इसका एक परिणाम यह हुआ कि यूरोप में उभरी अनेक विचारधाओं की छाया स्वाधीनता आंदोलन पर वैचारिक रूप में पड़ी। साम्यवाद, नानारूप में समाजवाद और पूंजीवाद उसी वैचारिक प्रवाह से निकली धाराएं हैं। वे आज भी देखी जा सकती हैं जैसे कि कोई बहती हुई नदी सूख जाने पर अपना निशान छोड़ जाती है। इसे समझ लेना जयरी है। यूरोप की उपनिवेशवादी शक्तियों के वैचारिक दर्शन अलग-अलग थे। इस कारण वे उपनिवेशों के बारे में अपने दर्शन से संचालित होते थे। जिन्हें हमारे नेता श्रेष्ठ और आधुनिक मानते थे। वे वास्तव में दमनकारी थे और शोषक थे। पर यह भी एक सच्चाई है कि ब्रिटेन ने जो नीति अपनाई वह औपनिवेशिक शासन को अधिक स्थाई बनाने की थी। उनका यह प्रयास रहता था कि जो कानून बने वह आभाष दे कि जनता की भावना और जरूरत के अनुरूप है।
इस तरह एक तरफ दमन का कुचक्र चलाया तो दूसरी तरफ सुधारों की प्रक्रिया चलाई। इसी नीति के तहत अंग्रेजों ने राष्ट्रीय आंदोलन को संविधानवाद के दायरे में लेने वाले कदम उठाए। हमें यह आभास दिया कि वे स्वशासन दे रहे हैं। कानूनी अधिकार दे रहे हैं। अंग्रेज अपने शब्दजाल से हमें बताते रहे कि संसदीय लोकतंत्र और उत्तरदायी शासन की विवेकपूर्ण परंपरा से वे भारत को समर्थ बना रहे हैं। ब्रिटेन के इस प्रयास से हमारा नेतृत्व एक व्यामोह में पड़ गया। उसने समझा कि ब्रिटेन संवैधानिक सुधार का लचीला रास्ता अपना रहा है। इसी का दूसरा पहलू भी है कि ब्रिटेन ने यह अनुभव कर लिया था कि इन्हीं तरीकों से वे अपना प्रयास बनाए रख सकते हैं।
इसके लिए ब्रिटेन के इतिहासकार, संविधानविद और शोधकर्ताओं ने समय-समय पर पुस्तकें लिखी। उनमें ब्रिटेन के प्रयासों का सकारात्मक पक्ष प्रस्तुत किया गया है। साम्राज्यवादी योजनाओं को इस तरह महिमामंडित किया गया है मानों भारत का हित अंग्रेज साध रहे थे। अगर एक पुस्तक का उल्लेख करना हो तो ए.बी. कीथ का उदाहरण देना उचित होगा। पुस्तक है- ए कांस्टीट्युशनल हिस्ट्री आॅफ इंडिया, 1600-1335. जो हमें बताती है कि उस दौरान भारत में संवैधानिक विकास किस तरह हुआ। विषय का प्रस्तुतीकरण इसके तथ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसमें यह भाव है और उसी को बताने का दृष्टिकोण अपनाया गया है कि अंग्रेजों ने भारत को शासन योग्य बनाया। इसके लिए प्रशिक्षित किया कि वे स्वशासन कर सकें और अपनी सुरक्षा भी कर सकें। लोकतंत्र के सिद्धांतों को अपनाने की अंग्रेजों ने हमें समझ दी। कीथ की पूरी पुस्तक इस दृष्टि से ही लिखी गई है कि कैसे भारत में स्वशासन का विकास हुआ। ऐसी पुस्तकें अनेक हैं। प्रो. देवेंद्र स्वरूप ने अपने लेखों में ऐसी सौ पुस्तकों का निचोड़ नए रूप में प्रस्तुत किया है।
ब्रिटेन भारत का आर्थिक दोहन करने के लिए शासन के स्वरूप में समय-समय पर बदलाव करता रहा। उसके जवाब में स्वाधीनता आंदोलन के नेता राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक और आर्थिक तर्क जब सामने लाते थे तो साम्राज्यवादी अंग्रेज राष्ट्रवादियों के बीच से ऐसे लोगों को चुनते थे जो कोमल और नरम होते थे। वे नीतियां ऐसी बनाते थे कि इसी कोटि के नेतृत्व का स्वाधीनता आंदोलन में बोलबाला हो जाता था। इस प्रकार वे एक समूह को प्रोत्साहन और संरक्षण देते थे तो घोर राष्ट्रवादियों का दमन करते थे। उनकी दूसरी नीति होती थी समझौते की। इसे गठबंधन की नीति भी कह सकते हैं, नेहरू से गठबंधन। अंग्रेजों ने भारत में संवैधानिक सुधारों की प्रक्रिया जिस लक्ष्य से प्रेरित होकर चलाई वह उन्हें वैसे ही हासिल नहीं हो सकी जैसा कि वे चाहते थे। इतिहास का चक्र उनके मनोनुकूल योजना से न तो संचालित हुआ और न घुमाया जा सका। क्योंकि इतिहासचक्र भी काम करता रहा।
कांग्रेस के नरम दलीय नेताओं ने संविधानवाद को आगे बढ़ाया। उसमें अनेक नाम आते हैं। दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्र नाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले आदि हैं। पर यह कहना सही नहीं है कि सिर्फ नरम दलीय नेताओं ने ही संविधानवाद को बढ़ाया। संविधानवाद को बढ़ाने में तिलक और ऐनी बेसेंट का भी नाम लिया जा सकता है। उनसे अलग महात्मा गांधी ने जो शब्दावली चलाई वह अंग्रेजों की समझ से बाहर थी। महात्मा गांधी ने जो तौर-तरीके अपनाए, उससे अंग्रेज चकित रह गए और वे तरीके अंग्रेजों की समझ से बाहर थे। उनकी लड़ाई का तरीका था सत्याग्रह। जो अहिंसा पर आधारित था। उस लड़ाई से अंग्रेजों की जेलें छोटी पड़ गईं। 1915 में भारत आने के बाद महात्मा गांधी ने धीरे-धीरे आजादी की लड़ाई का नेतृत्व संभाला। 1915 से 1920 का जो समय है वह हमारे यहां अंतराल का समय कहलाता है। लेकिन 1920 के बाद जो आजादी की लड़ाई शुरू होती है वह महात्मा गांधी के नेतृत्व में होती है। साइमन कमीशन के आने के बाद भारत ने उसे नकारा। उसके समानांतर मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी। जिसने 1895 के बाद दूसरी बार संविधान का एक ढांचा तैयार किया।
इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन से यह मांग प्रबल होती गई कि संविधान बनना चाहिए। जो मांग थी उन सिद्धांतों को अंग्रेजों ने कभी नहीं माना। वे अपने हितों को सर्वोपरि मानते रहे। उसकी के लिए 1909 और 1919 के सुधार किए। उसी कड़ी में 1935 का भारत शासन अधिनियम आता है। हमें यह जानना चाहिए कि जो संविधान की मांग होती रही है उसका पहला कदम 1909 है। दूसरा कदम 1919 है। और अंति कदम 1935 है। भारत शासन अधिनियम 1935 को कई तरह से जानने की जरूरत है। पहली बात यह है कि 1935 के अधिनियम के बारे में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का मत क्या था। कांग्रेस के नेताओं ने 1935 के अधिनियम को नामंजूर किया। इस अधिनियम के अधीन 1937 में प्रांतीय असम्बेलियों के चुनाव हुए। उनमें से 8 राज्यों में कांग्रेस ने बहुमत प्राप्त किया। उनकी सरकार बनी।
1937 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो उन्होंने बयान दिया, अगर आपमें से कोई नेहरू वाङ्मय पढ़े तो 1936-37 के खंड देखे जिसमें उनके कम से कम 15 बयान हैं। कभी विधायकों के सामने बोल रहे हैं, कभी कांग्रेस महासमिति में बोल रहे हैं, कभी अखबारों में बयान दे रहे हैं। उनका सार यह है कि कांग्रेस जो सरकार बना रही है वह इसलिए कि वहां जाकर वह 1935 के अधिनियम को ध्वस्त करेंगी। जवाहरलाल नेहरू पर देश को विश्वास था। पर 26 जनवरी 1950 को जो संविधान लागू हुआ वह क्या उस विश्वास पर खरा उतरता है? बिल्कुल नहीं। क्योंकि संविधान का 80 प्रतिशत हिस्सा वही है जो भारत शासन अधिनियम 1935 में था। उसे संविधान में शब्दशः उतारकर रख दिया गया है। संविधान के तीन स्रोत हैं। पहला भारत शासन अधिनियम 1935. दूसरा, कैबिनेट मिशन प्लान जो 1946 में घोषित हुआ। उस प्लान का बड़ा हिस्सा संविधान में शामिल है। तीसरा, भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947. इसी आधार पर मैं संविधान को गांधी के सपनों की कब्रगाह कहता हूं। यह संविधान तो अंग्रेजियत का संविधान है।
ऐसा क्यों हुआ? एक कारण बहुत साफ है। जिसकी अक्सर उपेक्षा कर दी जाती है। वह यह है कि जिस समय संविधान सभा बैठी थी तो क्या उस समय संविधान बनाने की परिस्थितियां थीं? याद करिए 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा बैठती है। देश के कोने-कोने से लोग चुनकर दिल्ली पहुंचते हैं। उन्हें प्रांतीय विधानसभाओं ने चुना था। मूल सवाल यह है कि उस समय की परिस्थिति क्या थी? मुस्लिम लीग ने सीधी कार्रवाई का फैसला कर खून खराबे का माहौल बना दिया। 2 सितंबर 1946 को नेहरू गवर्नर जनरल की कौंसिल के वास चेयरमैन बनते हैं अर्थात 2 सितंबर को अंतरिम सरकार बनती है। 3 जून 1947 को बंटवारे की घोषणा होती है। इससे पूरा परिदृश्य बदल गया। जब संविधान सभा बैठी थी तो वह अखंड भारत के लिए थी। हमें यह जानना चाहिए कि संविधान सभा ने तीन हिस्सों में काम किया। पहला, 9 दिसंबर 1946 से 2 जून 1947 तक।
दूसरा, 3 जून 1947 से 14 अगस्त 1947 तक। तीसरा, 15 अगस्त 1947 से 26 नवंबर 1949 तक। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि जब हमारी संविधान सभा काम कर रही थी तो वह अमन-चैन का समय नहीं था। इसे यूं समझें। दुनिया के ज्ञात इतिहास में तीन महीने के अंदर डेढ़ करोड़ की आबादी एक जगह से दूसरी जगह जाती है और दूसरी जगह से इधर आती है। पंद्रह लाख महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार होता है। उतने ही लोगों की हत्याएं होती हैं। जिस धरती पर यह हो रहा हो वहां संविधान बनाने की कोई परिस्थिति होगी? फिर भी संविधान बना। जो संविधान बना वह अंग्रेजों के बनाए संविधान का नकल है। जैसा महात्मा गांधी चाहते थे, वैसा नहीं बना।
वैसी परिस्थितियों में संविधान बना तो इसलिए कि उसके लिए एक सचिवालय काम कर रहा था। बी.एन. राव की देख रेख में वह सचिवालय सक्रिय था। संविधान सभा ने डा. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में प्रारूप समिति बनायी। उस समिति ने संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया। उसमें बहुत सारे संशोधन हुए। संविधान सभा के 11 अधिवेशन हुए। उससे निकला संविधान।
सवाल यह है कि इस संविधान में क्या सब बातें खरा ही हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य है कि हमारे संविधान का पिरामिड उल्टा है। वह इसलिए है क्योंकि संविधान का मूल ढांचा औपनिवेशिक है। इसे संविधान की उन किताबों में देख सकते हैं जो उसकी असलियत को चीर-फाड़कर बताती है। संविधान के एक विशेषज्ञ रहे, ग्रनविल आइस्टिन। आपमें से बहुत लोग इस नाम को जानते होंगे। इस अमेरिकी व्यक्ति ने अपनी पूरी जिंदगी भारत के संविधान को जानने, समझने और पढ़ने में लगा दी। उसने दो किताबें लिखीं। कुछ वर्षों पहले ग्रेनविल आइस्टिन का निधन हुआ है। वे जब यहां आते थे और इंडिया इंटरनेशनल में रुकते थे तो पूरी दिल्ली के वे लोग जो सुप्रीम कोर्ट चलाते हैं या पार्लियामेंट चलाते हैं- मधुमक्खी की तरह उन्हें सुनने आते थे। छठे दशक में पहली किताब आई, दि इंडियन कांस्टीट्युशन, काॅर्नर स्टोन आफ ए नेशन। दूसरी किताब है, वर्किंग ए डिमोक्रेटिक कांस्टीट्युशन।
ग्रेनविल आइस्टिन ने संविधान का बिजुका कहूंगा। इसलिए क्योंकि संविधान अपने चरित्र में औपनिवेशिक है। मात्र बढ़िया प्रस्तावना से उसका स्वरूप सुंदर नहीं हो जाता। पर प्रस्तावना ऐसी है जिसमें स्वाधीनता संग्राम के सपने को चंद शब्दों में रखने की कोशिश की गई है। भारतीय संविधान बनाने वाले जो लोग थे वे आंदोलन के तपे तपाये नेता थे। सवाल दूसरा है कि उन लोगों की संविधान बनाने में कोई भूमिका थी? संविधान सभा की बहस और बी. शिवाराव की किताब को आधार बनाकर मैं कह सकता हूं कि संविधान बनाने में चंद नेताओं की ही प्रमुख भूमिका थी। इसे ग्रेनविल आइस्टीन ने भी अपनी किताब में विस्तार से बताया है। उसे पढ़ने और पढ़ाने की जरूरत है। यहां एक रहस्य पर हमें ध्यान देना चाहिए। वह यह है कि जवाहरलाल नेहरू के संविधान संबंधी पेपर्स कहां हैं? डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद के पेपर्स बी. शिवाराव को मिल गए। सरदार पटेल के पेपर भी उन्हें मिले। लेकिन जवाहरलाल नेहरू के संविधान संबंधी पेपर कहा हैं? इस बात की छानबीन होनी चाहिए। मेरा मानना है कि जवाहरलाल नेहरू के संविधान संबंधी पेपर्स ग्रेनविल आइस्टीन को मिले थे। उनकी किताब का मुख्य स्रोत वही है। ऐसा व्यक्ति जब यह लिखता है कि पूरी संविधान सभा पर एक प्रभुत्वशाली समूह काम कर रहा था तो यह एक रहस्योद्घाटन है। इस प्रभुत्वशाली समूह में 4 नाम हैं। 1. मौलाना अबुल कलाम आजाद, 2. डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद, 3. जवाहरलाल नेहरू, 4. सरदार पटेल। इनके अलावा 20-25 और लोग रहे हैं जिनका कुछ रोल था। जिनमें एक नाम डाॅ. भीमराव अंबेडकर का भी है।
जिसे हम अपना संविधान कहते हैं, उसे अंग्रेजों ने सन् 1773 से एक निश्चित उद्देश्य को सामने रखकर समय-समय पर जो कानूनी व्यवस्थाएं बनाईं, उसी का समापन सन् 1935 में भारत शासन अधिनियम में होता है। अंग्रेजों का पहले चरण में लक्ष्य था कि भारत की आर्थिक व्यवस्था को अपने नियंत्रण में करना है। इसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पूरा किया। दूसरे चरण में ब्रिटिश संसद का परोक्ष नियंत्रण हुआ। तीसरे चरण में पूरा नियंत्रण हो गया। उसके बाद जब अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों ने अंग्रेजों जैसा अधिकार मांगना शुरू किया तबसे संवैधानिक सुधारों की शुरुआत होती है। वह समय है सन् 1892. चुनाव की शुरुआत सन् 1909 से होती है। उसी क्रम में सन् 1935 का अधिनियम है। जिसे संविधान में मामूली फेर बदल से पूरी तरह शामिल कर लिया गया है। आप पूछेंगे कि वह मामूली फेर बदल क्या है? इसका सीधा सा जवाब है कि सिर्फ दो परिवर्तन किए गए जो महत्वपूर्ण हैं। एक, सन् 1935 के अधिनियम में विभिन्न समूहों और समुदायों को अंग्रेजों ने जो आरक्षण दिए थे उसे खत्म कर दिया गया। दो, सन् 1935 के अधिनियम में सीमित मताधिकार था। उसे बालिग मताधिकार में बदल दिया गया। सिर्फ ये ही परिवर्तन खास हैं। इसी अर्थ में संविधान का मूल ढांचा अपने आंतरिक स्वभाव में औपनिवेशिक है।……………………..