अगर फूल कहीं बोल पाते ! पहाड़ सारे लयमय हो जाते !!

 कैसा व्यतिरेक है ? तिथि (15 मार्च 2023) एक ही है। मगर प्रतीची में अशुभ है और प्राच्य में मंगलकारी। रोम (इटली) में रक्तरंजित हत्या इसी दिन एक महान शासक की हुई थी, तो उत्तराखंड (गढ़वाल और कुमाऊं) में आज लालिमाभरे पुष्पों का नजारा दिखता है। पर्व कहलाता है “पुष्पदेई।” 

पहला दृष्टांत है छः हजार किलोमीटर दूर रोम की त्रासदी का जिसे विलियम शेक्सपियर ने अपने नाटक “जूलियस सीजर” में अमर कर दिया था। कई बार भारत में मंचित भी हुआ। सभी भाषाओं में। यह एक महान सेनापति के विलक्षण उत्थान और मार्मिक पतन की दास्तां है। यूं इटली में हर 15 मार्च को प्राचीन मंगल देवता की उपासना का दिवस होता है। मगर आज भी राजनीतिक वर्तुलों में इस तारीख को संशयभरी निगाहों से देखा जाता है। भारत में मार्च 1977 में ही महाबलशालिनी इंदिरा गांधी का ग्यारह बरस बाद पतन हुआ था। जापान में इसी दिन 2011 में फुकुशिमा में भयावह सुनामी और अणु विस्फोट हुआ था।

 सर्वाधिक त्रासदपूर्ण घटना थी 44 सदी ईसा पूर्व जूलियस सीजर का धोखे से वध वाली। मुहावरा भी बना : “ईड्स ऑफ मार्च”। “ईड्स” शब्द की उत्पत्ति पूर्ण चंद्र से जुड़ी है। तब चांद पूरा दिखता है। रोमन लोगों के लिए यह दिन खास है। यूं लातिन में “ईड्स” शब्द का मतलब है आधा भाग। इस तरह ईड्स मार्च के 15वें दिन के लिए प्रयुक्त होता आया है। इसी दिन सीजर ने खुद को रोम का आजीवन शासक घोषित कर दिया था। इतिहास बताता है कि इस एलान के बाद 15 मार्च को सीजर ने पोंपे थिएटर में अपनी सीनेट की एक आपात बैठक बुलाई। सीजर से सहानुभूति रखने वाले एक भविष्यदृष्टा ने उसे मार्च के महीने में खासकर 15 मार्च को सावधान रहने की चेतावनी भी दी थी। तभी सीनेट की बैठक शुरू हुई। अचानक ही सीजर पर सीनेटरों के एक गुट ने हमला बोल दिया। चाकू घोंपकर उसकी हत्या कर डाली। ये गुट खुद को लिबरेटर मानता था। उन्होंने सीजर की हत्या को ये कह कर वाजिब ठहराने की कोशिश की कि वे उनके तानाशाही रवैये से रोमन गणतंत्र की रक्षा करना चाहते थे। “ईड्स ऑफ मार्च” के सीजर का दुखांत बाद में न सिर्फ इतिहास में दर्ज हुआ बल्कि दुर्भाग्य की एक किंवदन्ती भी बन गया। इस बारे में नाटक, कहानी, कविताएं लिखी गईं। फिल्में बनाईं गईं। ये त्रासदी एक आख्यान बन गई। शेक्सपियर के नाटक जुलियस सीजर में उनका दोस्त ब्रूटस उस हमले का सूत्रधार है। जब हमलावरों के साथ सीजर उसे देखता, तो तड़प कर चीखता है : “यू टू ब्रूटस।” (“ओह ब्रूटस, तुम भी।”) इस तारीख का असर लेखन, रचना और सत्ता राजनीति पर ही नहीं पड़ा, ऐतिहासिक घटनाओं के वैज्ञानिक शोध केन्द्रों पर भी। इतिहास, मनोविज्ञान और खगोल विज्ञान में इसे लेकर बहसें भी चलती रही हैं।

यह दिन हिमालयी पर्वतों पर जब मनाया जाता है तो चैत्र माह के पहले दिन पड़ता है। हिंदू नववर्ष। मुख्यतया यह बाल पर्व कहलाता है। इसी दिन सौर कैलेंडर की शुरुआत होती है। बसंत ऋतु की प्रतीक्षा समाप्त हो जाती है। इसका कथानक कृष्ण-रुक्मिणी तथा शिव-पार्वती से जुड़ा है। केदारघाटी (गढ़वाल) में एकदा यशोदानंदन और द्वारका की महारानी भ्रमण कर रहे थे। आपस में तकरार हो जाती है। तब कृष्ण छिप जाते हैं। रुक्मिणी ढूंढ़ते थक जाती हैं। फिर वह ग्रामीण बालक-बालिकाओं को अपने घरों की देहरी फूलों से सजाने को कहती हैं। अपना इतना भव्य स्वागत देखकर भगवान खुश हो जाते हैं। पसीजकर प्रगट हो जाते हैं। यह परंपरा आज भी गढ़वाल पर्वतों पर मनाई जाती है। दूसरा किस्सा भोले शंकर तथा मां पार्वती के विवाह के पर्व से सम्बद्ध है। फूलों को हाथ में लिए पीतांबर पहने बच्चों को पार्वती ने तपस्यारत शंकर को जगाने भेजा था। शिव की तंद्रा टूटी और उन दोनों का मिलन हुआ। उसी को मनाया जाता है।

कुमाऊं इलाके में तो इसी पर्व पर पिता अथवा भाई बेटी या बहन को “भिटौली” देने उसके ससुराल जाते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। भिटौली के मायने हैं भेंट। मकसद है कि परिवारजनों का मिलन हो। इस पूरे पर्व का महत्व फूलों के कारण बढ़ता है। तब पल्लवित बहार का आगमन होता है। यूं भी उत्तराखंड का राज्य-पुष्प ही ब्रह्मकमल हैं। फूलों को कवियों ने सराहा है। वे ईश्वर की मुस्कान हैं, तो धरती के सितारे भी। यदि फूलों की वाणी होती तो ? संगीत का अलौकिक आनंद भी मिलता। “प्रेम की सच्ची अभिव्यक्ति ही पुष्प होते हैं”, लिखा था उन्नीसवीं सदी में अमेरिकी कवि-संपादक पार्क बेंजामिन ने। आज पर्वतवासी इसे सच साबित कर देते हैं। फूलदेई वाले त्यौहार पर।

 

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