हेय हब्शी वे कभी कहलाते थे ! आज उनकी बोली स्वाहिली संयुक्त राष्ट्र की मान्य भाषा है.

के .विक्रम राव सदियों से अंधेरे महाद्वीप बने रहे अश्वेत अफ्रीका के करोड़ों जन को एक सूत्र में पिरोने वाली जुबान स्वाहिली का आज प्रथम “अंतर्राष्ट्रीय दिवस” है। गत वर्ष (2022) संयुक्त राष्ट्र संघ ने 7 जुलाई को ही उनका जश्न-दिवस तय कर दिया था। इसी दिन 1967 में तंजानिया के गांधीवादी राष्ट्रपति जूलियस न्येरेरे ने स्वाहिली को हजारों कबीलों, उपजातियों और बहुबोलियोंवाली जनता हेतु अफ्रीका के नवजागरण का वाहक बनाया था। उन्हें भारत सरकार ने महात्मा गांधी शांति पुरस्कार तथा नेहरू सद्भावना पदक से नवाजा था। इस अश्वेत नेता ने ब्रिटिश साम्राज्य से अपने गुलाम देश को मुक्त कराया था। उनका अस्त्र था सत्याग्रह तथा जेल की यातना भुगतना। न्येरेरे ने स्वाहिली के माध्यम हेतु “अरूषा घोषणा” अपनाई थी। इसे घोषणा (1967) को स्वाहिली में “अज़ीमियो ला अरुशा” और समाजवाद तथा आत्मनिर्भरता की नीति के रूप में जाना जाता है।
 प्रारंभ में स्वाहिली एक बंटू समूह की बोली मात्र थी। विभिन्न पूर्वी अफ्रीकी तट के कुछ हिस्सों तक सीमित। इसके शब्दावली 35% अरबी थी। केवल अरबी व्यापारियों द्वारा प्रयुक्त थी। यह भाषा हिंद महासागर के दक्षिणी सोमालिया से कोमोरोस द्वीप सहित, उत्तरी मोजाम्बिक तक व्यापी थी। पहले डेढ़ करोड़ की आबादी की यह मातृभाषा रही थी। फिर चार देशों की आधिकारिक भाषा और अफ्रीकी संघ की मान्य भाषाओं में एकमात्र अफ़्रीफी मूल वाली है, अंग्रेजी के साथ। इसने क्रमशः जर्मन, पुर्तगाली, अंग्रेजी, फ्रेंच और फारसी शब्द शामिल किए। मूल रूप से अरबी लिपि में लिखी, स्वाहिली के हिज्जे लैटिन वर्णमाला में भी ईसाई मिशनरियों और औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा इस्तेमाल होते रहे। इसी जनजातीय अफ्रीकी भाषा को वैयाकरणी सूत्रों तथा नियमों में आबद्ध किया फिनलैंड के भाषा विद्वान आर्वी जोन्हास हर्सकेनाइन ने। वे वर्तनी और शब्द-उत्पत्ति शास्त्र के निष्णात थे। उन्होंने अंग्रेजी तथा स्वाहिली शब्दकोश भी रचा था। आज स्वाहिली बोलने वाले 14 से अधिक देशों में फैले हुए हैं।
यूनेस्को द्वारा 23 नवंबर को पेरिस में आयोजित अपने 41वें सदस्य देशों के सत्र में 7 जुलाई को विश्व की स्वाहिली भाषा दिवस के रूप में नामित किया गया। स्वाहिली पहली अफ्रीकी भाषा बन गई। यूनेस्को ने पिछले महीने बताया कि स्वाहिली बीस करोड़ से अधिक बोलने वालों की दुनिया की दस भाषाओं में एक है। यह अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों में शामिल है। उदाहरणार्थ हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर छात्रों से स्वागत में पूछता है : “हमजांबो ?” (आप लोग कैसे हैं ?) छात्र उत्तर में कहते हैं : “हतूजांबो” (हम ठीक हैं)। अमेरिका के सौ से अधिक विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों में स्वाहिली को पाठ्यक्रम के रूप में पेश है। वहां की एक अमेरिकी-घानाई स्नातक स्वाहिली छात्रा और एक गैर-स्वाहिली प्रवक्ता केट मेन्सा ने कहा कि उन्होंने प्रत्येक महाद्वीप से एक भाषा सीखने के लक्ष्य के कारण इसका अध्ययन करना तय किया है। अमेरिका-स्थित भाषा सेवा संस्थान ग्लोबल लैंग्वेज साल्यूशन के अनुसार, अमेरिका में लगभग 90,000 लोग स्वाहिली बोलते हैं।
   
 भारत से भी स्वाहिली-भाषायियों का संपर्क रहा है, सदियों पुराना था। प्रगाढ़ भी। मगर वह सिदी नामक बोली के रूप मे रही। खासकर कठियावाड़ (उत्तर गुजरात में) जहां इसका चलन अभी भी है। यह हिंदी से भी पुरानी है। छठी सदी से चली आ रही है। इसकी लिपि अरबी है क्योंकि इसके बोलनेवाले इस्लामी रहे थे। भारतीय तटों में मुस्लिम अरब व्यापारी इसे लाए। जूनागढ़ जिले के तलाला तालुक में ये अभी भी लोग हर जुम्मे के दिन पारंपरिक नृत्य प्रस्तुत करते हैं जिसे “धमाल” कहते हैं। इस शब्द का ताल्लुक है हिंदी शब्दों से : धमाका, धमा-चौकड़ी, धमरा, जो फाग संगीत का एक भेद है। इसके पर्याय हैं : उपद्रव, उछल-कूद, कलाबाजी। यह होली के उत्सव में आम है।
 सिदी के शब्दार्थ हैं हब्शी। भारत में ये लोग 620 इस्वी में नर्मदा-तटीय भरूच आए थे। फिर हैदराबाद के निजाम की सेना में भर्ती हुए। हालांकि यही लोग प्रथम इस्लामी लुटेरे मोहम्मद बिन कासिम की सेना में सिंध आए थे। गुजरात के ये स्वाहिलीभाषी सिदी लोग एक सेनापति के अनुयायी रहे। वह भी अश्वेत गुलाम (हब्शी) रहा। नाम था मलिक अंबर। उसका ईराकी मालिक था मीर कासिम अली बगदादी। मलिक अंबर (1548) ने इतिहास में बड़ा नाम कमाया। वह अहमदनगर में बसा। वजीर के पद पर पहुंच गया। उसने अहमदनगर को मुगल बादशाह जहांगीर के हमले से बचाया। उसने राज्य की राजस्व व्यवस्था सुधारी और सेना को छापामार युद्ध की शिक्षा दी।
   
 स्वाहिली साहित्य में विश्व विख्यात नोबेल पुरस्कार भी 2021 में दिया जा चुका है। विजेता रहे उपन्यासकार अब्दुल रजाक गुर्नाह। यूं तो स्वाहिली भाषा तथा लिपि हिंदी से भी अधिक पुरानी है। पर उसे विकसित होते समय लगा। वह वंचितों, शोषितों हाब्शियों की बोली रही थी। गत सदी में अफ्रीकी नवजागरण की मुखर वाणी बनी। अतः आज उसने संघर्ष द्वारा दुनिया में अपनी पहचान बना ही ली। गुलाम भारत के लिए सदैव प्रेरक रही है।

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