लोकतंत्र और मीडिया के रिश्‍तों की पड़ताल

आधुनिक लोकतंत्र और संचार माध्‍यमों के बीच परस्‍पर सहयोग और टकराव का इतिहास यह सिद्ध करता है कि अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता अर्थात बोलने और लिखने की आजादी आधुनिक लोकतंत्र की सबसे महत्‍वपूर्ण उपलब्धि है। मानवीय गरिमा के रूप में इसे मौलिक मानवाधिकार भी माना गया है। केवल संविधान और कानून में इस स्‍वतंत्रता का उल्‍लेख होना व्‍यवहार और आचरण में भी इसकी मौजूदगी की गारंटी नहीं होती। वैश्विक परिदृश्‍य में मीडिया के संघर्ष और विकास का इतिहास साक्षी है कि सत्‍ताधीशों, राजनेताओं और आर्थिक शक्तियों से निरन्‍तर टकराव और बलिदान देकर मीडिया ने अपनी स्‍वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा की है। राजशाही और चर्च की धार्मिक सत्‍ता के विरूद्ध लोकतंत्र, लोक कल्‍याण का संकल्‍प लेकर सामाजिक उत्‍तरदायित्‍व के रूप में विकसित हुआ था।
अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों से एक ओर समाजवाद का सिद्धांत लोकप्रिय हुआ वहीं दूसरी ओर उदारवादी राजनीतिक और सामाजिक बुद्धिजीवियों जिनमें जानस्‍टुअर्ट मिल और अमेरिका की आजादी के बड़े कर्णधार थामस जैफर्सन जैसे लोगों ने नागरिक स्‍वतंत्रता और मीडिया को सामाजिक परिवर्तन का माध्‍यम बनाने की बहस का आगाज कर दिया था। इसी दौर में भारत सहित एशिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के अनेक देश शताब्दियों तक योरोपीय देशों के उपनिवेशवाद की गुलामी से संघर्ष करते हुए अपनी ध्‍वस्‍त और कुचली जा रही राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्‍कृतिक परम्‍पराओं की रक्षा करते हुए स्‍वाधीन होने की कोशिश कर रहे थे। योरोप में सामाजिक चेतना के उभार के साथ राजशाही और सामंती, चर्च और संसद से संघर्ष और सहयोग करते हुए मीडिया एक प्रभावशाली सामाजिक ताकत के रूप में स्‍थापित हो गई थी। इसका विकास और विस्‍तार उन देशों में भी हुआ जो उपनिवेशवादी सत्‍ताओं से संघर्ष कर रहे थे। भारत में उन दिनों न तो राजनीतिक स्‍वाधीनता थी और न अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता। पूरा देश दमनकारी कानूनों से कुचला जा रहा था। लोकतंत्र और मीडिया के अंतरसंबंधों पर गंभीर बहस प्रथम विश्‍वयुद्ध के साथ 1917 में रूस में बोल्‍शेविक क्रांति के साथ शुरू हुई।
रूसी क्रांति के जनक लेनिन और स्‍टालिन मानते थे कि जनमत को सरकार के पक्ष में रखने के लिए मीडिया सबसे बड़ा हथ‍ियार है और उसे राज्‍य के साथ मिलकर समाज की सेवा करनी चाहिए। लेनिन के नेतृत्‍व में सत्‍तापरिवर्तन की इस परिघटना और बाद में संयुक्‍त सोवियत समाजवादी गणराज्‍य की स्‍थापना सर्वसत्‍तावादी राजनीतिक दर्शन और 1991 में सोवियत संघ के विखंडन तक का इतिहास गवाह है कि मीडिया को पालतू बनाकर जनआक्रोश को दबाने की कोशिश न केवल भय और आतंक को जन्‍म देती है बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के सपनों को भी तोड़ देती है जो लोकतंत्र से न्‍यायपूर्ण सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा रखते हैं। साथ ही अमेरिकी राजनीति के विद्वान फ्रांसिस फुकुयामा जैसे लोगों को निराश होकर ‘ऐंड ऑफ हिस्‍ट्री’ जैसी किताब लिखने को प्रेरित करती है।
द्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद अर्थात भारत की विभाजित राजनीतिक स्‍वाधीनता के साथ ही 1947 में ब्रिटेन में गठित ‘रायल कमीशन’ ने पहली बार ‘प्रेस कॉन्सिल’ गठित करने की सिफारिश करते हुए कहा था कि मी‍डिया को किसी बाहरी नियंत्रण की जगह स्‍वनियमन का अधिकार होना चाहिए। उसपर निगरानी रखने का काम प्रेस कौंसिल करेगी। उसी वर्ष अमेरिका में ‘हचिस कमीशन’ बनाया गया जिसे ‘कमीशन ऑन फ्रीडम ऑफ प्रेस’ भी कहा जाता है। एक ओर जब विश्‍व में राजनीतिक और आर्थिक मानचित्र का संतुलन बदल रहा था, आर्थिक और सामरिक महाशक्ति के रूप में अमरीका सामने आ चुका था, उन्‍हीं दिनों विज्ञान, तकनीक और पूंजी के सहारे विकसित संचार साधनों ने औद्योगिक क्रांति को जन्‍म देकर लोकतंत्र और मीडिया के संपूर्ण चरित्र को बदल दिया था। लोक कल्‍याण और सामाजिक न्‍याय का वादा करने वाले देशों ने गुणवत्‍ता के स्‍थान पर विलासिता की संस्‍कृति अपना लिया।
1980 में राष्‍ट्रसंघ की सहयोगी संस्‍था यूनेस्‍को के प्रयास से गठित ‘मैक्‍ब्राइड आयोग’ ने लोकतंत्र की रक्षा में संचार और सत्‍ता तथा संचार और स्‍वतंत्रता की भूमिका की विस्‍तृत चर्चा की है। उसमें सूचना के तंत्र की विशालशक्ति और नागरिकों के जीवन को प्रभावित करने वाली ताकत मानते हुए यह स्‍वीकार किया गया कि संचार और सत्‍ता के बीच के संबंध राजनीतिक और बेहद महत्‍वपूर्ण हो गया है। सत्‍ताधारी राजनेताओं की बढ़ती महत्‍वाकांक्षाएं और सामान्‍य जनता के हितों के बीच टकराव की स्थितियां जटिल होने लगी। स्‍वाधीन भारत के संविधान लोकतंत्र और मीडिया का जो मॉडल हमने अपनाया है वह मुख्‍यत: व्रिटेन और अमेरिका की व्‍यवस्‍थाओं की लगभग अनुकृति है। संविधान और भारतीय लोकतंत्र में लोकमान्‍य तिलक, महात्‍मा गांधी और स्‍वाधीनता संग्राम के अनेक नेताओं और परम्‍परागत भारतीय समाज और संस्‍कृति की झलक नहीं मिलती। गांधी के सर्वोदय, ग्राम स्‍वराज, अंतिमजन या स्‍वदेशी की चिन्‍ता कहां है आधुनिक भारत के लोकतंत्र में?
14 अगस्‍त 1947 की आधी रात को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में ‘नियति से साक्षात्‍कार’ वाले ऐतिहासिक भाषण में जिस भव्‍य भारत के निर्माण का वादा किया था वह कितना पूरा हुआ है? सात दशक बाद आज भारतीय लोकतंत्र और मीडिया लोक कल्‍याण और सामाजिक उत्‍तरदायित्‍व की कसौटी पर कितनी खरी उतरी है? देश का बुद्धिजीवी भय, असंतोष, असुरक्षा और अनैतिकता के विरूद्ध संघर्ष के लिए कितनी मजबूती से खड़ा हुआ है? अपनी महत्‍वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वह कोई भी समझौता करने के लिए तैयार क्‍यों हो जाता है? स्‍वाधीनता संग्राम के दौर के महापुरुषों के आदर्श और जीवन मूल्‍य कहां चले गये? आपातकाल लागू होने पर संघर्ष करने के स्‍थान पर समर्पण क्‍यों कर दिया था समाज ने? संविधान, लोकतंत्र और मीडिया की संस्‍थाएं कहां है? आज के भारतीय लोकतंत्र के सामने राष्‍ट्र निर्माण की यह सबसे बड़ी चुनौती है।
युवा अध्‍यापक और मीडिया अध्‍येता मनीषचन्‍द्र शुक्‍ल द्वारा संपादित पुस्‍तक ‘मीडिया और लोकतंत्र की बदलती चुनौतियां’ सामयिक और विचारोतेजक संवाद के रूप में सामने आई है। इसमें ऐसे अनेक प्रश्‍न उठाये गये हैं जिनके उत्‍तरों से बौद्धिक वर्ग कतरा रहा है। राजनीति और मीडिया के निरन्‍तर बदलते अन्‍तरसंबंधों के साथ साहित्‍य, समाजशास्‍त्र, अर्थव्‍यवस्‍था, संस्‍कृति, चुनाव सुधार और जन आन्‍दोलन जैसे महत्‍वपूर्ण प्रश्‍नों पर देश के वरिष्‍ठ संपादकों, इतिहासकारों, स्‍तम्‍भकारों, राजनेताओं, विचारशील प्राध्‍यापकों सक्रिय आन्‍दोलनकर्त्‍ताओं और पूर्व चुनाव आयुक्‍त जैसे लोगों के विचार और चिन्‍ताओं को इसमें शामिल किया गया है। साक्षात्‍कार साहित्‍य की एक प्राचीन विधा है जिसके द्वारा प्रश्‍नोत्‍तर शैली में सम्‍वाद होता है। मनीषचन्‍द्र शुक्‍ल ने जिन विद्वानों के विचारों को पुस्‍तक में जोड़ा है उनमें अधिकतर ऐसे संपादक और स्‍तम्‍भकार हैं जिन्‍होंने स्‍वाधीन भारत की हिन्‍दी पत्रकारिता में पिछले चार दशकों में सक्रिय और निर्णायक भूमिका निभाई है। मीडिया मालिकों के मजबूत और प्रभावी होते राजनीतिक रिश्‍तों, प्रशासनिक दबावों और फैलते आर्थिक साम्राज्‍य को देखा और महसूस किया है। संपादक की संस्‍था का अवमूल्‍यन और उनके स्‍थान पर मनोरंजन और विज्ञापन के बढ़ते वर्चस्‍व को सहा है। प्रिंट मीडिया, इलेक्‍ट्रानिक और अब सोशल मीडिया, कॉरपोरेट मीडिया और मनोरंजन मीडिया के फैलते साम्राज्‍य के सामने आज वे मौन है।
साक्षात्‍कार देने वालों में स्‍वाधीता संग्राम की पत्रकारिता के यशस्‍वी शोधकर्ता इतिहासकार और निबंधकार श्री कृष्‍ण विहारी मिश्र से लेकर आज की सोशल मीडिया के विशेषज्ञ बालेन्‍दु दाधीच तक शामिल है। इनसे मीडिया और लोकतंत्र की मिशन से व्‍यवसाय तक की यात्रा का पता चलता है। पुस्‍तक में ऐसे विद्वानों, लेखकों और सम्‍पादकों के साक्षात्‍कार भी है जिन्‍होंने आपातकाल के दौर का संसदीय लोकतंत्र और मीडिया की दशा का अवलोकन भी किया और भुक्‍तभोगी भी रहे हैं। इनमें तीन ऐसे विद्वान भी शामिल हैं जो पुस्‍तक के प्रकाशन की अधीरता से प्रतीक्षा करते हुए आज दिवंगत हो चुके हैं। इनमें प्रमुख पर्यावरणविद गांधीवादी अनुपम मिश्र, लेखक-संपादक राजकिशोर और साहित्‍य के विद्वान आलोचक और स्‍तम्‍भकार कृष्‍णदत्‍त पालीवाल भी है। राजनीति के चिन्‍तक होते हुए भी सत्‍ता की राजनीति से दूर नेता के.एन. गोविन्‍दाचार्य, अतुलकुमार अंजान और डी.पी. त्रिपाठी जैसे नेता यह स्‍वीकार करते हैं कि राजनीतिक दलों, नेताओं और मीडिया की गिरती विश्‍वसनीयता का भारी नुकसान लोकतंत्र को हो रहा है। प्रो. पुष्‍पेश पंत केवल मीडिया की गिरती हुई छवि से सहमत नहीं है। उनकी राय में सामाजिक जीवन का पाखंड, दोहरा मापदण्‍ड और बेईमानी से भी विश्‍वनीयता गिरी है। समाजशास्‍त्री प्रो. आनन्‍द कुमार मानते हैं कि राष्‍ट्रीय नवनिर्माण में बुद्धिजीवियों में साहस और खुलकर लिखने और बोलने का साहस घटता जा रहा है। बुद्धिजीवियों और समाज के बीच सार्थक संवाद समाप्‍त होने के कारण उनकी विश्‍वनीयता, जनभागीदारी और मीडिया का प्रभाव दोनों घटता जा रहा है।
मुद्रित मीडिया और बाद में इलेक्‍ट्रानिक मीडिया से लम्‍बे समय तक सीधे जुड़े रहे वरिष्‍ठ संपादकों में सर्वश्री विश्‍वनाथ सचदेव, कैलाश चन्‍द्र पंत, विजयदत्‍त श्रीधर, हरिवंश, राम मोहन पाठक, नीरजा चौधरी, रामबहादुर राय, राहुल देव, रामशरण जोशी, प्रमोद जोशी, कमर वहीद नकवी, रामकृपाल सिंह जैसे लोगों ने इस संवाद श्रृंखला को अपने अनुभवों और विचारों से समृद्ध किया है वहीं अपेक्षाकृत युवा पत्रकारों में जगदीश उपासने, प्रदीप सिंह, पुण्‍यप्रसून वाजपेयी, प्रियदर्शन, आनंद प्रधान और प्राजंलधर जैसे लेखकों को शामिल कर यह जानने की कोशिश की गई है कि लोकतंत्र और मीडिया के आदर्श क्‍यों बदल रहे हैं? भारतीय और विशेषकर हिन्‍दी मीडिया के स्‍वामी-संपादक, पत्रकार-बुद्धिजीवी सरकार से अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के साथ-साथ निजी सुविधाओं की भी मांग कैसे करते हैं? नौकरी और आजीविका के रूप में पत्रकारिता कर रहे बुद्धिजीवी हिन्‍दी साहित्‍य और हिन्‍दी राजभाषा की कितनी सेवा कर रहे हैं? पुस्‍तक में अशोक वाजपेयी जैसे वरिष्‍ठ कवि, सुश्री मेधा पाटकर और स्‍वामी अग्निवेश जैसे संघर्षशील आन्‍दोलनकारी और एस. वाई कुरैशी जैसे पूर्व मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त ने भी जनआन्‍दोलनों और चुनाव सुधारों का लोकतंत्र पर पड़ रहे, प्रभावों की चर्चा की है। किसानों, मजदूरों, छात्रों और शिक्षकों के आन्‍दोलनों से सूचना के अधिकार के आन्‍दोलन से सरकार और समाज पर कितना गुणात्‍मक परिवर्त्‍तन हो रहा है।
लोकतंत्र का घोषित सामाजिक दायित्‍व है लोककल्‍याणजबकि मीडिया का आदर्श है सत्‍य की खोज। द्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद वैश्विक परिदृश्‍य में विकसित और विकासशील देशों ने आधुनिक लोकतंत्र को राजनीतिक व्‍यवस्‍था के रूप में स्‍वीकार कर लिया है। इससे इतर उत्‍तर कोरिया, सीरिया, सऊदी अरब, क्‍यूबा, वियतनाम जैसे अनेक देशों में अधिनायकवादी व्‍यवस्‍थाएं है। चीन सहित अनेक देशों में कम्‍युनिष्‍ट शासन की व्‍यवस्‍था भी जारी है। अनेक देशों की राजनीतिक व्‍यवस्‍थाओं में लोकतांत्रिक संस्‍थाएं पूरी तरह विकसित नहीं हुई है। लेकिन संचार माध्‍यमों ने सत्‍ता से संघर्ष करते हुए अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का अधिकार राजनीतिक और आर्थिक सत्‍ताओं से प्राप्‍त करने की कोशिश की है। संचार माध्‍यमों का विस्‍तार जो उपग्रह संचार के एक शक्तिशाली राजनीतिक हथियार के रूप में विकसित हो गया है। सूचना प्रौद्योगिकी ने जनसंचार माध्‍यमों के हस्‍तक्षेप से एक स्‍वतंत्र व्‍यक्तित्‍व निर्मित कर लिया है। समाज वैज्ञानिकों का यह नया सूचना समाज बेहद शक्तिशाली होकर खड़ा हो गया है। एक नया और खास तरह का जनमत तैयार करने का काम मुद्रित, इलेक्‍ट्रानिक और अब सोशल मीडिया करने लगी है।
सोशल मीडिया के माध्‍यम से अफवाहें या झुठी खबरें फैलाने का मामला हो या स्‍वतंत्रता के दुरुपयोग का हो लोकतंत्र के लिए पूरी दुनिया में गंभीर खतरा बन रहा है। भारत के सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने गंभीर चिन्‍ता व्‍यक्‍त करते हुए केन्‍द्र सरकार से इसे रोकने के लिए ठोस कानून बनाने का सुझाव दिया है। परम्‍परागत मीडिया से सोशल मीडिया तक की लोकतंत्र को मिल रही चुनौतियों पर यह पुस्‍तक गंभीरता से विचार करती है। विद्वान साक्षात्‍कारदाताओं से मनीष शुक्‍ल बड़े आत्‍म विश्‍वास के साथ लोकतंत्र और मीडिया की चुनौतियों, राष्‍ट्रीय दृष्टिकोण से सहमति और असहमति के बीच उभरते तनावों से उलझते हैं। इसमें स्‍वाधीनता संग्राम के दौर से सोशल मीडिया तक के इतिहास की यात्रा भी है। मीडिया की बदलती भूमिका के बदलते नैतिक मूल्‍यों और आधुनिक सामाजिक चुनौतियों की पृष्‍ठभूमि में तैयार की गई प्रश्‍नावली और कुशल सम्‍पादन के कारण यह पुस्‍तक बड़े धैर्य और ध्‍यान से युवा पीढ़ी में पढ़ी जाएगी और चर्चित होगी। यही पुस्‍तक की सचमुच सार्थकता भी होगी।
(लोकतंत्र और मीडिया की निरंतर बदलती चुनौतियाँ पुस्तक से साभार )

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