है। ये भारतीय वातावरण के लिए और खासकर स्वराज्य के लिए असंगत हैं। ये तरीके जनतंत्र के विरुद्ध तो हैं ही, समाजवाद के तो बिल्कुल विरोधी हैं- उस समाजवाद के जिस समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य हमारी कांग्रेसी सरकार कर रही है और उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए अपना बजट बनाती है। फिर भी मुझे प्रजातांत्रिक स्वतंत्र देश के राष्ट्रपति को राष्ट्रपति के लिबास में देखना है। यह दिखावा और शान-शौकत ब्रिटिश जनतंत्र का लक्षण है क्योंकि अभी तक वहां रईसी राज्य-सत्ता का चलन और जारा का स्थान सुरक्षित है। लेकिन वहां भी इन सब चीजों में सुधार हुए हैं। विदेशी लिबासों का व्यवहार अगर कोई व्यक्ति उसका सौंदर्य जाने बगैर करता है तो ऐसी अवस्था में वह प्रतिष्ठित होने के बदले उपहासित होता है। इस विषय में गीता उपदेश देती है:

श्रेयान्स्वध्र्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावह।।

(अच्छी प्रकार पालन किए गए दूसरे के धर्म से गुणरहित होने पर भी अपना धर्म उत्तम होता है। अपने धर्म में मरना भी श्रेयस्कर है और दूसरे का धर्म भय कारक होता है।)

मेरा दुर्भाग्य है कि मैंने सदाचरण का सात्विक सौंदर्य और उसकी प्रतिष्ठा को देखा है। इसे मैंने गांधीजी में देखा। शांतिनिकेतन के उन विगत महत्वपूर्ण उत्सवों के अवसरों पर मैंने उसे बराबर देखा है जबकि सम्मानित अतिथियों का आतिथ्य हुआ करता था। श्री जवाहरलाल नेहरू ने धोती की उपेक्षा की, लेकिन मैंने सोचा, स्वर्गीय सरदार पटेल धोती धारण करके कभी कम प्रतिष्ठित नहीं दिखे या राजा जी धोती धारण करके कम प्रतिष्ठित नहीं मालूम पड़ते। सामान्य लोगों की पोशाक पहनने पर भी वे कभी अपने काम में, तत्परता में कम नहीं दिखे या न कभी डाक्टर राधाकृष्णन ही देशी पोशाक पहनने पर कम प्रतिष्ठित और कम प्रभावित करने वाले लगे। शायद यह जान कर प्रधानमंत्री जी को अचरज और मार्मिक पीड़ा भी होगी कि जब कभी उनके मंत्रीगण, उपमंत्रीगण और संसदीय मंत्रीगण चाहे वे केंद्र के हों या राज्य के, वोट मांगते द्वार-द्वार गए थे उन्होंने उस पोशाक को घर पर रख छोड़ा था, अपने चूड़ीदार पायजामे उतार फेंके थे; उत्तर भारत में उन्होंने धोती धारण की थी और दक्षिण में लूंगी।

मेरा विश्वास है, वास्तविक प्रतिष्ठा बाहरी प्रदर्शन के बनिस्बत आंतरिक संस्कार का प्रतिफलन है। गांधीजी सदैव लंगोटी और चद्दर का व्यवहार करके भी किसी राजकुमार से कम प्रतिष्ठित नहीं थे, क्योंकि महान् पुरुष के सभी आंतरिक गुण उनमें परिव्याप्त थे। फारसी कहावत है- ‘जाये सदर’ जहां कहीं महान् पुरुष आसन लगाते हैं वहीं राष्ट्रपति का आसन हो जाता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि राष्ट्रपति अपने अगल-बगल से घिरे हुए सभी बेशकीमती आभूषणों वाले लोगों को त्याग दें तो उनकी प्रतिष्ठा में एक रत्ती भी आंच नहीं आएगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इससे राष्ट्रपति के मानसिक या आध्यात्मिक डील-डौल में तनिक भी बढ़त नहीं होती। वे स्वभाव से सरल हैं और यह सदाचार उनके महान् विद्वान और देश को समर्पित सेवा के लायक है। शायद ही वे ऐसी शान-शौकत और आडंबरपूर्ण तड़क-भड़क को पसंद करते हों जिसके कि वे दास बना दिए गए हैं। यदि उन पर यह छोड़ दिया जाय तो वे अधिकाधिक सादगी और आजादी को पसंद करेंगे। यह उनके स्वभाव के अनुकूल और हमारी परंपरा के लायक होगा। देश के लोगों की गरीबी को देखते हुए यह बुरा भी नहीं होगा। राज्यपालों के मामले में भी यही अच्छा होगा। जिस शान-शौकत के वे अभ्यस्त नहीं हैं, उनकी कल्पना भी नहीं करते और न वे ऐसे रहन-सहन को पसंद करते हैं जो उन्हें नागरिकों के साथ स्वतंत्रापूर्वक विचरण में बाधा देते हों। चाहे जैसे हो, वे लोग दूसरे देश के लोगों के विचारों के चक्कर में पड़ जाते हैं। यह समय के अनुकूल भी नहीं। उनके अफसर पुरानी लीक पर डटे हैं। वे बड़ी तत्परता से उनके कानों में यह कहकर शोरगुल करते हैं कि यदि उच्च कार्यालयों को सही ढंग से संचालित करना है तो जैसे काम होते रहे हैं उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए वे वैसे ही भविष्य में भी होते रहें। वे उन्हें आश्वस्त कर देते हैं कि उससे भिन्न कुछ नहीं किया जा रहा है।

ऐसा सोचकर मुझे आश्चर्य होता है कि क्या सचमुच ही राष्ट्रपति भवन के सभी कोनों पर घंटों बल्लम बर्छी से सुसज्जित सवारों को खड़ा रखने से राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाता है। क्या किसी प्रति-भोज या पार्टी में स्वागत के समय दरबार हाॅल के प्रत्येक सोपान पर उनका रहना शोभा को द्विगुणित कर देता है! मैं नहीं जानता कि प्रजातंत्र के जन-समाज के अपने सबसे बड़े प्रतिनिधि का अपनी प्रतिष्ठा और व्यक्तित्व बढ़ाने में किए गए इन व्यवहारों का सम्मान होगा। ये खर्चीले शान-शौकत और आडंबर विदेशियों से वंशागत रूप में लिए गए हैं। यह साम्राज्यवादी परंपरा है। इंग्लैंड के ऊंचे कुल में उत्पन्न आखिरी वाइसराय ने अपने उत्तराधिकारी को प्रभावपूर्ण भाषा में आदेश दिया था कि भारत जैसे देश पर शासन करने के लिए शान-शौकत और तड़क-भड़क की अत्यंत आवश्यकता है। इससे देशवासी प्रभावित होंगे और राष्ट्रपति की प्रतिष्ठा और उनके व्यक्तित्व में चार चांद लग जाएगा। भूतपूर्व वाइसराय ने अपने हाल के भारत-भ्रमण के अवसर पर उनकी राय मान लेने वाली बात पर बहुत संतोष प्रकट किया- यह देखकर उन्हें अपार आनंद हुआ कि उनकी राय का हूू-ब-हूू पालन हो रहा है। किंतु, जब वे सम्राट के प्रतिनिधि न रहकर भारतीय जनता के गवर्नर जनरल थे तब उन्होंने अपने निवास स्थान को कमांडर के बंगले में ले जाने की इच्छा प्रकट की थी। उसी में आजकल (1957 में) प्रधानमंत्री श्री नेहरू रहा करते हैं।

यदि ऐसा होता कि शान-शौकत और बाहरी दिखावे में जनता के अधिक धन खर्च नहीं होते, तो भी इस प्रथा का अंत इसलिए भी आवश्यक था कि कुछ लोग इस विश्वास पर हंसते हैं कि कहीं इससे भला राष्ट्रपति का पद और व्यक्तित्व प्रभावशाली बन जाता है। जनता के पैसे नहीं खर्च होने पर भी इसे कंधे का भारत समझ कर तिरस्कार कर देना चाहिए। दुर्भाग्यवश इस पर कोई हंस भी नहीं सकता कि किस प्रकार यहां गलत रहन-सहन के स्तर, समादर और जीवन-सौंदर्य के नाम पर जनता के पैसे का दुरुपयोग होता है और उनके सामने इन्हें गलत तरीके से पेश किया जाता है। उससे भी जो बुरा है, वह है- यह सब जो हो रहा है वह गरीबी की चक्की में पिसते साधारण भारतीय लोग, उनकी बीमारी, उनके अज्ञान और उनकी जीर्ण-शीर्ण, करुणापूर्ण अवस्था, यह शान-शौकत सबके प्रतिकूल है। एक ओर कहां उनकी मैली-कुचैली गलियां और दूसरी ओर कहां ये विलास के वैभव- दोनों में आकाश-पाताल का अंतर है। मैं ऐसा कभी नहीं कहता कि चूंकि भारतीय लोग बहुत गिरी हुई अवस्था में रहते हैं इसलिए सब लोग उन्हीं के जैसा रहें! लेकिन, यदि हम भारतीय जीवन के मूल सिद्धांत, सभी उत्सव के अवसरों पर सब साथ ही मिलकर सदाचार और साधारण जीवन-स्तर की कल्पना कर एक-दूसरे का साथ दें और उनके तरफ से अज्ञात नहीं बने रहें तो हमारे लिए सबकुछ संभव हो सकता है।

अभी जिन विचारों को मैंने व्यक्त किया है, वे जनप्रिय हैं और ‘दि टाइम्स आफ इंडिया’ दैनिक अखबार ने भी अपने संपादकीय में 1 जून को अपना विचार व्यक्त किया है। यह अखबार प्रधानमंत्री श्री नेहरू और उनकी सरकार का समर्थक है। यह गंवार जैसा लगता है कि प्रधानमंत्री जैसे जागरूक और आमखयाल वाले व्यक्ति के मन में भी ऐसा विचार पैदा हो कि राष्ट्रपति के छः घोड़े और एक गाड़ी उनकी प्रतिष्ठा को ऊपर उठाने में समर्थ हैं और अनुशासन के भाव को सुचारु रूप देते हैं। अगर अनुशासन के भाव घोड़े पर ही निर्भर करते हों, तो छः के बदले साठ ही क्यों न रखे जांय… … … यदि कुछ हो सकता है तो वह यही है कि राष्ट्रपति-भवन और राज्यपालों के यहां परंपरा के पालन के लिए होने वाले उत्सवों में कटौती की जाय। यह कटौती राष्ट्रपति भवन से अधिक राज्यपालों के यहां होती तो राज्यपालों के प्रतिष्ठा बढ़ती। … … दो बड़े-बड़े बेढंगे राजभवनों और उनमें सैकड़ों काम करने वाले लोगों को परेशान होना, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। भारत को छोड़कर क्या संसार में और दूसरा देश है जहां जनता के रुपये के बल पर अतिथियों के लिए आलीशान महल बनाए गए हों? क्या यह उस देश के गवर्नरों की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उचित है जहां देश के अनगिनत लोग बड़े-बड़े शहरों में सड़कों के फुटपाथ पर रात गुजार देते हैं? क्या यह जरूरी है कि गरीबों के खून-पसीने की कमाई के पैसे से चालीस लाख में एक राजभवन का निर्माण हो जैसा कि चंड़ीगढ़ में प्रस्तावित है? बड़े-बड़े आलीशान महलों और विलासिता के सामानों के साथ प्रतिष्ठा का कौन-सा प्रश्न उठता है? क्या करोड़ों का खर्च करके सभी नए ब्रांड के पचकोनियां महलों की बहुत बड़ी आवश्यकता आ पड़ी है? हम किसे प्रभावित करना चाहते हैं?… आज वे जो बड़े-बड़े भीमकाय आलीशान महलों को देखते हैं, उनकी आंखें चारों तरफ फैले हाहाकार और विपत्तियों को देखने में भी असफल नहीं होतीं।

उसी तारीख को दि हिंदुस्तान स्टैंडर्ड ने संपादकीय में लिखा, ‘‘प्रत्येक वर्ष कांग्रेसी विधायक राज्यपाल और वाइसराय के लिए मत प्रदान करने से हिचकते हैं। उनके प्रतिपक्षी बैंड और सभी और-मौज और शान-शौकत की शिकायत करते हैं। ऐसा उत्तर पाकर हमें क्षोभ होता है जबकि वे ऐसा कहते हैं कि मत देने से इन्कार करना यह सूचित नहीं करता कि वे इसके विरोध में हैं, बल्कि ब्रिटिश गवर्नर और वाइसराय की उस शान-शौकत से द्वेष प्रकट करते हैं जिसका आनंद उन्होंने उठाया था। आज जो समय-समय पर गांधीजी के प्रति श्रद्धांजलियां अर्पित की जाती हैं उनका कोई अर्थ नहीं हो सकता, यदि गांधीजी के उत्तराधिकारी ही अपने अतीत को छोड़ दें और प्रतिष्ठा के नाम पर फिजूल खर्ची को अपनाते रहें जिसका एक बार उन्होंने स्वयं क्षोभपूर्वक विरोध किया था।’’

जब कभी हम प्रतिष्ठा की बात किया करते हैं, आखिर किसकी प्रतिष्ठा की बात हम लोग किया करते हैं? इसे मैं जानना चाहता हूं। यह समूचे देश की जनता की प्रतिष्ठा हो ही नहीं सकती। हमारी प्रतिष्ठा सामान्य स्तर के निवासियों से आती है न कि चोटी के इने-गिने लोगों से। जो लोग गरीबी, रोग और अज्ञान के अंधकार में पड़े हुए हैं उनमें कौन-सी प्रतिष्ठा हो सकती है! आज की प्रतिष्ठा विनाश की ओर बढ़ती हुई गरीबी की कब्र पर आलीशान मकबरे के समान है। ऐसी प्रतिष्ठा की हिंदुस्तान में कमी नहीं है, खासकर दिल्ली में तो और भी नहीं।

शान-शौकत और तड़क-भड़क जिनका उपयोग बड़े-बड़े अफसरों द्वारा बड़े गौरव के साथ हुआ करता है, इसका जो मैं अर्थ समझता हूं उसे आपके सामने स्पष्ट करूं। मैं इसका विरोध इसलिए करता हूं कि‘ 1. स्वरूप में यह साम्राज्यशाही है। इसका निर्माण उन्हीं साम्राज्यवादी विदेशियों के द्वारा हुआ था। ईश्वर को धन्यवाद, क्योंकि ब्रिटिश शासन को रोबीले ढंग से चलाने के लिए वे अब हमारे देश में नहीं रहे। 2. यह खुद विदेशी पद्धति है जिसका मेल न तो हमारे बीते दिनों के जीवन से है या न आधुनिक परंपरा से। आज जो इसमें व्यस्त हैं उनकी समझ में भी यह बात नहीं आ रही है कि इसमें कौन-सी सुंदरता है! इससे न हमारी कल्पना पर असर पड़ता है और न हमारी भावनाओं पर। 3. क्योंकि यह प्रजातांत्रिक भी नहीं है। 4. भारत जैसे गरीब देश के लिए यह बहुत खर्चीली है जिसका समचा जन समुदाय कम-से-कम आवश्यकताओं के साथ जिंदगी बसर करता है। 5. यह हमारे देश के लोगों के सामने गलत मूल्य, गलत जीवन-स्तर और गलत आचार को प्रस्तुत करती है।

मैं इस विचार से पूरा सहमत हूं कि राज्यों के राज्यपालों के पद को सुविधापूर्वक समाप्त किया जा सकता है। शायद ही उस विषम परिस्थिति में इसकी जरूरत होती है जब कभी राज्य संविधान का उल्लंघन करता है और केंद्र अपने हाथ में राज्य-शासन को राज्यपाल द्वाररा ले लेता है। ऐसी दशा में क्या यह आवश्यक है कि इतने अधिक खर्च पर स्थाई तौर से राज्य के गवर्नरों के आफिसों को चलाया जाय? ट्रावणकोर कोचीन में गवर्नर नहीं था, लेकिन जब राज्य द्वारा संविधान की अवहेलना हुई तो राज्य प्रमुख था और केंद्र के आदेश से उसका शासन प्रारंभ हुआ। शासन चलाने के लिए केंद्र ने एक अफसर को भेज दिया। कुछ गवर्नर की शासनिक क्षमता को देखते हुए और समय का ध्यान रखते हुए यदि लायक शासक और राजनीतिज्ञों में से किसी को गड़बड़ी के समय उस काम को संभालने का भार दिया जाता तो इससे कहीं ज्यादा कार्य-कौशल प्रकट होता। विधायकों और मंत्रियों के शपथ-ग्रहण कराने का जहां तक संबंध है वह काम विधानसभा के अध्यक्ष और उच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश द्वारा भी हो सकता है। जहां तक अपने नाम के साथ अतीत संघ का संबंध है, यह बहुत खर्चीला, बेजरूरत धन का दिखावा होगा। राज्य को राज्य-परिषद, जो किसी खास काम के लिए नहीं है, के हटाए जाने से भी आय पर असर पड़ सकता है।

राजभवन के प्रीतभोज के संबंध में संकेत करने पर मेरे एक साथी ने इसे व्यावहारिकता बताया। इस मामले में व्यक्ति का व्यक्ति के रूप में या जन-नायक के रूप में नाम लेना या पद को बताना अभद्रता होगी। लेकिन जिस बात की अभी मैंने चर्चा की है वह सब वहीं होती है। हाल ही में ‘दि हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ ने एक आमंत्रित अतिथि के साथ हुई इसी सिलसिले में राजभवन की बात को प्रकाशित किया था।

‘अतिथि ने ऐसा कहा- मुझे मेरी जगह तक पगड़ीदार दो चपरासी ले गए।… … … मेरी नजर जब फिहरिश्त पर पड़ी तो मैंने उस सबको पढ़ा। वे साफ-साफ टाइप किए हुए थे। लिखा था- काॅली फ्लावर ओ ग्रेटिन (फूल गोभी और ग्रेटिन)।’ मैंने गवर्नर महोदय के तरफ मुंह किया और कहा- ‘बहुत दिन हुए, हम दोनों ने साथ ही बारदोली में बैठकर खाया था।’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘हां, मुझे भी याद है। तब से अब तक दुनिया में बहुत से अदल-बदल हुए हैं। बारदोली के दिन से अब तक हम लोग साथ ही आए हैं।’ अखबार वालों ने आलोचना की- हम इस निश्चय पर नहीं पहुंचे हैं कि राष्ट्रपिता बापू इसी सौंदर्य-विलास के लिए जिंदगी भर जूझते रहे जैसा कि स्वतंत्र भारत की प्रतिष्ठा-रक्षा के लिए स्वांग भरा जाता है।

मुझसे कहा गया कि मैं यदि ऐसे विषयों में ऐसा विचार रखता हूं तो मुझे आमंत्रण स्वीकार नहीं करना चाहिए। यदि मैं ऐसा नहीं करता तो यह जान कैसे पाता कि मेरे एक पुराने मित्र भारतीय भोज-काल में किस प्रकार अर्थहीन विदेशी अदाओं का पालन करते हैं। उस पर जन-जीवन में हमेशा काम करने वाले व्यक्ति के लिए यह संभव भी नहीं है कि वह अपने पुराने दिली दोस्तों और साथियों के आमंत्रण को अस्वीकार कर दे, वह भी ऐसी परिस्थिति में जबकि राजनीति में दोनों में विरोध हो। इतना तो अवश्य ही है कि मैं अधिक से अधिक मिले आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया करता हूं। किंतु कुछ पुराने मित्रों के आमंत्रणों को मैं उनके प्रति आदर-भाव प्रदर्शित करने के लिए और जनता के प्रतिनिधि के रूप में उच्च पद की प्रतिष्ठा का सम्मान करने के लिए स्वीकार करता हूं। चाहे राजनीति के क्षेत्र में उनमें-मुझमें जो भी विरोध हो किंतु अपने स्नेह और सम्मान में कोई विरोध का प्रश्न नहीं उठता।

मैं अपने आलोचकों को तमिल की कहावत सुनाता हूं जिसे राजा जी ने अपने मित्र वित्त मंत्री की आलोचना करते हुए कहा था। वह कहावत है- हंसी-खुशी के लिए हम मित्रता नहीं करते बल्कि कठोर और सत्य आलोचना के लिए भी मित्रता करते हैं और ऐसा दृढ़मत होकर किया जाना चाहिए। एक बार महात्मा गांधी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शिलान्यास के अवसर पर बहुत-से राजाओं-महाराजाओं के बीच आमंत्रित हुए। जब उन्हें कुछ बोलने को कहा गया, दूसरे विषय की चर्चा के साथ-साथ उन्होंने कुछ कठोर और तीखा सत्य भी कहा। उन्होंने राजाओं-महाराजाओं को संकेत करते हुए कहा, जबकि उनके राज्यों में असंख्य रियाया दाने-दाने को मुहताज हैं और उनके खून-पसीने की कमाई पर ही उनके हीरे, जवाहिरात, शान-शौकत और तड़क-भड़क निर्भर करते हैं, ऐसी दशा में इनसे इनकी शोभा नहीं बढ़ती। उस समय गांधीजी के इस विचार को कुछ बाहरी लोगों ने अप्रासंगिक और अव्यावहारिक कहा था; किंतु इतिहास ने इसकी सत्यता को दूसरी तरह से साबित किया।

प्रधानमंत्री ने मेरे उस वक्तव्य की आलोचना की जिसमें मैंने अमेरिकन ढंग की प्रयोगशाला की आलोचना की थी और उन्होंने यह कहकर मजाक किया कि मैं प्रोफेसर था और विज्ञान में मेरा ज्ञान बच्चों-सा है। यह सही है कि मैं इतना भी विज्ञान के विषय में नहीं जानता जितना आज का एक साधारण बच्चा जानता है। अगर मेरे घर में बत्ती खराब हो जाय तो इसे भी मैं ठीक नहीं कर सकता। लेकिन यदि मैं विज्ञान से अनभिज्ञ हूूं, तो इतिहास के विषय में कुछ जानता हूं जिसका मैं छात्र रहा हूं। इतिहास हमें उन विषम परिस्थितियों का ज्ञान कराता है जिसमें अतीत में हमारे वैज्ञानिकों ने विश्व-मानव-ज्ञान के लिए प्रारंभिक विज्ञान का विकास किया था। शायद ही उनके अनुसंधान बड़े-बड़े अकादमी और प्रयोगशालाओं में हुए थे। प्रायः बहुत से वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशालाएं अपने घर में ही बनाईं, यंत्र बनाए और खोज की, उन्हें काम के लायक बनाया। उनमें उन्होंने बड़े-बड़े प्रयोग किए। इसका यह अर्थ नहीं लिया जाय कि मैं वैज्ञानिकों को उसी पुरानी दिक्कतों भरी परिस्थितियों में देखना चाहता हूं और उन्हें उसी प्रकार बनाना चाहता हूं। इसका मेरी समझ में इतना ही अर्थ है कि ईंट, पत्थर, जीवों के आराम पर जरा कम ध्यान दिया जाय और जिनकी कमाई के वे रुपये हैं उन्हें ज्यादा से ज्यादा उसका फायदा हो। ऐसा नहीं प्रकट होना चाहिए कि हम लोग ऐसी अप्राकृतिक स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं जो हमें दुर्बल और क्षीण बनाने में सहायक है।

वैज्ञानिकों को विधायक या प्रशासनिक कामों में उलझना मेरी समझ से गलत और बर्बादी का रास्ता है। इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण काम उन्हें करना अभी बाकी है। यह दया का विषय है कि भारत में शासन-कार्य और राजनैतिक कामों की इज्जत दूसरे क्षेत्रों से ज्यादा है। नतीजा यही होता है कि ऊंचे श्रेणी के वैज्ञानिक भी शासक होना पसंद करते हैं। किंतु उस सरकार को जिसे वैज्ञानिकों की और उनके द्वारा किए जाने वाले वैज्ञानिक विकास की बहुत आवश्यकता है, चाहिए कि वैसे महान् व्यक्तियों के सामने कार्य-कारिणी और राजनीतिक पदों का लोभ नहीं रखे। ऐसा अवश्य होना चाहिए कि बिना किसी बाधा के वे अपनी प्रयोगशाला में बैठकर काम करें। वह स्थान राजनीति और साधारण जन के विज्ञापन से दूर रहे। यदि वे गुप्त रूप से लीन रहकर काम करना चाहते हैं तो उनकी प्रगति की रोशनी दिवाल फोड़कर वातावरण में फैल जाएगी। यदि कोई सच्चा महत्वपूर्ण काम उन्होंने किया है तो उसके लिए विज्ञापन करने की कोई आवश्यकता नहीं। उसकी स्वीकृति उन्हें स्वयं प्राप्त हो जाएगी।

प्रधानमंत्री महोदय ने लोकसभा में भाषण देते हएु कहा था कि विलायत और अमेरिका जैसे धनी देशों में हिंदुस्तान के बनिस्बत कम आमदनी वालों से भी आय कर लिया जाता है। संभव है यह सत्य हो, परंतु उन्हें सभा में यह साफ बताना चाहिए था कि वहां की जनता के स्तर में आयकर देने के बाद और भारतीय जनता के रहन-सहन में आयकर नहीं देने पर भी कितना अंतर है। यदि वे इसे सही ढंग से सभा के सामने रखते तो भारतीय जनता के सामने सही तस्वीर नजर आती।

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की सभा में प्रधानमंत्री जी ने अपनी मासिक वेतन के आय का हिसाब दिया। इसलिए राज्यों के मंत्री जो मासिक वेतन पाया करते हैं उनका हिसाब देना यहां असंगत नहीं होगा। वे बहुत से प्रांतों में 1200 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक पाते हैं। कुछ प्रदेशों में उनकी आय आयकर से मुक्त है। इसके अलावा वे राज्य के खर्च पर ही एक मोटरकार अपने काम के लिए पाते हैं। एक मंत्री के मोटरकार की कीमत कम से कम बीस हजार रुपये है। कोई भी मंत्री छोटी कार नहीं रखता। उसके पेट्रोल, टैक्स, भकठा बनाई, ड्राइवर का खर्च, सभी जनता के रुपये से ही होते हैं। इस प्रकार एक मोटर कार के पीछे 600 रुपये हरेक महीने में खर्च होते हैं। यह कम-से-कम रकम का ब्यौरा है।

अब उनके निवास स्थान की बात लीजिए। प्रत्येक मंत्री के दो बंगले होते हैं- एक राजधानी में और दूसरे किसी मनोरम पहाड़ी स्थान में। इन दोनों बंगलों का किराया एक हजार रुपये से कम नहीं, अक्सर ज्यादा ही हुआ करता है! बंगले को अच्छी दशा में रखने की जिम्मेवारी भी राज्य सरकार पर ही है। प्रत्येक बंगले के बाग की रखवाली के लिए दो माली की जरूरत समझी जाती है। इनका खर्च एक सौ पचहत्तर रुपये से कम नहीं। प्रत्येक बंगले में पुलिस-रक्षक के बावजूद दो चैकीदार रखे जाते हैं। और उसमें टेलीफोन, बिजली, पानी इत्यादि का खर्च भी सरकार को देना पड़ता है। इतना ही नहीं, जब कभी मंत्री महोदय भ्रमण में रहा करते हैं तो उन्हें भ्रमण और रोजाना भत्ते मिलते हैं। कुछ मंत्री तो हमेशा भ्रमण में ही रहा करते हैं। इन भत्तों में से भी कुछ लोग काफी बचा लिया करते हैं। इन सभी ऊपरी आमदनी में अधिक से अधिक खर्च कर देते हैं और फिर वे उसे बिना हिचक के प्राप्त भी कर लेते हैं। आर्थिक दृष्टिकोण से सोचने पर यह कहीं अच्छा होता कि ऊपरी आमदनी को समाप्त कर दिया जाए और प्रत्येक मंत्री को चार हजार रुपये वेतन मिले और सभी खर्च वे स्वयं चलाएं। तब वे पहाड़ी स्थल वाले रमणीक महल को नहीं रखेंगे जहां साल में केवल तीन महीना रहना होता है। वे समतल भूमि वाले मकान ही रखते। यदि उन्हें उसका पूरा किराया खुद अपने पैसे से चुकाना पड़े तो संभवतः वे पहाड़ी जगह का निवास त्याग देंगे। तब वे अपनी मोटरकार जरा कम शान से चलाएंगे और उसे अच्छी दशा में भी रख सकेंगे। तब न तो अपने बच्चों को उस मोटर पर स्कूल भेजेंगे और न बाजार करने के लिए ही मोटर काम में लाएंगे। टेलीफोन, बिजली और पानी का खर्च जरा कम फिजूलखर्ची से करेंगे। तब उन्हें दो माली और दो चैकीदार की जरूरत नहीं होगी। यह तरीका दोनों के लिए ठीक है। सरकार की आर्थिक स्थिति ठीक रहेगी और मंत्री ईमानदार और सादा होगा। इससे कर देने वाली जनता भी तो समझेगी कि उनके मंत्री, और संसद के विस्तार के पीछे उनके कितने रुपये खर्च होते हैं और उस पर उनका अपना विचार भी दृढ़ होगा।

अब कुछ प्रतिरक्षा पर बढ़े हुए खर्च के विषय में। प्रधानमंत्री जी ने कहा कि किसी भी परिस्थिति में देश की प्रतिरक्षा को खतरे में नहीं डाला जा सकता। सभी मूल्य पर देश की स्वतंत्रता की रक्षा होनी चाहिए। कोई भी आदमी जिसे अपने देश की आजादी से मुहब्बत है, प्रधानमंत्री जी के इस विचार से असहमत नहीं हो सकता। लेकिन एक बात सोचने की है, क्या सचमुच हम अपने देश को मजबूत करने की दिशा में ले जा रहे हैं? क्या ऐसा हम सैनिक खर्च अधिक बढ़ा कर आगे बढ़ रहे हैं? यह बढ़ा हुआ खर्च तभी सार्थ हो सकता है जबकि हम अपने शत्रुओं से अधिक आले दर्जे की सैनिक मशीन तैयार करें। चाहे मेरा अहिंसा पर निजी विचार जो हो, मुझे ऐसा कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि अगर दुश्मनों के होश ठिकाने करने के लिए अच्छी और आधुनिक सैनिक मशीनों का उत्पादन करना चाहें तो ऐसा जरूर करें। यदि ऐसा होता तो जो लोग गरीबी में रहकर अपनी जीविका चलाते हैं, अगर उन पर भी खास टैक्स लगाया जाता तो कोई क्षोभ नहीं होता। अहिंसा पर पूरा विश्वास रखने वाले स्वर्गीय गांधी जी हमेशा अपने साथियों से कहा करते थे कि यदि उन्हें अहिंसा पर भरोसा नहीं है और वे हिंसा द्वारा आजादी प्राप्त करना चाहते हैं, तो ऐसी दशा में वे अवश्य ऐसा करें। लेकिन उन्होंने विश्वास दिलाया कि अहिंसा का रास्ता ठीक और कारगर रास्ता है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि देश ने हिंसा का निर्णय ही कर लिया है तो मैं इस संघर्ष में भाग नहीं लूंगा और स्वराज्य मेरे सपने का स्वराज्य नहीं होगा। इसीलिए अगर हम अपने देश की रक्षा के लिए, अपने दुश्मन का विनाश करने के लिए बड़ी-बड़ी और नई सैनिक मशीनों का आविष्कार और उत्पादन कर सकें तो किसी भी कीमत पर वैसा करने में पीछे नहीं रहना चाहिए। यद्यपि मैं यह भी जानता हूं कि हमारे देश में भूखे लोग युद्ध-प्रवृत्त सैनिकों के लिए हथियार नहीं तैयार कर सकते। सबके बावजूद हमें यह भी देखना है कि आज की दुनिया वह नहीं कि केवल युद्ध-भूमि के स्थल सैनिकों से हम मैदान मर लें। यह सारी जन-आबादी, पुरुष और स्त्री ही हैं। यहां तक कि बूढ़े और बच्चे भी युद्ध-शक्ति को युद्ध-रेखा पर उभारते हैं। चाहे जो हो, मैं देखता हूं, अंतरराष्ट्रीय सेना का ध्यान रखते हुए हम कह सकते हैं कि ऊंचे और आले दर्जे की मशीन उन देशों के बनिस्बत बनाना कठिन है जो हमारे देश को युद्ध की धमकी दिया करते हैं। सैनिक खर्च बढ़ाकर हम केवल अपने धन को बर्बाद करने के सिवा और कुछ नहीं कर सकते। इससे अच्छा है कि इन रुपयों का खर्च योजनाओं को सफल बनाने में यिका जाए। यदि हम ऐसा करें तो भविष्य में हम बहुत कुछ सुरक्षित और समुन्नत हो जाएंगे जैसा कि आजकल सैनिक खर्च में लगाकर करते हैं। यह फुसफुसाहट सदा कानों में आती है कि हमारे शत्रु की वायु-सेना हमसे अधिक मजबूत है। यह भी स्वाभाविक है कि ऐसे देशों को दूसरे सर्वसम्पन्न समर्थ औद्योगिक और शक्तिशाली देशों से काफी सहायता मिलती है। इसलिए हमें इनसे बहुत थोड़ा फायदा है जो अपने को हमारा शत्रु ही मानते रहे हैं। एक कहावत है-:ःकुत्ता भी खाया, पेट भी नहीं भरा;’ उससे क्या नफा?

हमें अपने देश के लोगों के नैतिक गुण, उनकी देश-भक्ति, एकता की भावना, साहस और त्याग, तकलीफ सहने की क्षमता आदि जितने गुण हैं, उन पर विश्वास करना चाहिए। उनके सहयोग के बिना आले से आले दर्जे के सैनिक हथियार हमारी मदद नहीं कर सकते। जिन नैतिक गुणों का ऊपर मैंने जिक्र किया है, वे स्वस्थ और सुसंस्कृत जीवन, आवश्यक जरूरियात की पूर्ति से प्राप्त हो सकते हैं और उनको शोषण से मुक्त सामाजिक रचना के आधार पर शक्तिसम्पन्न बनाया जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि जब हम लोग इतनी बड़ी शक्ति और समृद्ध विलायती साम्राज्यवादी सरकार से जूझ रहे थे, आजादी के लिए लड़ रहे थे तब हमारा आधार नैतिक और आध्यात्मिक बल था, न कि भौतिक साधन, सैनिक शस्त्रास्त्र का बल। ऐसा करने में हमें आधुनिक युग के महापुरुष, महर्षि, सुधारक, देशभक्त और समर्थ लेखकों से प्रेरणा मिली थी, जैसे- राममोहन राय, दयानन्द, केशवचंद्र, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, कवीन्द्र रवीन्द्र, महादेव गोविंद रानाडे, तिलक, गोखले, लाजपत राय, चितरंजनदास, मोतीलाल और भी अनगिनत गांधी जी में पूर्ण आस्था रखकर, उनकी अहिंसा, असहयोग और सत्याग्रह के सिद्धांत को अपना कर चलने वाले महापुरुष। यह कम आश्चर्य का विषय नहीं है कि जब हम गिरे हुए थे और हमारी कोई पूछ नहीं थी, तब हमने अपूर्व साहस और निर्भीकता का प्रदर्शन किया और आज जबकि हम स्वाधीन और अपने भाग्य के विधाता हैं तब ऐसा नहीं कर रहे हैं। हमारे वे लोग, जिनके पास न सबल सैनिक शक्ति थी, न भौतिक साधन था, उनके लिए यह बड़ा कठिन था कि वे उन पर विश्वास करते, उनके लिए खोई हुई आजादी को लौटाना कितना महंगा था। ऐसी स्थिति में वे अपने को कभी भी आजाद नहीं कर पाते। वे अपने नैतिक-आध्यात्मिक बल और न्याय पर विश्वास करते रहे। कभी वे हारते हुए भी नजर आते, पर मैदान मार लिया करते थे। हमारे प्रधानमंत्री जी भी उन्हीं पुराने देशभक्तों की कोटि में एक महान् व्यक्ति हैं। आज हममें से कुछ हैं जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में तहेदिल से साथ दिया और आजादी की बलि-वेदी पर सबकुछ होम कर दिया। आज वे हमारे रुख को देखकर यद्यपि कुछ चिंतित हैं, फिर भी वे हमारे साथ हैं। जिन्हें श्रद्धा, आदर और स्नेह से आज हम राष्ट्रपिता कहते हैं, यदि उनके प्रति वफादार रहें तो चाहे सैनिक रहें या नहीं, अपने देश की आजादी, इसकी इज्जत और सम्मान को किसी भी मूल्य पर बचाकर ही रखेंगे। यह असंभव भले लगे लेकिन स्वराज्य भी तो बहुत शंकालु लोगों को ऐसा ही लगता था। जब मैं बजट (आय-व्यय की वार्षिक लेखा) पर बोला, मैंने केंद्र में होने वाले अपव्यय का नमूना पेश किया था। प्रधानमंत्री, श्री नेहरू ने स्वयं ही नई दिल्ली को ‘आफिसों का जंगल’ कहा है। युद्ध-काल में महल-निर्माण कार्य कई गुना बढ़ा दिया गया था। स्वराज्य-प्राप्ति के बाद अपनी सरकार ने विदेशियों के आलीशान महलों को ले लिया और सरकारी काम के लिए आफिस बना दिया। फिर भी आजादी के दस वर्ष बीत जाने पर भी दिल्ली में महल-निर्माण की दिशा में कोई कमी नहीं मालूम पड़ती। जिन लोगों ने कीमती योजना बना रखी है वे किसी प्रकार इस कार्य को चला रहे हैं। पश्चिमी जर्मनी में युद्ध के बाद देश के लोग झोपड़ी में रहने लगे। वहां के दफ्तरों का इंतजाम भी, उन्हीं झोपड़ियों में किया। वहां जितने बड़े-बड़े महल थे उन्हें मिल और छोटे-छोटे कारखाने के काम में लाया गया। हमारी दिल्ली में सचिवालय के प्रत्येक कमरे के लिए 5,000 रुपये के खर्च होने का अनुमान किया गया है। सभी दफ्तरों को ऐसा बनाया जा रहा है जिनमें गर्मी और धूप का प्रभाव नहीं पड़ेगा। जब कभी कोई स्कीम या योजना बनाई जाती है तो उसमें आलीशान बंगलों का काम सबसे पहले लिया जाता है, उसमें वातानुकूल आराम और सभी प्रकार की सुविधा का विचार सबसे पहले किया जाता है।

प्रदेशों का भी यही हाल है। खुद वित्तमंत्री महोदय ने गांवों और शहरों को देखते हुए बहुत क्षोभ प्रकट किया था। उन्होंने कहा था कि वह समाज जो … अपने को सभ्य कहने का दावा करे, उसके लिए शर्म की बात है। उस पर भी विलासपूर्ण और अधिक खर्चीले दफ्तरों और राजधानियों के लिए बहुत से राज्यों में अंधाधुंध खर्च किया जाता है। आज की भवन-निर्माण कला में चंडीगढ़ सचमुच एक निराली शमा दिखाता है। वहां राज्यपाल के महल बनवाने में चालीस लाख रुपये लगने का अंदाज किया गया है। पेप्सू के विलयन के बाद विधानसभा उपयुक्त नहीं समझी जाती है। नई विधानसभा अड़सठ लाख के खर्च से बनेगी। वहां बानबे लाख रुपये में एक नकली झील भी बनवाई गई है। पंजाब विधानसभा में एक प्रश्न के उत्तर में बताया गया कि फ्रांसीसी भवन-निर्माण-कलाकार को क्रमशः नौ लाख और ढाई लाख रुपये मिलते हैं।

मध्य प्रदेश की गर्मी की राजधानी पंचमढ़ी में एक होस्टल बनवाने में बारह लाख रुपये खर्च किए जा रहे हैं। वहां दूसरा होस्टल भी अभी बन रहा है। बिहार में रांची में दस लाख रुपये खर्च होते हैं। साथ ही अफसरों का भी इंतजाम किया जाता है। वहां एक सरकिट हाउस है ही, फिर भी दूसरे के लिए योजना बन गई है। दूसरे राज्यों में भी गर्मी के दिनों में पहाड़ी स्थलों में जाकर विलासमय जीवन बिताने की प्रथा प्रचलित है। आजादी के पहले इसी की आलोचना की जाती थी। वे विदेशी शासक भारत की गर्मी सहने में समर्थ नहीं थे, उनकी भी हम आलोचना करते थे। लेकिन उसी का उपयोग अब हमारे भारतीय नेताओं द्वारा अपने परिवार और बंधु-बांधवों के साथ बड़े औज-मौज और आमोद-प्रमोद के साथ हो रहा है। अंग्रेजी राज के जमाने में केवल वाइसराय, उनके कमांडर और गवर्नर ही मोटर के अंदर पहाड़ी रम्यस्थली में भ्रमण किया करते थे। लेकिन आजादी के बाद अब मिनिस्टर, उनके सचिव और बड़े अफसरान बिल्कुल लापरवाही से मौज में पहाड़ी रम्यस्थली की सैर किया करते हैं जबकि वहां की सड़कें असुविधा, परेशानी और घुमावों के खतरों से भरी हुई हैं। उनके सहायक भी इस प्रमुदित भ्रमण में कम मजा नहीं लेते हैं।

कार्य कुशलता के भी कुछ उदाहरण यहां मौजूद हैं। आसाम में 1957 के 31 मार्च को सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा 47.10 करोड़ बजट के रुपये में 13.47 करोड़ रुपये सरकार को लौटा दिए गए क्योंकि उनका खर्च नहीं हो सका। अक्सर इस प्रकार अधिक बजट बनाए जाते हैं जिसमें घाटा होने की हमेशा संभावना दिखाई जाती है। इसके विषय में ही प्रधानमंत्री जी ने शिकायत पेश की थी। गत वर्ष की योजना के खर्च में थोड़ी गिरावट हो गई है। अंदाज है कि आठ प्रतिशत का हिसाब होगा। ऐसा देखा जाता है कि साल के आखिरी महीना, मार्च में अधिकाधिक योजना के रुपये खर्च हो जाया करते हैं। इतनी जल्दीबाजी का खर्च केवल बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं है। 1956 ई. में पंजाब की जांच की रिपोर्ट ने इस रहस्य को प्रकट किया कि जनता को अनाज भेजने की स्कीम बनी थी जिसका उद्देश्य था ‘न नफा न घाटा’। उसमें वास्तविक रूप में 18,84,318 (अट्ठारह लाख चैरासी हजार तीन सौ अट्ठारह) रुपये का घाटा 1956-55 में दिखाया गया। घाटा दाम में गिरावट होने तथा अनाज के स्टाॅक के समय पर खपत नहीं करने के कारण, अन्न के खराब होने से बताया गया था।

इससे प्रसन्नता होती है कि जनता के हल्ला करने पर शासन में होने वाले भ्रष्टाचारों को स्वीकार कर लिया जाता है। लेकिन जिस सीमा तक या सतह तक यह भ्रष्टाचार पहुंच गया है, उस हद तक स्वीकार नहीं किया गया है। यह सामान्य विश्वास है कि ज्यादातर ऊपर स्तर के अफसरों की अनियमितता को ढूंढ़ा नहीं जाता और वह अनियमितता यदि पकड़ में आ भी गई तो उस पर कोई कार्रवाई शायद ही हुआ करती है। क्या ऐसा इसलिए होता है कि ऊंचे पद वाले अफसरों का राजनीतिक-पुरुषों से पारिवारिक संबंध रहा करता है? भारत में प्रायः ऐसा देखा जाता है कि नैतिकता और देशभक्ति के क्षेत्र में पारिवारिक सामथ्र्य उस पर अधिकार जमा लेती है। जब कभी कोई कार्य-कुशलता, मितव्यय और ईमानदारी की कमी की शिकायत करता है तो बराबर यही कहा जाता है कि कार्य-कुशलता, कम खर्च और ईमानदारी सचमुच बहुत ही अच्छी चीजें हैं और उनका रहना बहुत जरूरी है। लेकिन प्रमुख विषय तो यह है कि काम सुचारु रूप से चले। वर्तमान में हमारे सामने एक ही समस्या है- पंचवर्षीय योजना को कैसे सफल बनाया जाए। प्रश्न है क्या यह योजना सफल होगी, यदि ये कमजोरियां दूर नहीं होतीं! चाहे महल बनाने के लिए कितनी ही सुंदर योजना बने, किंतु इंजीनियर, ओवरसियर इत्यादि जिनके मातहत इन्हें बनना है, अगर ईमानदार नहीं हों, कार्य-कुशल नहीं हों और मजदूर लोग समय-समय पर हड़ताल कर दिया करते हों, ऐसी स्थिति में किसी तरह उस महल का निर्माण हुआ तो वह धराशयी हो जाएगा।

जैसा कि हम जीवन के दूूसरे क्षेत्र में देखते हैं साधन से साध्य की सिद्धि होती है। शासन ही साधन है। यह उच्च यांत्रिक शक्तियों और बड़ी-बड़ी सुनियोजित योजनाओं को कार्यान्वित करने में असमर्थ है। विदेशी शासनकाल में जिस शासनिक-कार्य का प्रशिक्षण उन्हें मिला, उसे चलाने में हमारी वर्तमान सरकार असफल रही। हमारी सरकार ने कार्यक्रम निर्धारित करने में कुछ सफलता भी पाई है लेकिन मनुष्य के आगे बढ़ने और अपनी शक्ति द्वारा खींच कर आगे बढ़ाने वाली क्षमता का विनाश किया है। जब देश में वित्तीय तबाही होगी ऐसी परिस्थिति में औद्योगिक क्षेत्र में पिछड़ा होने के कारण उसके भार को वह कैसे सहन कर सकेगा? हम लोगों ने आजादी के पहले ही इन शंकाओं को स्पष्ट किया था। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसा लगा कि यह सब जादू-मंतर से छूने जैसा हो गया है। प्रत्येक संस्था या आदमी, उसका अतीत चाहे जो भी था, अब ईमानदार, शरीफ और कर्मशील देशभक्त बन गया है।

हमेशा यह कहा जाता है कि जनता के सहयोग के बिना कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती। जनता को सहयोग करने की सलाह देना मानो अचरज का काम है जबकि वे जानते हैं कि जनता के काम करने वाले लोग अधिक से अधिक कार्य में निपुण नहीं हैं। वे स्वार्थी तो हैं ही, साथ ही कुछ हद तक भ्रष्टाचारी भी हैं। वे घमंडी और झूठे भी हैं। वे केवल इतना ही जानते हैं कि दूसरों को हुक्म कैसे देना चाहिए। हमारी सरकार के नेताओं द्वारा अक्सर भाषण में यह कहा जाता है कि हमारे अफसरों को समझना चाहिए कि वे जनतंत्र के युग में रहते हैं, काम करते हैं। उन्हें मिलनसार, व्यावहारिक और विचारशील होना चाहिए। आज की जनता, कम-से-कम सिद्धांत में उनकी रियाया नहीं, मालिक है।

सहयोग उन लोगों से प्राप्त हो सकता है जो खुश हैं, संतुष्ट हैं और उत्साह से भरे हुए हैं। जो असंतुष्ट हैं, निरुत्साह हैं, उन्हें केवल किसी प्रकार सहयोग नहीं। जहां प्रत्यक्ष असंतोष नहीं है वहां योजना जबर्दस्ती मजदूरी पर सफल हुई है। आजकल की यह जबर्दस्ती मजदूरी क्या है? यह स्वतंत्र ट्रेड यूनियन द्वारा संगठित मजदूरों की एक संस्था है। उन सभी कम्युनिस्ट देशों में जहां नियोजित मितव्यय की योजना बई गई है, उन्होंने जनता की तरफ से बड़े-बड़े उद्योगों के विकास के लिए त्याग की मांग की। वहां स्वतंत्र मजदूरों के ऐसे ट्रेड-युनियनों को विघटित कर दिया गया। वहां केवल उच्च पदीय श्रम संघ को मान्यता दी गई है। जबर्दस्ती बेबस मजदूरों की मजदूूरी से पिरामिड और चीन की दीवार भी बनाई जा सकती हैं। किंतु कोई भी इस बेबस जबर्दस्ती मजदूरी से जनतांत्रिक योजनाओं को सफल नहीं बना सकता। जनतंत्र में स्वतंत्र सहयोग जनता का प्राप्त हो सकता है। जिन्हें अपने ऊपर शासन करने वाले पर पूरा भरोसा है और जो दिखा सकते हैं कि वे जनता के शासन करने वाले पर पूरा भरोसा है और जो दिखा सकते हैं कि वे जनता के साथ त्याग और देश की जनता की भलाई में एक हैं- जनता उनका साथ देने को सहर्ष तैयार है। यदि जनता को यह आशंका हो जाय कि उनकी देश-सेवा का शोषण और उनके हित का गला घोंटा जा रहा है तो वे कभी भी अपना सहयोग नहीं दे सकते। उन्हें किसी प्रोपगंडा के फेरे में डालकर या किसी जनप्रिय चालबाज नेता के चक्कर में रखकर किसी तरह से काम करने के लिए लाया जा सकता है, लेकिन इससे देश आगे नहीं बढ़ सकता। फिर यह धोखा बहुत दिनों तक चल भी नहीं सकता। जब जनसाधारण मायाजाल से मुक्त हो जाता है तब वह अपने नेता में विश्वास नहीं पाता, जिसमें देश में तूफान लाने की क्षमता है। यही असल समय आ गया है जबकि नीचे के स्तर पर ऊपर उठाने का जोखिम भरा काम अपने हाथ में लिया जाए।

यह समझना अब आसान है कि हमारी सरकार बजट बनाने में सफल नहीं हुई जनता अपने सहज ज्ञान और अनुभव से समझ रही है कि जब वस्तुओं के मूल्य चढ़ाव पर आते हैं वैसे समय में जो रुपये उससे दबाकर लिए जाते हैं, कोई फायदा नहीं होता। उसके सामने सभी वस्तुओं से संपन्न सुख-राज की गुलाबी तसवीर रखने से कोई फायदा नहीं। वे बड़े-बड़े भारतीय सम्मिलित परिवार में रहते-रहते अपनी संतान के लाभ के लिए अपने त्याग के मूल्य को अच्छी तरह समझ गए हैं। वे इसके लिए काम भी करते हैं। लेकिन साथ ही वे भलीभांति यह भी जानते हैं कि त्याग की भी एक सीमा होती है जिससे आगे वे अपनी भावी संतान के लिए नहीं सोच सकते। उन्हें वर्तमान में अपनी कठिन समस्याओं का सामना करना है और वे प्रतिदिन ऐसा करते भी हैं।

गत चुनाव के समय जितने अधिक वोट कांग्रेस को मिले उसे देखते हुए श्री नेहरू के अत्यधिक जनप्रिय होने में कोई शक नहीं। लेकिन संसद में जब टैक्स लगाने का प्रस्ताव आया तो बहुत थोड़े ही ऐसे सदस्य थे जिन्होंने इसके पक्ष में अपना समर्थन दिया था। वे न तो अपनी संस्था की। भक्ति चाहते थे और न अपने नेता के सामने नम्रतावश कुछ कहना ही चाहते थे। लेकिन वे अपने देश की भावना को भलीभांति समझते थे। यदि नए करों के लगाने का अर्थ योजना की सफलता है और योजना राष्ट्रीय योजना है तो क्या सरकार संसद में स्वतंत्र वोट के पक्ष में है और जो उसका परिणाम होगा उसे बरदाश्त करने को तैयार है! यदि यह निश्चित है कि यह योजना असफल होगी, तब तो जनता को तबाह करना है और गलत ढंग से उन्हें लटना ही है। आप खच्चर को तालाब में ले जा सकते हैं लेकिन उसे आप पानी पीने को बाध्य नहीं कर सकते।

श्री नेहरू कहते हैं कि ईमानदारी, मितव्ययी होना आदि अच्छी चीजें हैं और उन्हें अवश्य ही रहना चाहिए ‘लेकिन वे योजना में आर्थिक सहायता नहीं कर सकतीं। यह पूरा सत्य है। इसके लिए उन्हें मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार करना चाहिए जिसमें साधारण जनता तहेदिल से उनका साथ दे और उनके बोझ को हंसी-खुशी से सह ले। क्या वर्तमान काल में करारोपण ने उस वातावरण को उपस्थित कर दिया है! मुझे भय है, उन्होंने विपरीत वातावरण ही उपस्थित करि दिया है। सबकुछ के बाद भी नए करों के लगाने से योजना में आर्थिक मदद नहीं मिलती। मान लिया जाए कि जनता से जबर्दस्ती अप्रिय करों द्वारा रुपये वसूूलने के बजाय यदि मितव्यय, ईमानदारी और कार्यक्षमता, ऊंचे स्तर वाले पद पर रहने वाले अफसरों में थोड़ी कटौती की जाय तो मेरा निश्चित मत हे कि जरूरत के मुताबिक रुपये ही नहीं, बहुत बड़ी सद्भावना भी प्राप्त होगी। आज की दबाव की नीति से यह कांग्रेस सरकार के लिए अच्छा होता और जनसाधारण के लिए भी यह अच्छा होता। पांच वर्षों में एक बार काम करना और इसके बीच में अधिकारियों का मनमौजी करना, कोई जनतंत्र नहीं है। जनतंत्र जीवन प्रगति का एक रास्ता है और इस दिशा में बराबर काम करते जाना है।

हमारे देश की सामान्य जनता की प्रार्थना को स्वीकार करने का अभी भी समय है, ये लोग स्वभाव के बड़े नम्र हैं और अपनी मांगों को सरकार के सामने रखने में अनजान हैं। वे किसी सरकारी छोटे-बड़े अफसर के पास ‘हुजूर’ और ‘सरकार’ कहकर पहुंचते हैं। हमारे देश के ये गरीब लोग जो सदियों से सताए हुए हैं आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं। हमें चाहिए, हम उन्हें सही रास्ता दिखाएं, वे बड़ी तत्परता से हमारी मदद करेंगे जैसा कि उन्होंने आजादी की लड़ाई के दिनों में की है। उन दिनों उनको हमसे कोई द्वेष नहीं था। वे भी उसी जेल की ‘सी’ श्रेणी में रहा करते थे जिसमें उनके नेता ‘ए’ श्रेणी में रहा करते थे। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ कि वे अच्छी तरह जानते थे कि हम लोग उनके साथ ही देश की बहुत बड़ी समस्या लेकर तकलीफ सह रहे थे। वे आज भी हमसे बड़े-बड़े त्याग नहीं चाहते हैं। वे कुछ प्रतीक चाहते हैं। त्याग की दिशा में हमारी तत्परता देखना चाहते हैं। वे यह नहीं चाहते कि जिस सीमा तक उनके दिल की गहराई में त्याग की भावना है वह हममें भी रहे।

मैं इतना ज्यादा लिखने के लिए क्षमा नहीं मांगना चाहता। न्याय की दृष्टि से जनता का एक साधारण कार्यकर्ता होने के नाते जिसकी मैंने आजीवन सेवा की है, मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने विचारों को विस्तारपूर्वक उसके सामने रख दूं। संभव है वर्तमान परिस्थिति का मेरा विश्लेषण गलत भी हो! मेरे लिए उससे ज्यादा गलत होता यदि मैं जनता का एक कार्यकर्ता होने के नाते प्रस्तावों पर जो उचित समझता, नहीं बोलता- जिनका संबंध वर्तमान और भविष्य दोनों से है और जो जन-जीवन को प्रभावित करने वाले हैं। ऐसे प्रश्नों पर मेरा चुप रह जाना कितना गलत होता! इन्हीं सब कारणों से मैंने आपके सामने अपने विचारों को रखा है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *